Saturday, June 18, 2011

ग्रहों में पिता-पुत्र संबंध

पिता का पुत्र से स्वाभाविक स्नेह का संबंध होता है तो पुत्र का संबंध पिता के प्रति आदर भाव एवं पिता के सम्मान से होता है। ऎसा नहीं है कि यह संबंध मानव के बनाए हैं कि अमुक का पुत्र अमुक है अपितु यह संबंध अनादिकाल से बने हैं जो धरती पर देखने में आते हैं। हमारे नवग्रह मंडल में भी कुछ ग्रहों में आपस में पिता-पुत्र संबंध हैं जो कि व्यक्ति की जन्मपत्रिका को भी प्रभावित करते हैं। यह पिता-पुत्र सूर्य एवं शनि तथा चंद्रमा एवं बुध हैं।

सूर्य एवं शनि:— पौराणिक कथाओं के अनुसार त्वष्टा की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्यदेव के साथ हुआ था। वैवस्वत मनु, यम और यमी के जन्म के बाद भी वे सूर्य के तेज को सहन नहीं कर सकीं और अपनी छाया को सूर्य देव के पास छो़डकर चली गई। सूर्य ने छाया को अपनी पत्नी समझा और उनसे सावण्र्य, मनु, शनि, तपती तथा भद्रा का जन्म हुआ। जन्म के पश्चात जब शनि ने सूर्य को देखा तो सूर्य को कोढ़ हो गया। सूर्य को जब संज्ञा एवं छाया के भेद का पता चला तो वे संज्ञा के पास चले गए। सूर्य पुत्र शनि का अपने पिता से वैर है। ज्योतिष शास्त्र में फलादेश करते समय भी इस तथ्य का ध्यान रखा जाता है। इनके वैर को इस प्रकार समझा जा सकता है कि सूर्य जहां मेष राशि में उच्चा के होते हैं वहीं शनि मेष में नीच के होते हैं। सूर्य तुला में नीच के होते हैं तो शनि तुला में उच्चा के होते हैं। यदि दोनों एक साथ किसी एक ही राशि में बैठ जाएं तो पिता-पुत्र का परस्पर विरोध रहता है या एक साथ टिकना मुश्किल हो जाता है। सूर्य के परम मित्र चन्द्रमा से शनि का वैर है और शनि की राशि में सूर्य जीवन में कुछ कष्ट अवश्य देते हैं परन्तु जैसे सोना तपकर निखरता है वैसे ही सूर्य-शनि की यह स्थिति भी कष्टों के बाद जीवन में सफलता लाती है।

सूर्य आध्यात्मिक प्रवृत्ति के हैं तथा शनिदेव आध्यात्म के कारक हैं, अत: जन्मपत्रिका में सूर्य एवं शनि की युति व्यक्ति को धर्म एवं आध्यात्म की ओर उन्मुख करती है। कुछ संतों की जन्मपत्रिका में सूर्य-शनि की युति देखी जा सकती है, जिनमें सत्य साँई बाबा एवं मीरा बाई के नाम हैं।

चन्द्र-बुध:— पौराणिक कथाओं के अनुसार चन्द्रमा ने अपने गुरू बृहस्पति की भार्या तारा का अपहरण किया। तारा और चन्द्रमा के सम्बन्ध से बुध उत्पन्न हुए। बालक बुध अत्यन्त सुन्दर और कांतिवान थे। अत: चन्द्रमा ने उन्हें अपना पुत्र घोषित किया और उनका जातकर्म संस्कार करना चाहा। तब बृहस्पति ने इसका प्रतिवाद किया। बृहस्पति बुध की कांति से प्रभावित थे और उन्हें अपना पुत्र मानने को तैयार थे। जब चन्द्रमा और बृहस्पति का विवाद बढ़ गया तब ब्रrााजी के पूछने पर तारा ने उसे चन्द्रमा का पुत्र होना स्वीकार किया। अत: चन्द्रमा ने बालक का नामकरण संस्कार किया और उसे बुध नाम दिया गया। चन्द्रमा का पुत्र माने जाने के कारण बुध को क्षत्रिय माना जाता है। यदि उन्हें बृहस्पति का पुत्र माना जाता तो उन्हें ब्राrाण माना जाता। बुध का लालन-पालन चन्द्रमा ने अपनी प्रेयसी पत्नी रोहिणी को सौंपा। इसलिए बुध को "रौहिणेय" भी कहते हैं।

बुध-चन्द्रमा के पुत्र थे और बृहस्पति ने उन्हें पुत्र स्वरूप स्वीकार किया था। अत: चन्द्रमा और बृहस्पति दोनों के गुण बुध में सम्मिलित हैं। चन्द्रमा गन्धर्वो के अधिपति हैं। अत: उनके पुत्र होने के कारण गन्धर्व विद्याओं के प्रणेता हैं। बृहस्पति के प्रभाव के कारण ये बुद्धि के कारक हैं। चन्द्रमा ने छल से तारा का अपहरण किया था, पिता के संस्कारों एवं स्वभाव का प्रभाव पुत्र पर भी निश्चित रूप से किसी न किसी प्रकार से प़डता ही है, अत: बुध का सम्बंध भी छल कपट से जो़डा गया है, मुख्य रूप से सप्तम स्थान स्थित बुध का। जन्मपत्रिका में अकेले बुध ही कई बार व्यक्ति को छल-कपट का आचरण करने पर विवश कर देते हैं।

Tuesday, June 14, 2011

षष्ठेश दशम भाव में

षष्ठ स्थान कुण्डली में मुख्यत: रोग, रिपु, ऋण के लिए देखा जाता है। इस स्थान को रोग स्थान कहा गया है। रोग शरीर का पहला शत्रु अथवा रिपु है। बीमारियों से संबंधित सभी बातें षष्ठ भाव जु़डी हैं। बीमारी कब होगी, किस प्रकार की होगी, षष्ठ स्थान से नौकर देखे जाते हैं।
व्यक्ति की सेवा भाव, काम के प्रति समर्पण, काम करने का तरीका नौकरी में कायम रहना, नौकरी से मिलने वाला वेतन, व्यक्ति जिनसे धन से जु़डी लेन-देन करता है। प्रतियोगिता से मिलने वाली सफलता, चुनाव में जीत, कोर्ट-कचहरी में जीत आदि बातें षष्ठ भाव से देखी जाती हैं। जातक के संबंधी, छोटे भाई-बहिनों की शिक्षा, घर या वाहन खरीदना, माता की यात्राएं, घर बदलना, संतान को धन प्राप्ति, पति या पत्नी की विदेश यात्रा, धन हानि, पिता का मान-सम्मान, ब़डे भाई-बहिन या दोस्त की दुर्घटना, परेशानियां आदि।
प्राय: षष्ठेश जहां भी स्थित होता है, उस भाव से संबंधित व्यक्ति के रिश्तेदार से शत्रुता होती है। ष्ाष्ठेश यदि दशम भाव में स्थित हो तो व्यक्ति प्राय: पिता से शत्रुता करे। कर्म भाव में होने से कार्यक्षेत्र में शत्रु अधिक होते हैं, छोटे भाई-बहिनों से अष्टम स्थान होने से वाहन दुर्घटना होती है। माता से सप्तम भाव में होने से शारीरिक कष्ट, संतान से षष्ठ होने से संतान को बीमारी, जीवनसाथी से चतुर्थ होने से वाहन, मकान प्राप्ति, ब़डे भाई-बहिनों से द्वादश अत: खर्चा विदेश यात्रा से संभव। इस प्रकार षष्ठेश यहां स्थित होने से उपरोक्त व्यक्ति को कष्ट संभव है।
षष्ठेश सारांश रूप से निम्न लग्न वालों के लिए शुभ और अशुभ फल प्रदाता होते हैं।
अधिकतर विषम लग्न में मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुंभ लग्न में ज्यादा अशुभ प्रदाता होते हैं।
1. मेष लग्न में बुध अशुभ होते हैं। तृतीयेश और षष्ठेश होने के कारण अशुभ पूर्ण।
2. मिथुन लग्न में मंगल षष्ठेश और एकादशेश होने से पूर्ण अशुभ होते हैं।
3. सिंह लग्न में शनि षष्ठेश और सप्तमेश (मारक) होने से पूर्ण अशुभ होते हैं।
4. तुला लग्न में बृहस्पति तृतीयेश और षष्ठेश होने से पूर्ण अशुभ होते हैं।
5. धनु लग्न में शुक्र षष्ठेश, एकादशेश होने से अशुभ होते हैं।
6. कुंभ लग्न में चंद्रमा षष्ठेश अशुभ होते हैं। दशम में नीच भी होते हैं। अत: ओज लग्न में षष्ठेश अशुभ प्रदाता होते ही हैं। सम लग्न में षष्ठेश के साथ अन्य राशि का स्वामी शुभ होता है
अत: यह शुभप्रदाता हो जाते हैं। वृषभ लग्न में शुक्र स्वयं लग्नेश भी होते हैं, लग्नेश होने से शुभ हैं।
कर्क लग्न में षष्ठेश बृहस्पति स्वयं भाग्येश भी होते हैं। त्रिकोण स्वामी केन्द्र में होने से राजयोग कारक होते हैं।
कन्या लग्न में शनि षष्ठेश, साथ में पंचमेश भी होते हैं। त्रिकोण स्वामी दशम केन्द्र में होने से शुभ होते हैं।
वृश्चिक लग्न में मंगल, षष्ठेश स्वयं लग्नेश भी होते हैं अत: शुभ प्रदाता होते हैं।
मकर लग्न में बुध, षष्ठेश स्वयं नवमेश भी होते हैं। नवमेश (त्रिकोण) स्वामी होकर केन्द्र में राजयोग प्रदाता हैं।
मीन लग्न में सूर्य अकेले बुध अशुभ पर दशम भाव में दिग्बली मित्र राशि में शुभ प्रदाता होते हैं।
मेष लग्न में षष्ठेश बुध दशम भाव में स्थित हों तो दशम भाव में मकर राशि है, जो शनि की है
अत: शनि एवं बुध आपस में मित्र हैं परंतु बुध षष्ठेश के साथ तृतीयेश भी हैं जो मेष लग्न में अशुभ होते हैं। इस प्रकार से बुध के दशम में स्थित होने से बुध की दशा में व्यक्ति के कार्यक्षेत्र में परेशानी उत्पन्न होगी। जहां नौकरी व्यवसाय होगा वहां शत्रु उत्पन्न होंगे। व्यवसाय में घाटा लगेगा। व्यवसाय के लिए ऋण लेना प़डेगा। छोटे भाईयों के साथ यदि व्यवसाय होगा तो उस समय व्यवसाय में बंटवारा हो सकता है या पार्टनरशिप टूट सकती है।
यदि बुध 6.400 से 100 के बीच में हों तो नीच नवंाश में होंगे परंतु 26.40 से 30.00 अंश के बीच होते हैं तो कुछ अशुभ प्रभाव कम देंगे। वृषभ लग्न में षष्ठेश शुक्र दशम भाव में कुंभ राशि में होने से और 000 से 3.200 तक स्वराशि नवांश में होने से व्यक्ति के कार्यक्षेत्र में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी क्योंकि यहां शुक्र लग्नेश भी हैं जो मित्र राशि में स्थित हैं। इस प्रकार से जब शुक्र की दशा-अन्तर्दशा होगी तो व्यक्ति के कार्यक्षेत्र में दिक्कते नहीं आयेंगी, सामान्य स्तर का होगा, फायदा होगा। 16.40 अंश से 20.00 अंश तक होने से नवांश में उच्चा के होंगे। इसमें व्यक्ति को फायदा ही होगा। शत्रुता ना के बराबर होगी, मामा पक्ष से व्यक्ति को फायदा होगा। लग्न केन्द्र और त्रिकोण होता है अत: केन्द्र-त्रिकोण के स्वामी होकर केन्द्र में होने से व्यक्ति को राजकार्य में फायदा होगा।
मिथुन लग्न में षष्ठेश मंगल दशम भाव में दिग्बली होते हैं, अपने मित्र की राशि में स्थित होते हैं। मिथुन लग्न में मंगल षष्ठेश, एकादशेश होने के कारण अशुभ होते हैं अत: जब मंगल की दशा होगी तो व्यक्ति के कार्यक्षेत्र में परेशानियां अवश्य होंगी। व्यक्ति पर ऋण, कर्जे का भार अधिक चढ़ेगा, शत्रुता बढ़ेगी। नौकरी में हो तो व्यक्ति को कारण बताओ नोटिस प्राप्त हो सकता है। भाईयों के साथ यदि व्यवसाय होगा तो उसमें पार्टनरशिप टूट सकती है अत: इस लग्न में षष्ठेश की भूमिका अशुभ होगी। मानसिक परेशानियां अधिक ही रहेंगी। कर्क लग्न में षष्ठेश बृहस्पति होते हैं। जो अपने मित्र के घर में भी होते हैं। बृहस्पति साथ ही नवमेश भाग्येश भी हैं। नवम, दशम का संबंध होने से राजयोग भी दिलवाएंगे। इस प्रकार से व्यक्ति से नौकरी या व्यवसाय प्रारंभ करने वाले होंगे तो उनकी नौकरी प्राप्त होगी, व्यवसाय का प्रारंभ होगा, शत्रु अवश्य होंगे पर परेशानी कम ही पैदा कर पायेगा। धन की व्यवस्था व्यापार के लिए आसानी से हो जाएगी। मामा और मित्रगण सभी सहयोग प्रदान करते रहेंगे, बैंक ऋण प्राप्ति भी आसानी से हो जाएगी।
यदि बृहस्पति 100 से 13.200 के बीच होगे तो उच्चा नवांश में होंगे अत: यह ज्यादा शुभकारी होंगे। सिंह लग्न में षष्ठेश शनि अपने मित्र के घर में दशम भाव में स्थित हैं पर यहां शनि सप्तमेश मारक भी होते हैं। षष्ठेश (रोग) और मारकेश शनि दशम भाव में होने से व्यक्ति के पिता को शारीरिक कष्ट भी होता है। जब शनि की अन्तर्दशा हो, कार्यक्षेत्र में अशांति और शत्रु अधिक प्रबल हों, स्थानान्तरण भी हो सकता है, ऋण कर्जा की वृद्धि होगी, व्यापार में घाटा लग सकता है। सिंह लग्न में षष्ठेश शनि दशम में अच्छे नहीं होते हैं। पिता को शारीरिक कष्ट हो सकता है। कन्या लग्न में शनि षष्ठेश होते हैं और शनि दशम भाव में स्थित होते हैं जो उनकी मित्र राशि है। शनि की एक राशि पंचम भाव में प़डती है जो त्रिकोण के स्वामी भी होते हैं। त्रिकोणेश होकर केन्द्र में स्थित होने से राजयोग कारक भी होते हैं अत: षष्ठेश दशम भाव में होकर व्यक्ति की प्रमोशन कराते हैं, ऋण से छुटकारा दिलाते हैं, शत्रु भी कम होते हैं। विशेषकर यदि 00-3.20 डिग्री तक होंगे, जो उच्चा नवांश में होने से व्यक्ति को अधिक फायदेमंद होगे। 20.00-23.20 अंश के बीच में होने से नीच नवांश में होने से ज्यादा शुभ नहीं होेगे। तुला लग्न में बृहस्पति उच्चा के होकर दशम भाव में स्थित हैं। बृहस्पति तृतीय भाव के भी स्वामी हैं जो इस लग्न के लिए अशुभ होते हैं। इस लग्न वालों के लिए बृहस्पति की दशा पूर्ण रूप से कार्यक्षेत्र में अशुभ ही होगी। व्यक्ति का स्थानान्तरण होगा। व्यक्ति के पिता से विचारों से मतभेद होगा। घर में चोरी होगी, छोटे-भाईयों से मतभेद प्रारंभ होंगे तथा भाई घर छो़डकर दूसरे स्थान में कार्य करेगा। व्यक्ति के कर्मक्षेत्र में भी शत्रु अधिक हो सकते हैं जिनसे मानसिक अशंाति रहेगी अत: षष्ठेश दशम भाव में अशुभप्रद होंगे। जब यदि बृहस्पति 200 - 23.200 तक हों तो ज्यादा अशुभ होंगे पर 00-3.200 तक हों तो सामान्य शुभफल अवश्य करेंगे।
वृश्चिक लग्न में षष्ठेश मंगल अपने मित्र के घर में सिंह राशि में होते हैं। षष्ठेश और लग्नेश होने से व्यक्ति को षष्ठेश के अशुभ प्रभाव कम होंगे। यहां मंगल दशम भाव में दिग्बली होते हैं साथ ही यदि 00-3.200 तक एवं 23.200 से 26.400 तक हो तो स्वनवांश में होने से अच्छे प्रभाव देंगे परंतु यदि 100 अंश से 13.200 अंश तक हो तो नीच नवांश में होने से शुभ प्रभाव नहीं दे पाएंगे। यदि मंगल की दशा व्यक्ति को 20 से 30 वर्ष के बीच में आ जाए तो व्यक्ति को सरकारी नौकरी प्राप्त हो सकती है। यदि व्यापार करना चाहेगा तो व्यापार होगा। कर्मक्षेत्र में उत्पन्न शत्रुओं का नाश होगा, कर्जा लेना चाहे तो तुरंत प्रभाव से प्राप्त होगा। इस प्रकार से व्यक्ति के लिए अच्छा ही होगा परंतु स्वास्थ्य संबंधी समस्या पिता के लिए अवश्य रहेगी। यदि सूर्य नीच के द्वादश भाव में हों तो।
धनु लग्न में षष्ठेश शुक्र नीच के दशम भाव में स्थित हैं। साथ ही शुक्र एकादशेश भी हैं। प्रत्येक लग्न में त्रिषडाय के स्वामी अशुभ होते हैं अत: यहां शुक्र षष्ठ-एकादश भाव के स्वामी होने से पूर्ण अशुभ होते हैं। साथ ही नीच के होने से अशुभ होते हैं। यहाँ स्थित शुक्र व्यक्ति के व्यवसाय में नुकसान कराते हैं। इनकी दशा-अन्तर्दशा में व्यक्ति का स्थान परिवर्तन होता है, कर्मक्षेत्र में शत्रु अधिक होंगे, कर्जा बढ़ेगा, स्वास्थ्य की दृष्टि से संतान पक्ष को अधिक परेशान करेंगे। स्वयं की पत्नी को कष्ट होगा, वाहन से एक्सीडेंट हो सकता है। किसी स्त्री व महिला द्वारा (कार्यक्षेत्र में) व्यक्ति पर आरोप-प्रत्यारोप लग सकते हैं। बुध 6.400 से 100 तक हों तो शुभ प्रदाता होंगे, वे उच्चा नवांश में रहेंगे।
मकर लग्न में षष्ठेश बुध होकर दशम भाव में मित्र की राशि में स्थित हैं। बुध नवमेश होते हैं, नवमेश होकर दशम भाव में स्थित होते हैं। इस प्रकार से त्रिकोण के स्वामी होकर दशम (केन्द्र) में स्थित होने से राजयोग का निर्माण करते हैं अत: बुध इस लग्न वाले को अच्छा राजयोग प्रदाता होंगे परंतु षष्ठेश होने से व्यक्ति के कार्यक्षेत्र में शत्रु उत्पन्न करेंगे। बुध की दशा में पद प्राप्ति करायेंगे, कर्ज से निवृत्ति दिलवायेंगे, स्वास्थ्य संबंधी कम अशुभता प्राप्त होगी। इस लग्न में षष्ठेश कम अशुभ प्रदाता होंगे।
कुंभ लग्न में षष्ठेश चंद्रमा होते हैं और दशम भाव में नीच राशि में स्थित होते हैं। इस लग्न में चंद्रमा षष्ठेश होने से अशुभ दूसरी राशि नहीं होने के कारण व्यक्ति के शत्रुओं की वृद्धि अधिक होंगी। व्यक्ति हमेशा मानसिक तनाव में रहेगा। विशेषकर जहां वह कार्य करता है वहां उस व्यक्ति को हमेशा दिक्कतें प्राप्त होगी। व्यक्ति व्यवसाय के लिए कर्जा लेगा, वह बढ़ता जाएगा जिससे हमेशा चिंतित रहेगा। परिवार में कलह रहेगी, स्वयं मानसिक तनाव युक्त ही रहेगा। यदि चंद्रमा 00 से 3.200 अंश तक होंगे तो कुछ कम कष्टप्रद होंगे। इसकी दशा-अन्तर्दशा में व्यक्ति का स्थानान्तरण होगा। मामा पक्ष से भी कष्ट प्राप्त होगा। मातृपक्ष से जमीन-जायदाद संबंधी विवाद हो सकता है।
मीन लग्न में सूर्य षष्ठेश होकर दशम भाव मे मित्र की राशि में स्थित होते हैं जो लग्नेश की दूसरी राशि है तथा जो शुभ है। इस प्रकार से यह सूर्य यहां दिग्बली होते हैं अत: व्यक्ति का वर्चस्व बढ़ाएंगे, शत्रु कम करेंगे, शत्रु अवश्य होंगे, जहां कार्य करेगा परंतु शत्रुओं का स्वयं ही अंत हो जाएगा। व्यक्ति सरकारी नौकरी में होगा या राज्य से किसी भी प्रकार से संबंध हो सकता है। सूर्य की दशा में व्यक्ति के ऋण संबंधी निवारण होते हैं। पिता से संबंध तनावयुक्त हो सकते हैं परंतु वाद-विवाद के बाद भी दोनों प्रेमयुक्त ही रहेंगे। व्यक्ति के पिता को शारीरिक कष्ट हो सकता है। यदि सूर्य 000-3.200 तक हों तो अच्छे फल प्रदाता होते हैं।

क्या राहु दशा का है इंतजार?

नाम सुनते ही लोग डर जाते हैं। शनि भारी है या राहु? इसका अनुमान तो ज्योतिषियों को भी नहीं है। राहु के बारे में बड़े-बड़े मनीषी भी तरह-तरह की कल्पनाएं करते थे। जो पौराणिक कथानक राहु के साथ जोड़े गए हैं, उनमें उन्हें केवल सिर बताया गया है, बाकी सारा शरीर केतु के साथ चला गया। बहुत कम लोग जानते हैं कि अमृत केवल राहु ने ही नहीं पिया बल्कि वह बाकी शरीर में भी चला गया था और इस कारण से राहु के साथ-साथ केतु भी अमर हो गए। अब उन्हें यज्ञ भाग प्राप्त करने भी का अधिकार है तथा ब्रह्मा की सभा में भी बैठने का अधिकार है। ये देवता हो गए हैं। नवग्रहों में इन्हें सूर्य और चन्द्रादि के साथ समान रूप से स्थापित किया जाता है और इनका आह्वान किया जाता है। इनके षोडशोपचार किए जाते हैं और इनसे कृपा की कामना की जाती है।
कई लोग शनि या राहु को गाली देकर बात करते हैं, यह अनुचित है। ये कुछ भी नहीं करते, आपके किए हुए कर्मों का तद्नुसार ही फल देते हैं। क्या आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्र भारत के अधिकांश प्रधानमंत्री राहु के कारण ही इतना ऊंचा राजयोग पा सके हैं। राहु के कारण ही इंदिरा गांधी सफल रहीं और उन्हीं के कारण राजीव गांधी का राज्यारोहण हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी को भी राहु ने बहुत कुछ दिया। उनकी दशांश कुण्डली में तुला में राहु बैठे हैं जिसकी दशा में उन्हें राजयोग मिला। आप सूर्य भगवान की पूजा करें और राहु की उपेक्षा करें तो यह चल नहीं सकता क्योंकि नवग्रह मण्डल में राहु को महत्वपूर्ण स्थान दिया हुआ है। सभी ग्रहों से समान कृपा प्राप्त होने पर ही हम अपने विंशोत्तरी दशा के अनुसार जीवन वर्ष प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को सफलता से भोग सकते हैं।
राहु बहुत बड़े-बड़े योग बनाते हैं और बड़े-बड़े योग भंग कर देते हैं। पाराशर राहु की प्रशंसा में कहते हैं कि यदि केन्द्राधिपति से युत होकर वे केन्द्र में स्थित हो जाएं तो महान राजयोगकारक होते हैं और अपनी दशा में शुभ फल देते हैं।
उत्तर कालामृत में भी राहु की विशेष प्रशंसा की गई है:
यद्यद्दुर्भगतौ यदीशसहितावेतौ तम:खेचरौ
स्यातां तत्फलदायिनौ बलयुतौकेन्द्रत्रिकोणेश्वरा:
क्षेमं ते ददति प्रसक्तरहिताश्चेदन्यथा ते युता:
तौ दुष्टावपि योगत: शुभकरौ सम्बन्धमात्रेण तौ॥
ज्योतिष में राहु और केतु को छाया ग्रह की संज्ञा दी गई है। इस श्लोक में तम:खेचरौ शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि केवल वे तम हैं बल्कि पाप ग्रह भी हैं। ये उस ग्रह की भांति फल देते हैं जिस भाव में बैठे हों, उसके स्वामी हों या जिस भाव के स्वामियों के साथ राहु या केतु बैठे हों उसके समान फल देते हैं अर्थात् यदि राहु या केतु छठे भाव के स्वामी के साथ बैठे हों तो छठे भाव का फल करेंगे। यदि योगकारक ग्रह के साथ बैठे हों तो शुभ फल करेंगे। उत्तर कालामृत के रचनाकार केन्द्र-त्रिकोण के स्वामी के साथ राहु और केतु की युति को सदा शुभ नहीं मानते परन्तु पाराशर मानते हैं।
तौ धर्मे यदि कर्मणि स्थितियुजौ व्यत्यासतो वा स्थितौ
योगं तौ कुरुयस्त्रिकोणपतिना योगाऽिप सौख्यप्रद:
सौख्यं योगकृतोर्दशास्वपि भवेच्चैतद्युजां श्रेयसां
सम्बन्धादथ योगिनोऽशुभकृतां भुक्ताशुभं योगजम्॥
इस श्लोक के अनुसार यदि राहु या केतु नवम स्थान में हों और दशमेश से युत हों या दशम स्थान में हों और नवमेश से युत हों या नवम भाव में राहु या केतु हों और नवमेश, दशम भाव में हों या राहु-केतु दशम भाव में हों और दशमेश, नवम भाव में तो यह शानदार योग बनता है। राहु-केतु का योग त्रिकोण के स्वामी से भी हो जाए तो भी शुभ फल देता है। उच्चकोटि के भावों में पड़ें तो उच्चकोटि का फल मिलता है तथा खराब भावों में पड़ें तो शुभ फलों में न्यूनता जाती है। यदि अशुभ ग्रह योगकारक हो और राहु से संबंध हो जाए तो अशुभ फल भी मिलते हैं। इसका अर्थ यह है यदि राहु योगकारक होते हुए भी ऐसे ग्रह से युत हों जो अष्टमेश भी हो तो योग का शुभ फल काफी कुछ नष्ट हो जाता है।
राहु, बुध के प्रभाव में हों तो बुध, राहु के दोषों को दूर कर देते हैं। राहु, बृहस्पति के साथ हों तो या तो गुरु चाण्डाल योग बनाएंगे और ऐसे व्यक्ति के जीवन में घात बहुत मिलेगा या शिष्यों से विद्रोह मिलेगा परन्तु इस योग में यदि बृहस्पति अत्यन्त शक्तिशाली हों तो गुरु चाण्डाल योग अत्यन्त क्षीण हो जाएगा और गुरु, राहु के दोष अर्थात् चाण्डाल के दोष को काफी हद तक कम कर देंगे। बृहस्पति के बलवान होने से शिष्य, गुरु का पतन नहीं करा पाते और गुरु, शिष्यों को या अधीनस्थों को या दुष्टजनों को समझाने में सफल हो जाते हैं।
वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में राहु-चार अध्याय में राहु के बारे में कुछ कल्पनाओं को स्थान दिया है। वराहमिहिर की प्रवृत्ति रही है कि वो अपने से पहले के प्रचलित सिद्धांत या मान्यताओं की चर्चा करते हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख मैं यहां कर रही हूं-
1. राहु नामक राक्षस ने मस्तक कट जाने पर भी अमृत पी लेने के कारण ग्रहत्व प्राप्त किया।
2. काला होने के कारण ब्रह्माजी ने चूंकि वर प्रदान कर दिया था, अत: पर्वकाल से किसी अन्य समय में राहु, चंद्रमा और सूर्य की तरह दिखाई नहीं देते।
3. राहु मुख और पुच्छ में विभक्त हैं और वे सर्प जैसे आकार के हैं। कोई-कोई कहते हैं कि राहु का कोई भी आकार नहीं होता है, वे केवल अंधकारमय हैं।
मुखपुच्छविभक्ताङ्गं भुजङ्गमाकारमुपदिशन्त्यन्ये।
कथयन्त्यमूर्तमपरे तमोमयं सैंहिकेयाख्यम्॥
वराहमिहिर ने उक्त सब मतों की विवेचना की है और इनमें दोष भी निकाले हैं। उनके अनुसार यदि राहु मूर्तिमान, राशि में चलने वाले, सिर वाले और बिम्ब वाले होते तो निश्चित गति वाले होकर, कक्षा में स्थित रवि-चन्द्र को कैसे ग्रसते? उनका मानना है कि यदि राहु की गति भी स्थिर होती और सूर्य-चन्द्र की गति भी स्थिर होती और दोनों का कक्षापथ भी एक ही होता तो राहु इनको कभी भी नहीं ग्रस सकते थे अर्थात् या तो इनकी गतियों में अंतर हों या दोनों के कक्षापथों में अंतर या दो कक्षापथ एक-दूसरे से कहीं सम्पर्क करते हों, तब ग्रहण संभव था।
परन्तु यदि राहु अनिश्चित गति वाले होते तो उनका गणित से ज्ञान कैसे हो सकता था और उनके बारे में कोई भविष्यवाणी कैसे की जा सकती थी? इसी प्रकार यदि मुंह और पूंछ में विभक्त हैं तो अपने से तीसरी, चौथी या पांचवीं राशि पर स्थित सूर्य-चन्द्र को क्यों नहीं ग्रसते हैं? यदि सर्पाकार होते तो मुंह या पूंछ से छह राशि के अंतर पर स्थित सूर्य-चन्द्र को ग्रहण करते समय बीच के मार्ग को भी ग्रहणग्रस्त कर देते। यदि दो राहु होते तो चन्द्र के उदय या अस्त के समय ग्रहण में, सूर्य को भी ग्रसित कर लेते। यदि राहु की गति निश्चित होती तो सूर्य और चन्द्र दोनों का ग्रहण एक साथ कर सकते थे।
हम सभी तर्कों देते हुए केवल यह कह रहे हैं कि बहुत सारी गणनाएं ऋषियों ने की थीं और तब राहु और केतु के निश्चित आचरण का ज्ञान कर पाए थे इसलिए राहु से प्राप्त दशाफल भी अनिश्चित नहीं है और अन्य ग्रहों की भांति ही उनका निश्चित आचरण है। यद्यपि सूर्य और चन्द्रमा से शत्रुता के पौराणिक आख्यान के पीछे जो खगोलशास्त्रीय नियम हैं उसमें वे इन दोनों से बलवान होकर इन दोनों का कुछ समय के लिए ग्रहण कर लेते हैं। इसी कारण से राष्ट्र के बारे में अधिक भविष्यवाणियां राहु को लेकर की जा सकी हैं। जैसे एक ही मास में ही सूर्य-चन्द्र दोनों का ग्रहण हो तो सेनाओं में हलचल मच जाने से या शस्त्र प्रहार से राजाओं का नाश होता है। हम कई राष्ट्रों में चलने वाली सैनिक गतिविधियों की चर्चाओं को इस सन्दर्भ में देख सकते हैं कि जून-जुलाई के महीने में ये ग्रहण पडऩे ही वाले हैं और यह अंक भी जून में आप को उपलब्ध होगा। 1 जून, 2011 1 जुलाई, 2011 को खण्डग्रास सूर्यग्रहण पड़ेंगे और 15 जून, 2011 को अद्र्धरात्रि में खण्डग्रास चन्द्रग्रहण पड़ेगा। यह भारत में दिखाई देगा।
पौराणिक संदर्भ में राहु : राहु को चोरी से अमृत पान का दोषी पाया गया और भगवान विष्णु ने उन्हें दण्डित कर दिया। इस कारण से केतु का भी जन्म हुआ और दोनों को अमृतत्व प्राप्त हुआ। ज्योतिष में यह एक पहेली ही है कि अमृत पीने वाले राहु का संबंध विष से जोड़ा गया है। संसार के समस्त प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न विष पर राहु का अधिकार है। राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से भी अधिक माना गया है। क्यों? पुन: एक पौराणिक संदर्भ खोजते हैं। द्वादश आदित्य में सबसे आधुनिक सूर्य हैं और यही विष्णु हैं। सबसे कनिष्ठ होते हुए भी यह विष्णु सबसे प्रधान हैं। हमारे इस विष्णु या इस सूर्य को इसीलिए राहु ने ग्रहण के लिए लक्ष्य किया है। नैसर्गिक बल की गणना में सूर्य से भी अधिक राहु का नैसर्गिक बल माना गया है और यही मात्र ग्रह या छाया ग्रह हैं जोकि सूर्य को सता लेते हैं। यदि किसी का जन्म पूर्ण सूर्यग्रहण के समय हुआ है, जब राहु और सूर्य के भोगांश समान हैं और चन्द्रमा का शर इतना कम है कि ग्रहण पडऩा लाजिमी है। शर से तात्पर्य सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथ की कोणीय दूरी में न्यूनता तथा चन्द्रमा द्वारा सूर्य को कक्षापथ में भ्रमण के समय आच्छादित कर लेना है। सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथ के कटान बिन्दु पर अगर उत्तरी गोल में यह कटान है तो राहु कहलायेंगे। दोनों कक्षापथों में करोड़ों किलोमीटर का अन्तर होने के बाद भी राहु क्षेत्र से आने वाली सूर्यकिरणें व्यक्ति के जीवन को असामान्य बना देती हैं। गर्भाधान के उस एक क्षण मात्र में पीडि़त सूर्य की किरणें व्यक्ति के जीवन को हमेशा के लिए अंधकार में धकेल देती हैं। सूर्य पीडि़त हैं, का अर्थ है कि व्यक्ति के राज्य, पिता, यश-प्रतिष्ठा, आत्मबल और धार्मिक निष्ठाओं में भारी समस्याएँ देखने को मिलेंगी।
ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता के उल्लेख इतने महत्वपूर्ण हैं जिनमें यह बताया गया है कि हमारा ब्रह्माण्ड या हमारा सौर मण्डल ही अन्तिम नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि और भी अनगिनत ब्रह्माण्ड हैं और उनके अपने-अपने स्वतंत्र ब्रह्मा,विष्णु,महेश हैं। क्या खगोलशास्त्र के उन दार्शनिक नियमों के आधार पर जो कि ज्योतिष नियमों की पृष्ठभूमि बने हैं, हम यह कह सकते हैं कि असंख्य सौरमण्डलों के अपने-अपने सूर्य और अपने-अपने राहु-केतु भी हैं? जैसे - भूमध्यरेखा का अनन्त विस्तार ब्रह्माण्ड में यदि बाह्य सीमाओं की ओर किया जाये तो हम खगोलीय विषुवत वृत्त के अन्त में जा पहुंचेंगे। यदि सौरकक्षा का अनन्त विस्तार हम ब्रह्माण्ड की बाह्य सीमाओं तक कर दें तो क्या वे ऐसे ही दो ग्रहों के कटान बिन्दु पर, किसी और बड़े राहु का परिचय देंगी? भारत की ज्योतिष में और विश्व की अन्य ज्योतिष पद्धतियों में इस दार्शनिक तत्व का विवेचन आज तक भी नहीं किया गया है। संभवत: हमने राहु की सीमाएँ यहीं तक मान ली हैं और राहु अधिकतम हमारे देवलोक में हैं और ब्रह्मा की सभा के अधिकारी हैं। हमारे कई पौराणिक आख्यानों में सूर्य और ब्रह्मा को एक ही दार्शनिक धरातल पर देखा गया है और कहीं-कहीं तो इन्हें एक-दूसरे का पर्याय माना गया है। जब हम यह कहते हैं कि ब्रह्मा अपनी आयु के सौ दिव्य वर्ष में से पचास वर्ष पूरे कर चुके हैं तथा सूर्य अपनी आयु के पाँच अरब वर्ष पूरे कर चुके हैं तो इन दोनों बातों में एक गणितीय तालमेल दिखता है। हम शब्दान्तर से यह भी कह सकते हैं कि ब्रह्मा की सभा का अर्थ हमारे सौरमण्डल में आने वाले सभी ग्रह, उपग्रह तथा छुद्र ग्रह हैं तथा इन्हीं सब का समीकरण यक्ष, किन्नर, गंधर्व, विद्याधर, अप्सराओं तथा अन्य सभी देवगण से किया गया है।
लेख के केन्द्रीय विषय राहु इन्हीं में से एक हैं तथा अब तक प्राप्त भारतीय खगोल और ज्योतिष के ज्ञान के आधार पर यह केवल हमारे सौरमण्डल के ही सदस्य हैं अत: इन राहु का असर हमारे सूर्य या हमारे लौकिक विष्णु पर तो होता है परन्तु गौलोक में वास करने वाली अनन्त सत्ता श्रीकृष्ण पर उनका कोई असर नहीं होता क्योंकि वे हमारे ब्रह्मलोक से भी ऊपर हैं। गीता में उल्लेख है कि ब्रह्मलोक तक जो भी जाता है, वह सब पुनरावृत्ति है तथा ब्रह्मलोक में जाने के बाद भी उसका पुन: जन्म हो सकता है। ब्रह्मलोक से ऊपर जाने के बाद उसका पुन: जन्म नहीं होता। इसका अर्थ यह भी है कि प्रस्तुत लेख के विषय, राहु यदि सूर्य को या हमारी जन्मपत्रिका को प्रभावित कर दें तो वे पुनर्जन्म के कारण बनते हैं।
ज्योतिष मंथन में ही पिछले अंकों में यह उल्लेख चुका है कि सर्प या विष से राहु का समीकरण है तथा ये सर्प इतने महत्वपूर्ण हैं कि शिव और विष्णु दोनों के साथ हैं। संसार की हर दृश्य गति वर्तुलाकार है या सर्पाकृति है या दीर्घवृत में है। जिस दिन यह गतियाँ सम्पूर्ण वृत्त में बदल जायेंगी, वह दिन प्रलय का होगा और जगत या माया और ईश्वर के एकीकरण का होगा। (संपादकीय लेख पृष्ठ-6, अंक मई, 2011) यहाँ केवल इतना लिखना पर्याप्त है कि राहु अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और किसी भी ईश्वर या देवता से अलग उनके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। भगवान शिव के गले में सर्प हैं तो भगवान विष्णु सर्पशैय्या पर हैं। भगवान कृष्ण भी कालियदमन करके नाग को उसका अतीत याद दिलाते हैं। भारतीय कथाएँ किसी भी कथानक को अपूर्ण नहीं छोड़तीं। सर्प भी भगवान विष्णु और शिव के समानान्तर सत्ता नहीं हो जाएं अत: सर्प के शत्रु गरुड़ की भी सृष्टि की गई है।
हमारे जीवन में राहुदशा: राहु को मिथुन में उच्च राशि में माना गया है और केतु को धनु राशि में उच्च का माना गया है। कई ग्रंथकारों ने जिनमें उत्तरकालामृत के रचनाकार भी शामिल हैं, राहु को वृषभ में और केतु को वृश्चिक राशि में उच्च राशि का माना है। कन्या और मीन को राहु-केतु की स्वराशि माना है। राहु-केतु के बारे में एक सामान्य कथन है या तो ये जिस राशि में स्थित होते हैं, उस राशि स्वामी के अनुरूप फल देते हैं या ये जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का फल देते हैं। इनकी मूलत्रिकोण राशि कुंभ है तथा जैमिनि ने अपने चर कारकत्व के सिद्धान्त में यह कहा है कि यदि दो ग्रहों में परस्पर युद्ध हो जाये तथा वे किसी चर कारक के लिए प्रतिद्वन्द्वी हों तो राहु को चर कारकों में स्थान मिल जाता है अत: राशि स्वामित्व के आधार पर किसी फल कथन की अपेक्षा लग्न पर आधारित राहु के फल बताया जाना समीचीन होगा।
लग्न में स्थित राहु आपके व्यक्तित्व, शारीरिक सौष्ठव, आत्मा की शुद्धि और मनोबल पर प्रभाव डालते हैं। लग्नस्थ राहु संतान और जीवनसाथी से असंतोष बताते हैं और यदि नवम भाव में अनुकूल राशि नहीं हुई तो कभी-कभी धर्म विरुद्ध आचरण की भी प्रेरणा देते हैं। यह सब राहु महादशा में आयेगा।
यदि द्वितीय भाव में राहु हुए तो वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, धनु और कुंभ में तो अनुकूल परिणाम दे सकते हैं और परिवार को एक बनाये रखने में रुचि लेते हैं अन्यथा परिवार नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। पैत्तृक सम्पत्तियों को लेकर झगड़े होते हैं और परिवारों के विभाजन हो जाते हैं।

यदि तीसरे भाव में राहु हों तो अनुकूल होने पर उच्च कोटि का वैवाहिक जीवन, सहोदरों से सहयोग तथा बड़े भागीदारी व्यवसाय देखने को मिलते हैं तथा राहु अशुभ सिद्ध होने पर इन सब विषयों में नकारात्मक परिणाम देते हैं। तीसरे भाव के राहु दुस्साहसी हैं और लौकिक जीवन में सफलता लाते हैं। सबकुछ नैतिक नियमों पर आधारित हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता।
चतुर्थ भाव के राहु माता से संबंधित पीड़ा देते हैं। भूमि-भवन में विवाद मिलते हैं, जन्म स्थान से दूर कहीं आजीविका होती है परन्तु जन्म स्थान से जुड़े रहते हैं और चाहे ख्याति हो, चाहे कुख्याति, खूब ही मिलती है।
पंचम भाव के राहु अपनी महादशा में संतान संंबंधी पीड़ा देते हैं, संतान जन्म में बाधा उत्पन्न करते हैं, अचानक धन प्राप्ति कराते हैं, राजयोग तथा राजभंग, दोनों ही देते हैं। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति में साधनों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देता।
छठे भाव के राहु शत्रुहंता होते हैं और अपनी महादशा में रोग, रिपु, ऋण तो देते ही हैं, व्यक्ति अद्म्य साहस का परिचय भी दे देता है। यहाँ स्थित राहु महान षडय़ंत्रकारी सिद्ध होते हैं।
सप्तम भाव स्थित राहु दाम्पत्य जीवन में एक तरफ उच्च कोटि के फल देते हैं, दूसरी तरफ जीवनसाथी को संदिग्ध बना देते हैं। सप्तम भाव में स्थित कोई भी वक्री ग्रह शुभ फल नहीं देते परन्तु राहु तो षडय़ंत्र और विश्वासघात के चरम हैं। सप्तमस्थ राहु तो संन्यास लेने देते हैं और गृहस्थ संन्यासी बनाने की चेष्टा करते हैं। यौवनकाल स्वच्छंद आचरण में बीतता है और लौकिक सफलताएँ तूफानी गति से आती हैं और उत्थान-पतन धूप-छाँव की तरह चलता रहता है।
अष्टमस्थ राहु अपनी महादशा में कष्ट, पतन, स्वास्थ्य हानि और अपमान देते हैं। यदि केन्द्र-त्रिकोणाधिपति के साथ राहु हुए या अपनी उच्चादि राशियों में हुए तो दु: के साथ सुख भी देते हैं। अष्टम में स्थित राहु शोध कार्यों के लिए और तंत्र-मंत्र के लिए वरदान हंै। अष्टमस्थ राहु का व्यक्ति जीवन में अकेला ही चलता है।
नवम भाव में स्थित राहु व्यक्ति को विधर्मी बना सकते हैं। विधर्मी का अर्थ है - नियम तोडऩे वाला। ऐसा व्यक्ति कभी भी धर्म मार्ग छोड़ सकता है और गुरुद्रोही भी हो सकता है। अत्यंत शुभ प्रभाव ही ऐसे राहु को श्रेष्ठ फल के लिए प्रेरित कर सकते हैं। नवमस्थ राहु की कलियुग में बहुत पूछ है और वे निन्दित नहीं रहे हैं।
दशम भाव में स्थित राहु अपनी महादशा में बहुत उन्नति देते हैं और लौकिक सफलताएँ भी। विवादित व्यक्तित्व हो सकता है परन्तु उनमें नेतृत्व क्षमता होती है और अपने महान पराक्रम से वह व्यक्ति केवल जीतने के लिए काम करता है। साधनों की पवित्रता उसके लिए कोई महत्व नहीं रखती तथा वह सफलता के लिए हर मार्ग अपना सकता है। वे श्रेष्ठ कूटनीतिकार होते हैं।
एकादश भाव में स्थित राहु लाभ कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। एकादश भाव में वैसे भी पाप ग्रह प्रसन्न होते हैं। यदि यहाँ राहु किसी से युत हों, किसी ग्रह से दृष्ट हों तो बहुत बड़ा परिणाम दे सकते हैं। जितने पाप ग्रह यहाँ मिलेंगे, उतना ही बड़े भाई-बहिन के लिए घातक सिद्ध होंगे। यहाँ पैसा तो आयेगा परन्तु किसी अनिष्ट की कीमत पर। सम्पूर्ण दशा काल एक जैसा नहीं रहता और अच्छे-बुरे परिणाम आते रहते हैं।
द्वादश भाव में स्थित राहु परदेस गमन कराते हैं, संसर्ग सुख की प्रेरणा देते हैं तथा खर्चा बहुत कराते हैं, कानूनी समस्याएँ कराते हैं और उन सब कामों की प्रेरणा देते हैं, जिनको करने के बाद व्यक्ति का कम से कम पुनर्जन्म जरूरी हो जाये। द्वादशस्थ राहु मोक्ष मार्ग में बाधक हैं जबकि द्वादशस्थ केतु व्यक्ति को धार्मिक बनाते हैं और मोक्षमार्गी होने की प्रेरणा देते हैं।
राहु पर अन्य विचार : राहु यदि छठे, आठवें और बारहवें हों और इन्हीं भावों के स्वामियों से युत या दृष्ट हों तो अपनी दशा में भारी शारीरिक कष्ट देते हैं। यह मारक सिद्ध होते हैं परन्तु जब यह केन्द्र तथा त्रिकोण के स्वामी के साथ स्थित हों तो थोड़ा सा सुख देते हैं परन्तु रोग, घाव, राजकीय कोप तथा बंधन आदि देते हैं।
राहु-केतु के लिए धनु तथा मीन तटस्थ राशियाँ हैं तथा सिंह तथा कर्क शत्रु राशि हैं। यदि केन्द्र स्थान में राहु योगकारक ग्रहों के साथ हों तो अत्यंत शक्तिशाली शुभ परिणाम देते हैं परन्तु दूसरे तथा सातवें भाव के स्वामी के साथ स्थित हों तो कष्टकारक सिद्ध होते हैं। शुभ राहु तीर्थयात्रा कराते हैं, गंगा स्नान कराते हैं, ज्ञान तथा प्रभाव देते हैं।
राहु चाण्डाल जातियों के स्वामी हैं। इनका स्थान वल्मीक है, जहाँ दीमक रहती है। राहु की धातु सीसा है। शरीर में जो भी ग्र्रंथि भाग हैं या नलिकाकार हैं, जैसे - आँतें या लौकिक जगत में जो भी वस्तुएँ ग्रंथि की आकृति की हैं, जैसे कि अदरक या लहसुन, उन सब पर राहु का अधिकार है। धूम सदृश नीला शरीर, वनवासी, भयानक, वात प्रकृति और बुद्धिमान, यह सब राहु से प्रभावित व्यक्ति के लक्षण हैं।
राहु की गति : राहु कक्षापथ में अन्य ग्रहों से विपरीत दिशा में गमन करते हैं। सदा ही वक्री रहते हैं परन्तु गणनाओं से स्पष्ट होता है कि राहु कभी-कभी मार्गी गति भी चलते हैं। राहु चूंकि वक्री रहते हैं और कोई एक वक्री ग्रह भी राहु पर दृष्टि कर ले तो यह अत्यन्त शक्तिशाली हो जाते हैं। उत्तराकालामृत के रचनाकार ने दो वक्री ग्रहों के संबंध को एक अत्यन्त शक्तिशाली स्थिति माना है और बहुत बड़े परिणाम इससे आते हैं। इस योग का अर्थ यह है कि कोई वक्री ग्रह किसी अन्य वक्री ग्रह की दृष्टि प्राप्त करे तो वह अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है।
होराग्रंथों में इस बात की विवेचना बिल्कुल भी नहीं मिलती है कि समान गति 3 कला 11 विकला होते हुए भी राहु और केतु दशा वर्ष अलग-अलग क्यों हैं? होराग्रंथों में इस संबंध में कोई भी विश्लेषण नहीं मिलता और आधुनिक भारत का कोई भी महान ज्योतिषी इसका जवाब देने में सक्षम भी नहीं है।
कालसर्प योग : वृहत्पाराशर होराशास्त्र के अन्तिम भाग में पूर्वजन्म शापद्योतनाध्याय में पंचम भाव से राहु-मंगल जैसे ग्रहों के संबंध के कारण संतान हानि के योग बताये गये हैं। इसी को आधुनिक ज्योतिषियों ने कालसर्प योग में परिवर्तित कर दिया है। पाराशर, जैमिनि, कल्याण वर्मा, कालिदास, किसी भी ग्रंथकार ने कालसर्प योग का नाम भी नहीं लिया परन्तु कई ज्योतिषी इन्हीं ग्रंथों से ज्योतिष सीख-सीख कर कालसर्प योग की माला पढ़ रहे हैं। अकाल मृत्यु का भय बताकर धंधा अच्छा हो सकता है। इस तरह से कलियुग में शनि के साथ-साथ राहु का भी अनन्त विस्तार हो गया है।
वराहमिहिर कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने राहु को ऐसा वर दिया था कि ग्रहण समय में लोगों के द्वारा दिये हुए हुतांश से तेरी तृप्ति होती रहेगी। इस कारण चन्द्र की दक्षिणोत्तरा गति उत्पन्न करने वाले राहु का पूजा-पाठ ग्रहण के समय करना चाहिए। 1 जून से 1 जुलाई, 2011 तक पडऩे वाले तीन ग्रहणों के समय, राहु का पाठ करने का श्रेष्ठ समय भी उपलब्ध है।

परिक्रमा क्यों?

परिक्रमा भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। हम प्राय: सभी मंदिरों, यज्ञों, पूजनीय वृक्षों, उपासना कक्षों की परिक्रमा करते हैं। भारत में अधिकांश मंदिरों के बाहर रिक्रमा पथ बना होता है और भक्तगण अपने इष्टदेव के दर्शनोपरांत उनकी परिक्रमा करते हैं। शास्त्रीय दृष्टिकोण से परिक्रमा कोप्रदक्षिणाभी कहा जाता है। प्रदक्षिणा के समय भारतवर्ष में निम्रलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है :
‘‘यानि कानि च पापानि, जन्मांतर कृतानि च।
तानि
तानि विनश्यन्ति, प्रदक्षिणा पदे-पदे।।’’

अर्थात् जो पापकर्म मेरे द्वारा पिछले जन्मों या इस जन्म में कि गए हैं, उनका इस परिक्रमाके कदम-कदम पर नाश हो जाये।

इस श्लोक से यह आशय है कि परिक्रमामें जन्म-जन्मांतर अर्थात् पूर्वजन्मों में किए गए पापों एवं अशुभ कर्मों का क्षय करने की क्षमता विद्यमान है। परिक्रमासे जुड़े आध्यात्म क्षेत्र में श्रीगणेश जी द्वारा अपने माता-पिता की परिक्रमाकरके प्रथम पूज्य होने के उदाहरण से सभी परिचित हैं। माता-पिता और गुरु को देवतुल्य माना गया है, यही कारण है कि उनके लिए कहा जाता है ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।’ रामचरितमानस में यह चौपाई आती है कि ‘मात पिता गुरु प्रभु कै बानी, बिनहिं विचार करिअ शुभ जानी।।’ अर्थात् माता-पिता और गुरु की आज्ञा को हितकारी समझकर उसकी पालना करनी चाहिए। ये सदैव हितकर वचन बोलते हैं इसीलिए उन्हें देवतुल्य माना गया है और उनकी परिक्रमाका विधान है। श्री गणेशजी ने अपने माता-पिता की परिक्रमाको संपूर्ण पृथ्वी माता की परिक्रमा से भी बड़ा माना और वे विजयी हुए।
प्रश्न उठता है कि हम परिक्रमाक्यों करते हैं? सहज सा उत्तर है कि केंद्र बिंदु के बिना किसी परिधि या गोले का निर्माण हो ही नहीं सकता। हमारे जीवनचक्र, अस्तित्व और स्रोत का केंद्र बिंदु ईश्वर हंै। हम ईश्वर का अंश हंै, पुन: पुन: जन्म लेते हैं, फिर मृत्यु को प्राप्त होते हैं और फिर जन्म लेते हैं परंतु ईश्वर हमारा केन्द्र बना रहता है। हमारा जन्मचक्र भी परिक्रमाके समान ही है। यही कारण है कि ईश्वर को अपने जीवन का केन्द्र बिंदु मानते हुए, हम अपने नित्य कार्यों को संपादित करते हैं। किसी भी वृत्त का केन्द्र बिन्दु परिक्रमा पथ पर स्थित किसी भी बिन्दु से समान दूरी पर होता है। इसका तात्पर्य यह है कि हम जहाँ कहीं भी हों या जो कुछ भी हों, सदैव ईश्वर के समीप रहते हैं, वह हमारा केन्द्र बिन्दु होता है, उसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति निहित होती है और हम इसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बंधकर अपने परिक्रमावथ पर प्रदक्षिणारत रहते हैं अर्थात् जीवनचक्र को भोगते हैं। परिक्रमाका भी यही आशय है, यही महत्व है।
हम किसी मंदिर में स्थापित मूर्ति के दर्शन के बाद उसकी परिक्रमा करके अपने जीवन चक्र (पुनर्जन्म) और ईश्वर से बंधे रहने के संकल्प को स्मरण करते हैं। किसी वृक्ष, उपासना स्थल, समाधि, यज्ञ, हवन आदि का परिक्रमा करके हम उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं हमारे जीवन में उनके केन्द्रीय भाव के प्रति अपना संकल्प प्रदर्शित करते हैं। सूर्य को अघ्र्य आदि देकर हम निज परिक्रमा कर लेते हैं जिसका अर्थ होता है कि सूर्य की दैवीय शक्ति हममें समाविष्ट हो गई और अब हम निज परिक्रमा कर सूर्य के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा प्रकट करते हैं कि वह इस जगत की आत्मा है और हमें शक्ति प्रदान करते हैं।
जब हम कहते हैं किईश्वर अंश जीव अविनाशीतो हम स्वयं को ईश्वर का अंश मानते हैं। हमारा यह भौतिक शरीर हमारे माता-पिता की अमानत होता है और इस शरीर को ज्ञान एवं विद्या से आचार्य (गुरु) भरते हैं, हमारे अंधकार को दूर करते हैं। इस संसार में हमें जो कुछ मिलता है, आरंभ में वह माता-पिता और गुरु से ही मिलता है इसलिए हमारा प्रथम कत्र्तव्य बनता है कि हम इनके प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था को प्रकट करें और उन्हें ही अपना केन्द्र मानकर अपनी परिक्रमा करें। जिस प्रकार आकाश मण्डल में ग्रह सूर्य की परिक्रमा में रहते हैं उसी प्रकार हम भी केन्द्र की परिक्रमा करते हैं।
परिक्रमा कैसे करें ? : परिक्रमा सदैव दक्षिणावर्त (बायें से दायीं ओर) करते हैं। दायीं ओर घूमने को शुभ माना जाता है। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में मकानों की सीढिय़ाँ दायीं ओर घुमाते हुए निर्मित्त करते हैं तथा आरती भी दायीं ओर घुमाते हुए करते हैं। दायें हाथ को शक्ति का स्वरूप माना जाता है, मुहावरे में भी कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्ति का दायां हाथ है अर्थात् शक्ति प्रदाता है, कार्य साधक है। उपासना कक्ष की परिक्रमा करते समय हम स्वयं को स्मरण दिलाते हैं कि ईश्वर हमारे दायें हाथ के समान सदैव हमारे साथ रहते हैं। परिक्रमा में हम हमारी नकारात्मक प्रवृत्तियों को पार कर अपने द्वारा किए गए दुष्कर्मों को भविष्य में नहीं दोहराने का संकल्प लेते हैं। साधक, भक्त या उपासक को ध्यान रखना चाहिए कि परिक्रमा सदैव दायीं ओर घूमते हुए करें। जब हम स्वयं की परिक्रमा भी करते हैं तो दायीं ओर घूमकर करनी चाहिए और परिक्रमा करते समय स्वयं के दिव्य तत्व और आत्म-विश्वास को पहचानना चाहिए अन्यथा परिक्रमा के पूर्णफल नहीं मिलते हैं। परिक्रमा भावना से बंधी है यदि भाव गंभीर नहीं होगा, श्रद्धा कम होगी तो परिक्रमा का लाभ मिल पाना संभव नहीं होगा।
हमारे देश मेंगोवर्धन पर्वतकी परिक्रमा आस्थावान निरंतर करते रहते हैं। कहते हैं कि वह पर्वत भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अंगुली में धारण किया था और स्वयं केंद्र बिंदु थे। हम जहां भी केंद्र पाते हैं उसकी परिक्रमा करने लगते हैं अर्थात् हमारी परिक्रमा का केन्द्र अवश्य ही आकर्षण और शक्तियुक्त होता है जो हमें परिक्रमा करने के लिए विवश कर देता है। भारतीय सनातन धर्म में चक्र पूजन (चाक पूजन) विवाह के पूर्व एक संस्कार होता है, इस चक्र पूजन का आशय भी यही होता है कि विवाह के लिए तैयार वर-वधू को अब चाक रूपी जीवनचक्र में परिक्रमारत रहना है और उस चक्र के केन्द्र में सृजनात्मक शक्ति छिपी हुई है जो ईश्वर है अत: परिक्रमा अधीन रहकर हमें ईश्वर का सदैव ध्यान रखना है तथा प्रदक्षिणारत भी रहना है, कर्म में निरत रहना है।
परिक्रमा करते समय ऊपर वर्णित मंत्र का उच्चारण अवश्य करना चाहिए। यदि कारणवश मंत्र याद नहीं रहें तो ईश्वर से अपने द्वारा किए गए अशुभ कर्मों के लिए क्षमा प्रार्थना कर लेनी चाहिए।