Friday, November 25, 2011

वास्तुशास्त्र

प्राचीन अवधारणाएं आधुनि· संदर्भ में
कुरुक्षेत्र
, महाभारत का युद्ध और गीता के उपदेश की भूमि रहा है। मैं जहां से आया हँू अर्थात् जयपुर से, वहां से विराट नगर मात्र 70 कि.मी. दूर है। विराट नगर, राजा विराट की राजधानी थी जहां पाण्डवों ने एक वर्ष का अज्ञातवास बिताया और वहीं से वह पुन: प्रकट हुए। महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि बन चुकी थी और विराट नगर से शुरु हुआ उपक्रम कुरुक्षेत्र के महायुद्ध के रूप में समाप्त हुआ।
महाभारत काल में ज्योतिष और वास्तु को लेकर तीन महान प्रयोग हुए हैं। एक तो तब, जब भगवान श्रीकृष्ण ने मयासुर को पाण्डवों के लिए महल बनाने के लिए आमंत्रित किया। इस महल के मध्य में बने हुए मायावी swimming pool में दुर्योधन भ्रमवश गिर गया और द्रौपदी को उसका उपहास करने का अवसर मिला। द्रौपदी ने कहा - ‘अंधों के अंधे ही पैदा होते हैं।यहीं से दुर्योधन ने द्रौपदी से बदला लेने की ठान ली। प्रयोग यह था कि यादव कुल के आचार्य महर्षि गर्ग संसार के महान वास्तुशास्त्री माने जाते थे। उनसे सलाह नहीं लेकर भगवान श्रीकृष्ण ने मयासुर से क्यों सलाह ली? क्योंकि मयासुर को कहकर कुछ भी कराया जा सकता था। वे असुरों के गुरु थे, शुक्राचार्य के शिष्य थे। मयासुर मायावी विद्याओं के स्वामी थे और स्थापत्य में मायावी प्रयोग कर सकते थे। महर्षि गर्ग भगवान श्रीकृष्ण को मना कर सकते थे या उन्हें ऐसा करने से रोक सकते थे। बृहस्पति और शुक्राचार्य में जो अंतर है वही अंतर गर्गाचार्य और मयासुर में था। भारत में वैदिक स्थापत्य और आसुरी स्थापत्य की परंपरा रही है और इसके प्रमाण उपलब्ध हैं।
दूसरा प्रयोग तब हुआ जब अर्जुन विराट नगर में प्रकट हुए। पाण्डवों पर आरोप लगा कि उन्होंने वनवास के 12 वर्ष और अज्ञातवास का 1 वर्ष पूरा नहीं किया। उस समय के महान आचार्य पाराशर का यह निर्णय था कि इनके 12 वर्ष पूरे हो चुके हैं अत: ज्योतिष के दृष्टिकोण से इनका अज्ञातवास भी पूरा हो चुका है। विराट नगर से मात्र 10-15 कि.मी. दूरी पर पाराशर जी का आश्रम था जो वर्तमान सरिस्का टाइगर सेन्चुरी में अभी भी स्थित है। अनुमान किया जाता है कि पाण्डवों ने अपने कई वर्ष इस वन क्षेत्र में बिताए थे।
ज्योतिष और वास्तु का तीसरा बड़ा प्रयोग इसी कुरुक्षेत्र की भूमि पर हुआ, जहां पहले भीष्म पितामह ने उत्तरायण के सूर्य में इच्छा मृत्यु मांगी तथा अंतिम शैया पर भी उनका सिर दक्षिण में था और पैर उत्तर दिशा में थे जिसे कि अंतिम प्रयाण के लिए शास्त्रों में प्रशस्त बताया गया है। भीष्म ज्योतिष और वास्तुशास्त्र के ज्ञाता थे। महाभारत के 18दिनों के युद्ध में 10 दिन तक वे अकेले सेनापति थे और आखिरी 8दिन अन्य सेनापतियों द्वारा महाभारत युद्ध लड़ा गया।
यही वह भूमि है जहां भगवान श्रीकृष्ण ने सूर्यग्रहण और राहु की गणना को लेकर संसार का सबसे बड़ा प्रयोग ज्योतिष के क्षेत्र में किया। जयद्रथ वध के दिन पूर्ण सूर्यग्रहण होना था परंतु इसका पता केवल भगवान श्रीकृष्ण को था। अर्जुन ने शपथ ली थी कि अगर वे आज के युद्ध में जयद्रथ वध नहीं कर पाए तो आत्मदाह कर लेंगे। दिनभर के युद्ध में भी अर्जुन जयद्रथ के व्यूह को नष्ट नहीं कर सके। अचानक अंधकार छा गया। घोषित धर्मयुद्ध के कारण सबने युद्ध बंद कर दिया कि अचानक सूर्यग्रहण के बाद पुन: रोशनी हो गई और भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया।
यह वह धरती है जहां 18 अक्षौहिणी सेना ने भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात दर्शन किए परंतु मंच पर विद्यमान विद्वानों से मेरा एक आग्रह है कि यह बताएं कि मथुरा वंृदावन के लिए यह कथन है कि वहां जिसने एक बार जन्म ले लिया वह कहीं अन्यत्र जन्म नहीं लेता और बार-बार वहीं जन्म लेता है, यह बात कुरुक्षेत्र के लिए क्यों नहीं कही जाती? जिस कुरुक्षेत्र में गीता के उपदेश दिए गए वहां बार-बार महान युद्ध क्यों हुआ?
मैं जनता के लाभ के लिए ज्योतिष और वास्तु के महान प्रयोगों की इस धरती पर कुछ प्रसिद्ध फार्मूले बताने जा रहा हँू। शास्त्रीय विवेचन के आधार पर मैं यह फार्मूले देने जा रहा हँू - हरियाणा संस्कृत एकेडमी का यह महान प्रयास आपको लाभ दिलाने के लिए है अत: इसका लाभ आपको मिलना ही चाहिए।
भीष्म पितामह उत्तरायण के सूर्य में इच्छामृत्यृ चाहते थे। उन्होंने शरशैया पर दक्षिण में सिर उत्तर में पैर यूं ही नहीं किए थे। मृत्यु के बाद प्राण के उध्र्वगमन के लिए यही वह आदर्श स्थिति है जिसका विवरण गरुड़ पुराण में मिलता है। आज भी दाहसंस्कार से तुरंत पूर्व सिर दक्षिण में और पैर उत्तर में कराये जाते हैं। दक्षिण दिशा को जन्मपत्रिका में और वास्तुशास्त्र में सर्वाधिक बलवान माना गया है।
जिसको राज करना हो वह दक्षिण में सोए, दक्षिण में बैठे। वहां अगर कोई नौकर भी बैठे तो उसमें अधिकारलिप्सा जाती है और कुत्ते को भी दक्षिण दिशा में बांधना शुरु कर दें तो वह हिंसक होता है। जिसको घर में, समाज में, गांव में और राष्ट्र में शासन करना हो वह पूरे भूखण्ड के दक्षिण दिशा में बनाए हुए कक्ष में सोए और सिर भी दक्षिण में करे। व्यावसायिक जगह पर भी वह दक्षिण में बैठे और उत्तर की ओर मुंह करके उसकी सीट हो। दक्षिण दिशा में अधिकारलिप्सा है, अधिकारपृच्क्षा है तथा शासन करने की महत्वाकांक्षा है।
जिस हॉल में हम बैठे हैं उसमें यह स्टेज उत्तर दिशा में है। इतना बड़ा यह हॉल बना, पर इसमें शास्त्रीय प्रयोग नहीं किए गए। कोई भी ऑडिटोरियम या कोई कक्षा इस तरह से बनाए जाने चाहिएं कि स्टेज पश्चिम दिशा में हो। अगर वक्ता से श्रेष्ठ लेना है तो उसे पश्चिम में खड़ा करें। जो कुछ भी वक्ता के अंदर हैं वह थोड़ी देर में बाहर जाएगा।
ऐसे विद्वान या कर्मचारियों को जिनसे शह्वह्ल-श्चह्वह्ल ज्यादा लेना हो तो उन्हें पश्चिम दिशा में स्थान दिया जाना चाहिए। मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि सास दक्षिण में सोए और बहू भूखण्ड के पश्चिम दिशा में, तो ना केवल घर अच्छा चलेगा, बहू अपने मन में कोई भी बात नहीं रखेंगी और दिल की बात ज़बान पर जाएगी। वास्तु के छोटे-छोटे नियमों का पालन बड़े-बड़े साम्र्राज्य की अखण्डता को सुरक्षित कर देते हैं। मेरा अनुभव है कि उत्तर दिशा से ईशान कोण के बीच में द्वार या तो स्त्री दूषण लाते हैं या व्यावसायिक घरानों में विभाजन स्त्री पुत्रों के परस्पर विरोध के कारण हो जाता है।
दक्षिण दिशा से नैऋृत्य कोण के बीच में शयन स्थान बताया गया है। इससे वंश आगे बढ़ता है परंतु नैऋत्य कोण से पश्चिम दिशा के बीच में यदि गृहस्वामी की स्थिति हो तो जो भी धनागम होता है, वह दोष पूर्ण होता है और कुल के पतन का कारण बनता है परंतु गृहस्वामी स्वयं यदि दक्षिण में हो तो उनसे कनिष्ठ अन्य लोगों को नैऋत्य कोण से लेकर पश्चिम दिशा के बीच में स्थान दिया जा सकता है। पश्चिम दिशा विद्यार्थियों के लिए और पुत्रों के लिए अच्छी मानी गई है। यहां रहकर विद्याभ्यास करने से विद्यार्थियों को अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं परंतु परीक्षा के आखिरी महीनों में यदि विद्यार्थियों को थोड़े समय के लिए अग्निकोण में भेज दिया जाए तो वे और भी अच्छा परिणाम दिखाएंगे।
पूर्व दिशा मध्य से अग्निकोण की ओर चलते हैं।सत्यनाम के देवता का वास्तु पद है। इस स्थान पर लेबोरेटरी या मेडिटेशन या सत्य के अन्वेषण के लिए किया जा रहा कोई भी कार्य सफल होता है। एक वास्तुचक्र में द्वादश आदित्य की स्थिति देखने को मिलती है। अग्निकोण में भी पूषा, सावित्री और सवित्र देवताओं की स्थिति ऊर्जा या कर्मों के परिपाक के लिए श्रेष्ठ बताई गई है। स्त्रियों को यहां कुछ घंटे काम करना ही चाहिए। इस स्थान पर अग्निहोत्र करना प्रशस्त माना गया है। मैंने इस्कॉन के वल्र्ड टाउनशिप मयापुर जिसका कि प्राचीन नाम नवदीप था, की टाउन प्लानिंग के लिए कुछ सलाह दी थी। मुझे वे लोग जब गंगा और जलांगी नदी के मध्य बसे नवदीप का भ्रमण करा रहे थे तो ठीक दक्षिण दिशा में अग्निहोत्र के लिए यज्ञकुण्ड बने हुए देखे। वास्तुचक्र के ठीक दक्षिण में यम स्थान पर यज्ञ स्थल उचित नहीं है।
मंैने भविष्यवाणी की कि इस स्थान पर यज्ञ करने वाले व्यक्तियों का अहित होगा। मुझे यह तथ्य पता चला कि उनमें से दो ने आत्महत्या कर ली थी। अग्रिहोत्र को अग्निकोण में ही होना चाहिए अन्यथा अनिष्ट परिणाम सकते हैं। अग्नि से जुड़ी एक बात और भी है। देवताओं को यज्ञ भाग प्राप्त कराने के लिए मृत्युलोक में मनुष्य आहुतियां देते थे परंतु वह देवताओं तक नहीं पहुंचती थीं। ब्रह्माजी से शिकायत करने पर उन्होंने अग्निदेव की पत्नी स्वाहा को यह कार्य सौंपा कि स्वाहा नाम के साथ आहुति देने पर वह तत्संबंधी देवताओं के पास पहुंच जाएं। यज्ञ आहुति को स्वाहा शब्द के उच्चारण के साथ ही देना चाहिए। अग्निकोण को कर्मों के परिपाक के लिए श्रेष्ठ माना जाता है और लौकिक कर्मों से भी ऊर्जा संकलन इस स्थान से किया जाता है परंतु यह शयन स्थान नहीं है।
कुछ देवताओं का व्यक्तिगत चरित्र बड़ा विचित्र है। ईशान कोण से पूर्व दिशा के मध्य मेघों के देवतापर्जन्यका वास्तुपद है। वहां अगर द्वार हो तो मैंने आमतौर से 5-6कन्याओं का जन्म होते देखा है। यदि पुत्र प्राप्ति चाहिए तो हम इस द्वार को बंद करा देते हैं और उत्तर दिशा से वायव्य कोण के मध्य मुख्य नाम के देवता के स्थान पर द्वार करा देते हैं। पुत्र जन्म के लिए जो पूजा-पाठ कराया जाता है उसमें कृष्ण से संबंधित पूजा-पाठ प्रधान है।
चरक-संहिता में मोर पंख जिसके शीर्ष पर चंद्रमा हों (भगवान श्रीकृष्ण के सिर पर जो होता है) की भस्म का उल्लेख आता है जिसे आयुर्वेदाचार्य दिया करते हैं। संतान उत्पत्ति का भगवान श्रीकृष्ण से संबंध है। जिन मुख्य नाम के देवता की चर्चा मैंने की है वे निघंटु शास्त्र में विश्वकर्मा हंै, ये सूर्य के ससुर हैं। मुख्य नाम के देवता धन और संतान दोनों देते हैं।
वायव्य कोण में ही एक अन्य शक्ति छुपी हुई है। इस स्थान में उच्चाटन की शक्ति है। किसी युवा पढऩे वाले बच्चे को यदि सलेक्शन कराके बाहर भेजना हो तो यह स्थान उत्तम है। विवाह के योग्य कन्याएं यहां शयन करें तो शीघ्र विवाह हो सकता है। मैंने बहुत सारे उद्योगों में तैयार माल को यहां रखवाया तो वह शीघ्र ही बिक गया। यह इस बात का प्रमाण है कि पृथ्वी के कण-कण में जीव है और वायव्य कोण में चाहे जीवित व्यक्ति हो, चाहे पदार्थ हो, सबका उच्चाटन हो जाता है।
दक्षिण दिशा में तो स्थायित्व की शक्ति है और अगर वहां कोई वस्तु रखी जाए तो वह घर से बाहर ही नहीं निकलती। आप अपने घरों में देख सकते हैं कि दक्षिण से दक्षिण पश्चिम के बीच में चाहे काठ-कबाड़ ही हो, बहुत समय तक वहां पड़ा ही रहता है। उत्तर दिशा का अलग चरित्र है। धर्मक्षेत्र है। वहां रखी दवाइयां ज्यादा काम करती हैं। इस स्थान में आमतौर से शांति होती है और जो वहां सोता है उसकी उन्नति होती है।
वास्तुचक्र के 45 देवताओं के अलावा चक्र से अतिरिक्त कुछ देवताओं की स्थापना कराई जाती है। वास्तुचक्र के एक-एक देवता वरदान देने में समर्थ हैं और एक व्यक्ति को कितनी ही लौकिक आध्यात्मिक उपलब्धि करा सकते हैं। हम लोग यदि बहुत कुछ भी नहीं करा सके तो कम से कम अपने भूखण्डों को खाली नहीं छोड़ें। भूखण्ड निक्रिष्य नहीं होते या तो उत्थान कराते हैं या पतन। मेरी तो यह मान्यता है कि जन्म लेने के बाद वायु, जल और भोजन की उपलब्धि मनुष्यों की हैसियत में वेध उत्पन्न नहीं करती परंतु भूमि की उपलब्धि से मनुष्य छोटा-बड़ा बनता है।
भूमि जन्म-जन्मातर के अभुक्त कर्मों का संश्लेषण करती है और व्यक्ति को उन कर्मों का परिणाम दिलाती है अत: इसे खाली नहीं छोड़कर कम से कम इतना करना चाहिए कि भूखण्ड के चारों ओर एक बाउण्ड्री बनाकर उसमें वास्तु मास्टर प्लान के आधार पर कम से कम एक कमरा बना लें और भूमि पूजा करा लें इससे वह भूखण्ड सक्रिय हो जाएगा और आपको शुभ परिणाम देने लगेगा।
वास्तुचक्र में कोई एक देवता नहीं है बल्कि चक्र के अंदर 45 देवताओं की स्थिति मानी गई है। 45 देवताओं के अलावा 4 कोणों पर 4 राक्षसनियाँ हैं परंतु उनकी देव योनि मानी गई है। सबसे बीच में ब्रह्मा हैं जिनके स्थान पर यदि अग्नि इत्यादि का स्थापन किया जाए तो कुल नाश हो सकता है।
ज्योतिष और वास्तु वेदंागों के भाग हैं। वेदांग वेदों के क्रियात्मक पक्ष हैं और रोजगारपरक विद्याएं वेदों में ले आई गई हैं। वास्तुशास्त्र स्थापत्य वेद है और उसे उपवेद की संज्ञा भी दी गई है। इन्हें साधारण रूप में नहीं लेना चाहिए बल्कि इनका लाभ उठाना चाहिए।
मैं हरियाणा संस्कृत एकेडमी को धन्यवाद देता हँू कि उन्होंने मुझे यहाँ बुलाया। यहां कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के वाइस चान्सलर भी हैं, अमर-उजाला के संपादक हैं तथा हरियाणा सरकार के उच्च प्रशासनिक अधिकारी श्री खण्डेलवाल जी भी हैं। मैं एकेडमी के निदेशक इस कार्यक्रम के सूत्रधार श्री मोहन मैत्रेय से अनुरोध करूंगा कि 30-35 साल के अनुभव वाले विद्वानों से लेना है तो उनकी शोध पर आधारित लंबी वर्कशॉप करायें। यहां योग के विशेषज्ञ महन्त आत्माराम जी भी उपस्थित हैं, पटियाला में इनका आश्रम है। योग के क्रियात्मक पक्ष का भी ज्ञान होना आवश्यक है।
मैं जयपुर में रहता हँू और हरियाणा की तरह ही राजस्थान संस्कृत अकादमी भी संस्कृत और उसके प्रचार-प्रसार तथा पौराणिक शिक्षण के लिए अनुदान देती है। मैंने स्वयं ने अजमेर विश्वविद्यालय के ज्योतिष, वास्तु, कर्मकाण्ड आदि के पाठ्यक्रम बनाए हैं परंतु तत्कालीन वाइस चान्सलर श्री मोहनलाल जी पंडित ने मुझे बताया कि विद्यार्थी कम रहे हैं। सरकारी पाठ्यक्रमों में जितनी ट्रेनिंग एम.बी.बी.एस. के विद्यार्थियों को दी जाती है उसके अनुपात में पौराणिक पाठ्यक्रम के विद्यार्थियों को ट्रेनिंग नहीं दी जाती है। यही कारण है कि ऐसे पाठ्यक्रमों में विद्यार्थियों का उत्साह नहीं रहता और जब वह डिग्री लेकर समाज में आते हैं, तब काम नहीं मिलता।
तमाम विद्याएं इस श्रेणी की हैं कि उनके विद्वानों को काम की कमी नहीं रहती है परंतु यहां उल्टा है। वे ही विद्यार्थी जब किसी योग्य गुरु से शिक्षा ग्रहण करते हैं और उनके साथ गुरु का नाम जुड़ता है तब जनता उनका विश्वास करती है और उनके पास जाने लगती है। विद्या को आधुनिक संदर्भ में परिभाषित करने की भी आवश्यकता है। इनमें शोध कार्य को महत्व देने की आवश्यकता है।
मेरे से पूर्व वक्ता श्री अंगिरस जी ने धर्म की चर्चा की है। वास्तु के क्षेत्र में मेरा यह कहना है कि वास्तु भौतिक पिण्डों से नहीं है बल्कि धर्म, दर्शन और आध्यात्म की प्रतिष्ठा उसमें है। हमें अपनी बातों को कहने के लिए बड़ा मंच चाहिए और ऐसे लोगों के बीच में कहना है जो संस्कृत नहीं जानते इसलिए इसके प्रचार-प्रसार के लिए सभी वर्गों को जोडऩा आवश्यक है।
मैं सबसे अनुरोध करता हँू कि केवल श्लोक पढ़कर अनुवाद करने वाले लोगों को ना बुलाकर उन सबको बुलावें जिन्होंने शोध किया हो। हरियाणा संस्कृत एकेडमी और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में इसमें पहल कर सकते हैं।

No comments:

Post a Comment