Friday, November 25, 2011

सप्तसिंधु संस्कृति

आर्यों का मूल स्थान तथा उनका भारतीय मूल का होना अथवा नहीं होना एक वृहद विवाद का प्रसंग है। पाश्चात्य इतिहासकारों, पुराविदों, विद्वानों ने उन्हें अभारतीय मूल का माना है। अनेक भारतीय संस्थाओं, विद्वानों ने इसी इतिहास को स्वीकार कर लिया है। कतिपय भारतीय मनीषियों-विद्वानों द्वारा ऐसे प्रसंग का प्रतिवाद अथवा खंडन किए जाने पर उसे राष्ट्रवाद की संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचायक व्यक्त कर प्रसंग की मौलिकता के प्रति अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न करने का वातावरण तैयार किया जाता रहा है। भारतीय विद्वानों का मत यह रहा है कि पाश्चात्य विद्वानों ने जान-बूझकर ऐसा मत व्यक्त किया जिससे भारतीय जनमानस में पीढिय़ों तक हीन-भावना का विष घुला रहे। ऐसे पूर्वाग्रह का समाधान ‘सागर मंथन’ नामक पौराणिक आख्यान के अनुरूप हो सकता है जिसमें परस्पर विरोधियों ने मिलकर अमृत अथवा समाधान पाया था। कतिपय पुराविशेष जो आज भी पाश्चात्य अथवा अभारतीय क्षेत्रों में सुरक्षित हैं, उन पर पुन: दृष्टिपात तथा उेनका पुनर्मूल्यांकन किया जाए तो सत्य समाधान आज भी पाया जा सकता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति का एक उल्लेख सप्तसिंधु संस्कृति रहा है। विदेशी आक्रमणों, विध्वंस तथा भारतीय पुरा तथा ऐतिहासिक सामग्री को भारतीयों के हाथों से छीनकर विदेशों में पहुंचा दिए जाने के कारण भारतीय संस्कृति की मौलिकता को ग्रहण लग गया है। जगद्गुरु तथा विश्व-विजेता होने के गौरवशाली आयाम से भारतीय वंचित कर दिए गए हैं। सप्तसिंधु क्षेत्र की व्यापकता कहां तक थी इसका समाधान खोजा जाए तो भारतीय संस्कृति के खोए हुए आध्यात्म पुन: जीवित हो सकते हैं।
विश्व इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम सभ्यताएं मिस्त्र, सुमेर, बेबीलोन, असीरिया, चीन तथा सिंधुघाटी में पनपी थीं। उन सभ्यताओं के उद्गम काल में जो लगभग ई.पू. 2500 वर्ष के आस-पास का रहा है, उस काल में सप्तसिंधु क्षेत्र की सीमा कहां तक थी इस प्रसंग पर विधिवत व्याख्याएं देखने को मिलती हैं। क्या सप्तसिंधु क्षेत्र पंजाब की पांच नदियों के साथ दजला-फरात (मेसोपोटामिया) नदियों तक विस्तृत था, यह एक आधारभूत प्रश्न है? यदि ऐसा था तो इराक, ईरान, भारत का इतिहास एक सूत्र में गुंथा झलकता है। भारतीय तथा इराक की (मेसोपोटमिया) सभ्यताओं में प्राचीनकाल से ही परस्पर व्यापारिक, सांस्कृतिक और अन्य क्षेत्रों में विनिमय होता रहा है। मेसोपोटामिया में दजला-फरात नदियों के क्षेत्र में विश्व की तीन प्रमुख सभ्यताएं पनपी थीं। अनेक भारतीय विद्वानों के अनुसार असुर (असीरिया) सभ्यता के नामों तथा संस्कृत भाषा में बहुत साथ पाया गया है। सुमेर बेबीलोन क्षेत्र में सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्राएं (सील) पाई गई हंै। बगदाद (इराक) के संग्रहालय में प्रदर्शित एक मुद्रा पर हाथी, मगरमच्छ तथा गैंडा बना हुआ है। एक अन्य चौकोर मुद्रा पर वृषभ (सांड) बना हुआ है तथा इस मुद्रा पर भारतीय भाषा में शब्द लिखा हुआ है। तत्कालीन सुमेर-बेबीलोन सभ्यता के जनक तथा शासकों के नाम जमदतनसर (अपभ्रंश यमदूत असुर अथवा यमदूत ने असुर) तथा आकड़ (अक्खड़ अपभ्रंश अक्षत) जाति के सरगौन (अपभं्रश सर्वगुण) पाए जाते हैं जिनका कार्यकाल ई.पू. 2350 के लगभग था। उसी काल में बेबीलोन के उत्तर में लगभग 500 किलोमीटर दूर दजला नदी के तट पर अक्कड़ जाति के संस्थापक सरगौन प्रथम (ई.पू. 2350) ने असुर साम्राज्य की नींव डाली थी। असुर साम्राज्य (असीरिया) को प्रथम राजधानी का नाम असुर रखा। इतिहासकारों ने असुर साम्राज्य के संस्थापक का नाम पुदूर असुर (अपभ्रंश पूज्यवर असुर) उल्लेख किया है जो कि बहुत संभव है कि एक ही व्यक्ति के नाम तथा उपाधि रहे हों। असुरों का इतिहास 2350 से 1775 ई.पू. तक का ज्ञात है तत्पश्चात् उनका इतिहास और गौरव लुप्त हो गए। ई.पू. 1000 वर्ष के आस-पास ही इन असुरों का पुन: उदय हो पाया था। ज्ञात इतिहास के अनुसार ई.पू. 1750 से ई.पू. 1000 वर्ष की अवधि के मध्य ही सिंधु घाटी सभ्यता का लोप हुआ था। क्या असुर संस्कृति तथा सिंधु घाटी सभ्यता का लोप एक समानान्तर प्रक्रिया अथवा एक ही मूलभूत निर्मित्त विशेष के कारण हो रहा है? इस संभावना पर इतिहासकार प्राय: मौन हैं। कतिपय पुरा सामग्री का विवेचन इस मौन को मुखरित होने के लिए विचार करने पर बल देता है। यथा 2350 ई.पू. में असुर नगर की स्थापना से पूर्व उसी भूमि पर बसे हुए गांव अथवा नगर (इसका नाम ज्ञात नहीं है) में ‘अनुअदाद’ नामक देवी-देवता के मंदिर में खण्डहरों में यज्ञोपवीतधारी (ब्राह्मण आर्य) पुजारी की खंडित प्रतिमा पाई गई जो असुर पर्व लगभग ई.पू. 2400 काल की है। इसका सिर गायब है किन्तु पास में गर्दन तक का धड़ उपलब्ध है जिसकी लंबाई 137 सेंटीमीटर है। आज यह प्रतिमा बर्लिन (जर्मनी) के संग्रहालय में है। पाश्चात्य विद्वानों ने इसकी पीठ पर कंधे से कटि तक स्पष्ट प्रदर्शित यज्ञोपवीत के धागे को मोटे किनारे वाला वस्त्र कहकर कदाचित् सत्य इतिहास को छुपाने का प्रयास किया है। यदि यह मोटे किनारे वाला वस्त्र होता तो उस शरीर पर जहां भी वस्त्र पहना गया है, वहां पर मोटे धागे की गहरी धारियां दिखाई जाती, किन्तु ऐसा नहीं है। ई.पू. 2400 में असुरों का उदय नहीं हुआ था, तब क्या तत्कालीन इराक में दजला में आर्य संस्कृति का शासन था तथा वे आर्य असुरों के आक्रमण को नहीं झेल पाए। परिणामस्वरूप उन्हें पलायन करना पड़ा। समानान्तर आधार पर अनार्यों द्वारा सिंधु घाटी क्षेत्र पर ई.पू. 2400-2500 के लगभग आर्य बस्तियों पर आक्रमण कर सिंधु क्षेत्र से आर्यों को भागने पर विवश किया था। कालान्तर अपने मूल स्थान सिंधु प्रदेश-पंजाब के क्षेत्र को मुक्त करवाने हेतु आर्यों ने असीरिया क्षेत्र में असुरों को पराजित कर आगे बढ़कर भारत में अपने मूल क्षेत्र को स्वाधीन करवाया था। कदाचित लिखित ऋग्वेद में आर्य-अनार्य युद्ध में आर्यों द्वारा दस्युओं तथा दासत्व के समर्थकों के विरुद्ध सफल अभियानों का ऐतिहासिक वर्णन रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता तथा असुरों के उद्भव से पूर्वकाल की ग्रेनाइट पत्थर पर उत्कीर्ण एक सिंह की प्रतिमा बर्लिन (जर्मनी) के संग्रहालय में सुरक्षित है जो ई.पू. 3000 वर्ष पुरानी है। यह सिंह प्रतिमा लगभग आठ इंच लंबी है तथा मिस्त्र में खोज निकाली गई थी किन्तु विद्वानों के अनुसार यह सिंह प्रतिमा मिस्त्र की न होकर किसी अन्य मूल स्थान की है। आज से पांच हजार वर्ष पहले ग्रेनाइट जैसे कठोर पत्थर को काट-छांट कर उत्कीर्ण करके, मिस्त्र की प्रतिमा बनाने के लिए उत्तम इस्पात की छेनियों का उपयेाग किया जाना बहुत संभव रहा है। ग्रेनाइट बहुत कठोर पत्थर होता है जो साधारण तांबे अथवा कांसे के उपकरणों से सरलता से काटा नहीं जा सकता। तत्कालीन लोहे-इस्पात के उपकरणों का मिट्टी में दबकर गलकर नष्ट हो जाना सहज संभव है। विश्व में लोहे-इस्पात का उपयोग सर्वप्रथम भारतीयों ने ही किया था। ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख पाया जाता है अत: यह ग्रेनाइट का सिंह ई.पू. 3000 वर्ष के समय भारत में आर्यों की उपस्थिति का मूक प्रमाण है।
इतिहास की एक महत्वपूर्ण पुरावस्तु असीरिया की एक राजधानी निनवे में पाया गया कांसे का मुख है। इतिहासकारों ने इसे असुर साम्राज्य के संस्थापक सरगौन प्रथम का माना है। यह मुख निनवे नगर की अधिष्ठात्री देवी नीना के मंदिर के तलपर में रखा हुआ पाया गया था। इस मुख को सरगौन प्रथम के पुत्र मनसतुसु (अपभ्रंश मानस युकुत्सु अर्थात् हृदय से युद्धप्रिय) ने अपने पिता की स्मृति में लगभग 2300 ई.पू. में बनवाया था। इस मुख की आंखे बहुमूल्य रत्नों से जड़ी थीं जो किसी ने चोरी करके निकाल ली थीं। सन् 1931 में इसके पाए जाने पर इसके समीप एक गोल मुद्रा (सिलिण्डर सील) पाई गई थी, जिस पर असुरागज शमशी अदाद। (अपभं्रश सतशिव आदित्य) ई.पू. 1815-1782 का नाम पाया गया था। कुछ इतिहासकारों ने इस मुख को शमशी अदाद का माना है। आज यह मुख बगदाद (इराक) के संग्रहालय में प्रदर्शित है। इतिहासकार इस प्रसंग पर मौन हैं कि इस मुख की आँखों में कौन से रत्न जड़े हुए थे। यदि हीरे थे जो तत्कालीन विश्व में हीरे केवल भारत में ही पाए जाते थे। उन हीरों अथवा रत्नों के पारखी कौन लोग थे यह भी अज्ञात है। सिंधु घाटी सभ्यता वासी हीरे से अपरिचित प्रतीत होते रहे हैं अत: भारतीय हीरों का नियंत्रण तथा उपयोग कोई साधारण श्रेणी के लोग नहीं कर सकते थे। क्या ऐसे लोग वही आर्य थे जिन्हें असुरों ने ई.पू. 2350 के लगभग उत्तरी इराक से पलायन करने पर मजबूर किया था? इतनी उत्कृष्ट कलाकृति तथा उसमें पगड़ी पहनने की परम्परा से परिचय ज्ञात सभ्यताओं में किन जातियों अथवा किस स्थान के लोगों का रहा था यह भी अज्ञात है।
निष्कर्षत: यही कहना उचित होगा कि भारतीय मनीषियों, विद्वानों तथा पुराविशेषज्ञों को भारतवर्ष की मौलिकता को आहत करने वाले असत्य इतिहास का सत्य पुन:शोधन हेतु देश-विदेश में प्रयास करना चाहिए।

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