Sunday, March 27, 2011

जापान

ज्योतिष मंथन प्रिंट मैग्जीन के अप्रैल अंक में हिरोशिमा और नागासाकी का उदाहरण देते हुए हमने लेख लिखा था कि किसी शहर के बीच से यदि कोई नदी गुजर रही हो या अपार जल राशि हो तो वहां अग्नि वर्षण होता है और बार-बार होता है। इराक की राजधानी और चित्तौड़ का उदाहरण भी इसलिए दिया गया था क्योंकि वहां पर बहुत अधिक बम बरसाए गए थे। यह अंक बाजार में पहुंच चुका था कि जापान वाली त्रासदी सामने आई। हम जानते हैं कि जापान एक द्वीप समूह है और उसके बीच-बीच में समुद्र और झीलों की कमी नहीं है।
जयपुर में राजस्थान पत्रिका में कार्यरत न्यूज टूडे के सम्पादक राजेश शर्मा ने मेरे से पूछा कि जापान बार-बार रेडिएशन का शिकार क्यों होता है? पहले भी परमाणु विस्फोट से वहां महाविनाश हुआ और अब पुन: वही हो रहा है, पर साथ में सुनामी भी तो है, तो घटनाओं को हम अलग करके क्यों देखें? हमने वास्तु के नजरिए से एक विश्लेषण किया कि जब किसी घर, ग्राम या राष्ट्र का ऊर्जा पैटर्न या ऊर्जा संतुलन बिगड़ जाता है तो अग्नि का प्रकोप आता है। बम वर्षण अग्नि के क्रुद्ध होने का एक उदाहरण मात्र है। ज्वालामुखी फटना, भयानक गर्मी पडऩा, अग्निकांड होना, तोपों से युद्ध होना, असंख्य बंदूकों का चलना और पृथ्वी की सतह के नीचे चट्टानों का टूटना, खिसकना आदि भी इसी श्रेणी के उत्पात हैं। पृथ्वी में जितनी भी ऊर्जा है उसके कारण जीवजगत का अस्तित्व है और पृथ्वी की ऊर्जा समाप्त होने के बाद यह भी अनंत अंतरिक्ष में विलीन या समाप्त हो जाएगी। पृथ्वी के ठंडा या गर्म होने में अग्निेदव की ही माया है। अग्नि के हजारों रूप हो सकते हैं। मेरा यह मानना है कि जापान में न्यूक्लियर रिएक्टर ही नहीं बल्कि ज्वालामुखी से भी नुकसान हो सकते हैं।
यह अनुसंधान का विषय हो सकता है कि बिना ग्रहण के भी भूकम्प आए और सुनामी आए। मेदिनी ज्योतिष की कक्षाओं में विद्यार्थियों को पढ़ाते समय हम हमेशा ही बृहत्संहिता या अन्य ग्रंथों के आधार पर यही बताते आए हैं कि भूकम्प ग्रहण के आसपास आते हैं और इसके अतिरिक्त तथ्य पुरानी पुस्तकों में नहीं मिलते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी सौर तूफानों को लेकर केवल यह आशंका जताई थी कि दूरसंचार माध्यमों में व्यतिक्रम सकता है। उन्होंने सुनामी या भूकम्प के बारे में नहीं कहा। दूसरी तरफ सुपरमून को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं तो प्रकट की जा रही हैं परन्तु भूकम्प जैसी भविष्यवाणियां वैज्ञानिकों ने नहीं की थीं। ज्योतिषी और वैज्ञानिक दोनों ही कहीं कहीं चूक गए।
मुझे ज्योतिष पत्रिका के सम्पादक के नाते यह स्वीकार करने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि सुपरमून की स्थिति में ग्रहण के बाद आने वाले फलों की कल्पना हम नहीं करते थे और इस कारण पूरे देश में इनसे संबंधित भविष्यवाणियां नहीं हो पाईं। यदि चन्द्रमा के महत्व को और अधिक भी स्वीकार कर लें तो भविष्य में इसके नियम बनाए जा सकते हैं।
चन्द्रमा जब भी पृथ्वी के पास आएंगे या ग्रहण होगा तो उससे कुछ दिन पहले और कुछ दिन बाद तक धरती की टेक्टोनिक प्लेट्स में हलचल मचेगी। टेक्टोनिक प्लेट्स से तात्पर्य वे प्रमुख वृहत चट्टान समूह है जिन्हें महत्व दिया गया है। ये करीब 100 किलोमीटर की मोटाई की हैं और स्थल के नीचे रहने वाली चट्टानें समुद्र के अंदर की चट्टानों के मुकाबले धिक मोटी हैं। ये सब प्लेट्स एस्थिनोस्फियर नाम की पृथ्वी के बाह्य आवृत के नीचे सजी हुई हैं। यह मंडल सरकता रहता है और टेक्टोनिक प्लेट्स का विचरण भी होता रहता है। इन प्लेट्स के अपने स्थान से दूसरे स्थान पर सरक जाने की प्रक्रिया के कारण जैव वैज्ञानिक यह अनुमान लगा पाए कि विभिन्न द्वीपों में या महाद्वीपों में एक जैसी जीवों की जातियां क्यों मिलती हैं? किसी एक महाद्वीप में उसका उद्भव हुआ और अलग होती हुई प्लेट्स के माध्यम से वे जातियां दूसरे महाद्वीप में चली आईं, आज एक-दूसरे से वे हजारों किलोमीटर दूर हैं। चन्द्रमा जो कि पृथ्वी को जब प्रभावित कर रहे होते हैं तो उसकी चुम्बकीय आकर्षण शक्ति पृथ्वी के अंदर के लौह तत्वों को आकर्षित करके चट्टानों को तोड़ देने या उनके स्थान परिवर्तन का कारण बनती है। इस क्रम में कई बार ज्वालामुखी भी बाहर जाते हैं। आप कभी भी किसी पूर्णिमा के दिन समुद्र तट पर खड़े हो जाइए और पूरी रात खड़े रहिए। शाम के बाद से ही ज्वार के आकार में और ऊंचाई में लगातार वृद्धि को आप देख पाएंगे। मैं ऐसा कई बार कर चुका हूं और ऐसे समय केवल यह अनुमान लगाता रहा हूं कि जो चन्द्रमा समुद्र की लहरों को भी इतना ऊंचा उठा देते हैं वे मानव शरीर में स्थित थोड़े से पानी और थोड़े से खून में उबाल अवश्य ला सकते हैं। पूर्ण चन्द्र के दिनों में वैयक्तिक आचरण में असंतुलन इतना प्रभावी होता है कि विचार शृंखलाएं भंग हो जाती हैं और सड़कों पर भी दुर्घटनाओं का प्रतिशत बढ़ जाता है। अमावस्या और पूर्णिमा के आसपास मृत्यु दर और जीवन दर परिवर्तित हो जाती हैं, अगर किसी की मृत्यु हुई है तो उसका पुनर्जन्म होना ही है और कोई मृत्यु शैया पर है तो ऐसे चन्द्रमा उनकी मृत्यु में मदद करते हैं। यह चन्द्रमा जीवन भी प्रदान कर सकते हैं।
भूकम्प: जापान में 11 मार्च 2011 को दोपहर 2.46पर भूकम्प आया। उस समय की कुण्डली निम्न है:
इस समय कर्क लग्न थी और शनि हस्त नक्षत्र में वक्री थे। मंगल और सूर्य, शनि से छठे, आठवें थे तथा शनि पर मंगल की दृष्टि थी। शनि, मंगल का षष्टाष्टक होना एक संकेत है परन्तु ऐसी स्थितियां बार-बार आती रहती हैं। हर बार तो भूकम्प नहीं आते।

मेदिनी ज्योतिष में भूकम्प आने के लिए कुछ परिस्थितियां बताई गई हैं: उनमें ग्रहण होना, स्थिर राशियों में विशेष तौर से वृषभ और वृश्चिक होना, गुरु, शनि और हर्षल का स्थिर राशियों में भ्रमण करना इत्यादि बताए गए हैं। वर्तमान भूकम्प में यह सब देखने को नहीं मिलता है परन्तु पूर्वी क्षितिज पर कुंभ राशि का उदय अवश्य हुआ था परन्तु भूकम्प फिर भी उसके सात-आठ घंटे के बाद ही हुआ है अत: इस नियम का पालन भी नहीं हुआ है। बहुत सारे विद्वानों ने जापान की राशि तुला बताई है। यह घटना तुला राशि में भी नहीं हुई है परन्तु यदि कोई निष्कर्ष लिया जा सके तो एकमात्र यह है कि भूकम्प के समय की कुण्डली के चतुर्थ भाव में तुला राशि है, परन्तु तुला राशि किसी भी तरह से पीडि़त नहीं है बल्कि उसके स्वामी शुक्र अपने परम मित्र शनि की राशि में बैठे हैं। शुक्ल पक्ष की षष्ठी को भूकम्प तभी सकता है जब इससे पहले वाली अमावस्या को सूर्यग्रहण हो गया हो। इस भूकम्प के समय ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मीन राशि में यूरेनस हैं और उनके ठीक सामने वक्री शनि हैं तथा इन सबसे केन्द्र में राहु-केतु हैं, राहु के साथ प्लूटो हैं। यह अवश्य हो सकता है कि हस्त नक्षत्र से केन्द्र में सात ग्रह हैं, परन्तु द्विस्वभाव राशियों में इतने अधिक ग्रह एक साथ होने को और एक-दूसरे से केन्द्र में होने को भूकम्प का कारण माना जाए, तो मेदिनी ज्योतिष में एक नया नियम गढऩा पड़ेगा।
प्राय: यूरेनस, शनि, गुरु और मंगल वृषभ और वृश्चिक राशि में हों, जब ग्रहों का बड़ा दृष्टि योग चतुर्थ भाव की संधि में हो, गुरु जब वृषभ या वृश्चिक में हों और बुध के साथ एक साथ 1800 पर हों या समान क्रांति पर हों तब भी भूकम्प हो सकता है, परन्तु इस मामले में गुरु द्विस्वभाव राशि में ही हैं और बुध 80 47 मिनट, 160 6मिनट पर थे। क्रांति साम्य और समान भोगांश दोनों ही नहीं थे। एक अन्य योग में राहु के सप्तम में मंगल या मंगल के पंचम में बुध या बुध के केन्द्र में चन्द्रमा हों तो भूकम्प हो, ऐसा कुछ भी देखने में नहीं आया। मैंने कई लोगों को इन दिनों कई ब्लॉग्स पर लिखते और विद्या विलास करते देखा है परन्तु किसी ने भी इस बात को ज्यादा नहीं उठाया है कि यह भूकम्प बिना ग्रहण के हुआ है।
चन्द्रमा: उस दिन चन्द्रमा वृषभ राशि में थे और जो कि चन्द्रमा की उच्च राशि है। चन्द्रमा अपने परमोच्च अंश पर सुबह 8.30 बजे के बाद आए हैं। उस समय सुपरमून की स्थितियां प्रारंभ हो चुकी थीं। 11 मार्च से शुरु करके और 19 मार्च को होने वाले सुपरमून में चन्द्रमा वृषभ से सिंह राशि में चुके थे और एक शानदार पूर्णिमा की ओर बढ़ रहे थे परन्तु सुपरमून के दिन चढ़ती हुई पूर्णिमा तक एक नई स्थिति चुकी थी जिसमें शनि और चन्द्रमा एक साथ युति कर रहे हं3 एवं सूर्य, बुध, गुरु और यूरेनस उनसे सातवें बैठे हैं तथा उनसे केन्द्र स्थान में राहु और प्लूटो तथा केतु हैं। सुपरमून के दिन नौ ग्रह (हर्षल, प्लूटो, नेपच्यून सहित) द्विस्वभाव राशियों में और एक दूसरे से केन्द्र स्थान में थे। मैं यह मानकर चल रहा हूं कि 11 मार्च को सुपरमून की तैयारी में ही इतने ग्रहों के सम्मिलित प्रभाव के कारण जापान के समुद्र में स्थित कुछ चट्टानें चन्द्रमा के आकर्षण बल के दबाव को नहीं झेल पाईं, जिसकी वजह से भूकम्प और उसके बाद कुछ देर में ही सुनामी की लहरें उठीं।
3 मई 1947 के दिन की जापान की बनी एक कुण्डली वर्तमान घटना को स्पष्ट करती है। यदि इस कुण्डली को प्रमाण माना जाए तो राहु महादशा, शनि न्तर्दशा, केतु प्रत्यन्तर, बुध सूक्ष्म दशा के मंगल, राहु और गुरु प्राण दशाओं में यह घटना आई। जापान की इस कुण्डली के चतुर्थ भाव में नेपच्यून हैं, दूसरे भाव में प्लूटो हैं और बारहवें भाव में यूरेनस हैं। आज की तारीख में गोचरीय वक्रीय शनि जापान के चतुर्थ भाव से विचरण कर रहे हैं।
निष्कर्ष: मेदिनी ज्योतिष के पुराने नियमों से जापान के इस भूकम्प और सुनामी के विश्लेषण में मदद नहीं मिल रही है और अधिक शोध की आवश्यकता है परन्तु जापान की प्रचलित दो-तीन कुण्डलियों में से इस घटना को खोजा जा सकता है।

जल व वास्तु

वास्तुशास्त्र में भूमिगत जल का अत्यधिक महत्व है। इस महत्व को महाभारत की एक महत्वपूर्ण घटना से समझा जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों के महल के निर्माण के लिए मयासुर की सेवाएँ लीं। वे जानते थे कि नियम विरुद्ध निर्माण कराने में मयासुर ही उनकी मदद कर सकते हैं। वे यह भी जानते थे कि अंतत: यह महल कौरवों के आधिपत्य में जाने वाला है। उन्होंने उस महल के मध्य में जलाशय जैसी रचना कराई। इस प्रकार केवल वह रचना मध्यप्लवा हो गई बल्कि ब्रह्म स्थान में जल होने के वास्तुदोष से भी पीडि़त हो गई। जब कौरवों ने यह महल पाण्डवों से जीत कर अपने आधिपत्य में ले लिया तब वास्तुदोष के प्रभाव के कारण वह धीरे-धीरे विनाश को प्राप्त हुए।

जल के देवता वरुण हैं जो कि दिक्ïपालों में से एक हैं। इनकी गणना द्वादशादित्यों में भी की जाती है। पृथ्वी और अंतरिक्ष में जल के जितने स्वरूप हैं उन सबके स्वामी वरुण देवता हैं। अथर्ववेद में वरुण के लिए अपामाधिपति शब्द का प्रयोग किया गया है। जलाशय के रूप में भूमि में, हम वरुण की स्थापना ही करते हैं। जब जलाशय भूमिगत हों तो परिणामदायी हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमिगत जलाशय, भूमि के अंदर स्थित ऊर्जा चक्र को प्रभावित करते हैं और जैसे ही जल का भूमि से संबंध स्थापित हुआ, तीव्र क्रिया सामने आती है। यदि जल पात्र सीमेंट जैसी वस्तु का बना हुआ हो तो ऊर्जा या विद्युत का सुचालक होने के कारण इनके परिणाम तीव्र गति से आते हैं।
जलाशय का निर्माण करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि जलाशय दिशा मध्य अथवा कोणों पर हों।
चित्र में जलाशय की उचित-अनुचित विभिन्न दिशाओं को चिह्निï किया गया है।
अत: भूमिगत जलाशय पश्चिम, उत्तर एवं उत्तर-पूर्व अथवा ईशान कोण में ही बनाए जाने चाहिएं, अन्यत्र नहीं।
वराहमिहिर ने विभिन्न दिशाओं में जलाशय होने के परिणाम बताये हैं जो इस प्रकार हैं-
ईशान कोण : ईशान कोण में जल साधन संपन्नता देने वाला होता है। ईशान कोण में स्थित जलाशय त्वरित परिणाम देने वाला होता है अत: यदि कोई व्यक्ति अपनी आयु के अधिक वर्षों में अर्थात्ï लगभग प्रौढ़ावस्था की आयु में भवन या व्यावसायिक प्रतिष्ठान का निर्माण करता है तो उसे जलाशय ईशान कोण में ही बनाना चाहिए। ईशान कोण में जलाशय का निर्माण करते समय यह बात विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिए कि वास्तु पुरुष के सिर का कोई अंग अथवा मर्म पीडि़त हों।
पूर्व दिशा : पूर्व दिशा में जलाशय होने से पुत्र संतान के लिए शुभ स्थिति नहीं रहती तथा पड़ोसियों की ईष्र्या कई बार दुखों का कारणबनती है।
आग्नेय कोण : पूर्व से दक्षिण की ओर अथवा आग्नेय कोण में यदि जलाशय हो तो संतान पर निश्चित गहरा असर डालते हैं और कदाचित कुछ मामलों में मृत्यु तक देखने को मिलती है। डिहाइड्रेशन के मामले, किडनी फेल हो जाने के मामले तथा तरह-तरह के रोग या लंबी अवधि के असाध्य रोग भी इसके कारण देखने को मिलते हैं।
दक्षिण दिशा : दक्षिण दिशा में भूमिगत जलाशय घर की स्त्रियों के लिए विनाश का कारण बनते हैं तथा घर की स्त्रियों में गायनाकोलोजिकल (स्त्रियों से संबंधित) रोगों को जन्म देते हैं।
नैर्ऋत्य कोण : नैर्ऋत्य कोण में जलाशय होने से व्यक्ति के शत्रुओं में वृद्धि होती है तथा उसे उनसे भय भी रहता है। नैर्ऋत्य कोण राहु एवं केतु की दिशा है अत: यहाँ स्थित जलाशय भूत-प्रेतादि से संबंधित समस्याएं लाने वाला तथा व्यर्थ की कठिनाइयां लाने वाला सिद्ध होता है एवं गृह स्वामी के नाश का कारण बनता है।
पश्चिम दिशा : पश्चिम दिशा में स्थित जलाशय प्रशस्त माना गया है, जैसा कि ऊपर वर्णित किया जा चुका है पश्चिम दिशा वरुण देवता की है तथा उसमें जलाशय का होना धन समृद्धि की वृद्धि करता है। व्यवसाय बढ़ाने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता होती है वह पश्चिम में जलाशय से आता है। यदि किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान में पश्चिम में जल होगा तो वहाँ टैक्स बचाने के लिए भी अतिरिक्त कौशल का परिचय व्यक्ति देगा। वरुण देवता समुद्र पार से आय भी कराते हैं अत: पश्चिम में जल का संबंध विदेश से आय के साधन खोल देता है। यद्यपि पश्चिम दिशा में स्थित जलाशय अत्यधिक संपन्नता देने वाला होता है तथापि वह संपन्नताजनित दोष भी घर में ले आता है अत: यदि पश्चिम में जल से आने वाले दोषों का दमन कर लिया जाए तो व्यक्ति महापुुरुष की श्रेणी में सकता है।
वायव्य कोण : वायव्य कोण में स्थित जलाशय निर्धनता और रोग देने वाला होता है।
उत्तर दिशा : उत्तर दिशा में स्थित जलाशय श्रेष्ठ परिणाम देता है। धन, संतान पुत्रों की वृद्धि होती है। पुत्रों की वृद्धि से तात्पर्य आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुत्र पुत्री दोनों संतानों से लिया जाना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति कम उम्र अर्थात्ï 20 से 25 वर्ष की आयु में भवन अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठान का निर्माण करता है तो उसे उत्तर दिशा में ही जलाशय बनाना चाहिए।
विशेष : निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति को जल्दी संपन्नताजनित वृद्धि चाहिए उनको जलाशय उत्तर-पूर्व तथा अन्य लोगों को उत्तर दिशा में ही बनाना चाहिए।
दिशाओं के बाद अब जलाशय निर्माण के लिए कुछ विशेष नक्षत्रों की चर्चा करते हैं।
वराहमिहिर ने जलाशयारंभ के लिए कुछ नक्षत्रों के नाम का प्रस्ताव दिया है। हस्त, मघा, अनुराधा, पुष्य, धनिष्ठा, तीनों उत्तरा, रोहिणी और शतभिषा नक्षत्रों में कुएँ का निर्माण करना शुभ माना गया है। आजकल बोरिंग खुदवाने की प्रथा है, उसको भी कुएँ की श्रेणी में माना जाता है अत: इन नक्षत्रों में कार्य शुरु किया जा सकता है।
जिनके यहाँ पूजन कराने की सुविधा हो, वहाँ वरुण देवता को बलि देकर गंध, पुष्प, धूपादि से वटवृक्ष की लकड़ी से, कील की पूजा करके उसे शिरा में गाड़ा जाता है। शिरा स्थान का निर्धारण इससे पहले कर लिया जाता है।
जलाशय निर्माण के लिए ग्रंथों में बहुत प्रशंसा की गई है। एक ग्रंथ में लिखा है कि जो व्यक्ति रेगिस्तान में गाय के खुर के बराबर भी जलाशय बनाता है तो उसे 60 हजार वर्ष तक स्वर्ग में रहने का अधिकार मिलता है। काश्यप ने कहा है कि कृत्रिम या अकृत्रिम जल तथा समीप के उपवन में देवता निवास करते हैं। इसी तरह से जिस सरोवर में कमल हों या हंस हों तथा जहाँ हंस कारंडव, क्रौंच और चक्रवात पक्षी शब्द कर रहे हों तथा वहाँ आस-पास स्थित वृक्षों में जीव निवास करते हों, ऐसे सरोवर में सदा देवता निवास तथा विहार करते हैं। वराहमिहिर यह मानते हैं कि बहने वाली नदियों के पास में भी देवता निवास करते हैं। वे आगे चलकर कहते हैं कि वन, नदी, पर्वत और उपवन जिस नगर के पास हों, उस नगर में भी देवता वास करते हैं। वे इन स्थानों के पास में देवालय बनाने की भी प्रशंसा करते हैं।

किस दशा का है इंतजार ?

प्राय: करके व्यक्ति शनि या राहु या केतु के नाम से ही डरता है, मांगलिक दोष से डरता है, साढ़ेसाती से डरता है, मारकेश से डरता है और खराब योगों से डरता है। आम आदमी भी गजकेसरी योग या बुधाधित्य योग को जानता है और प्रसन्न रहता है, यह योग खुश करने वाले हैं।
पुराने लोग अपने पुत्र का राजयोग का समय जानना चाहते थे, इसका अर्थ यह था कि उनकी मृत्यु कब होगी? क्योंकि उसके बाद ही राजयोग मिल सकता था। औरंगजेब को इंतजार नहीं था और उसने किसी पण्डित से भी नहीं पूछा और पिता को कैद में डालकर राजयोग प्राप्त कर लिया। किसी को पिता के मरने का इंतजार है, तो किसी को अपने शराबी पति के मरने का तो किसी पत्नी को अपने पति के दूसरे राज्य में कमाने के लिए चले जाने का इंतजार है, तो कोई पत्नी अपने परदेशी पिया के लौट आने का ही इंतजार करती है। कब आयेंगे वह? पण्डित जी कहते हैं कि अच्छी दशा आने पर आयेंगे। यही जवाब उपरोक्त सभी समस्याओं का है। यद्यपि अच्छी घटना किसी भी महादशा में सकती है परन्तु फिर भी हर कार्य, हर दशा में नहीं होता। दशाओं से बिना जन्मपत्रिका पर सूक्ष्म विचार किए हुए भी हम जान सकते हैं कि अच्छा परिणाम कब आयेगा?
ग्रहों पर आधारित दशाओं की प्रकृति: सूर्य अग्निमय हैं। इनकी दशा आने पर क्रोध बढ़ता है, राजयोग मिलता है, पिता से संबंधित फल आते हैं तथा हड्डियों से संबंधित परिणाम आते हैं। यदि आठवें भाव में स्थित हों तो पक्का फ्रैक्चर करवाते हैं। सूर्य कलह कारक हैं। अकस्मात सरकारी लोगों से कष्ट आता है, कुटुम्ब में रोग उत्पन्न होता है, सूर्य यात्राएँ और पित्त कराते हैं। मन में अग्नि रहती है तथा मन में कुण्ठायें या अति आत्मविश्वास होता है। सूर्य यदि अच्छे भावों में हों तो वरदान जैसा मिलता है और खराब भावों में हों तो अनिष्ट फल। सूर्य प्रसिद्धि कराते हैं, बड़े लोगों से मिलवाते हैं, सरकारी साधन हाथ में लगते हैं और यदि थोड़े से भी दूषित हों तो व्यक्ति काले काम करता है। सूर्य की महादशा में व्यक्ति का आत्मबल बहुत बढ़ जाता है और वह साहसिक कार्य करने की सोचता है।
कब अनिष्ट फल होंगे?: सूर्य यदि राहु, केतु शनि से दृष्ट हों, तो अशुभ फल देते हैं। अशुभ भावों में बैठे हों तो महादशा खराब जाती है। यदि सूर्य 3, 6, 11 के स्वामी हों तो अत्यन्त शानदार परिणाम देते हैं। यदि सूर्य 6, 8 12वें भाव में बैठे हों तो क्रमश: लम्बे जीवन संघर्ष, शत्रुओं का मानमर्दन, अष्टम में हों तो हड्डियों से संबंधित दोष, पित्त विकार, अग्निभय और राजकोप जैसे भय सूर्य की महादशा में आते हैं। 12वें भाव के सूर्य या 12वें भाव के स्वामी सूर्य अपनी महादशा में व्यर्थ के भ्रमण और अनन्त खर्चे देते हैं। सूर्य यदि राहु के साथ बैठे हों और दोनों के बीच में बहुत ही कम अंशों का अंतर हो तो अपार कष्ट देते हैं और तरह-तरह से राजकोप मिलता है।
सूर्य महाक्रोधी हैं, इनकी महादशा में व्यक्ति किसी की नहीं सुनता, व्यक्ति का आत्मविश्वास अत्यधिक बढ़ जाता है और अहंकार भी जन्म लेता है। सूर्य जरा-सा भी दूषित हों तो व्यक्ति क्रूर हो जाता है। घर-परिवार से अलग हो जाता है और शासकों से मित्रता या बैर करता है।
चन्द्रमा : चन्द्रमा सबसे छोटे होते हुए भी अत्यन्त शक्तिशाली हैं। खगोल शास्त्रीय दृष्टि में उपग्रह हैं परन्तु इनको ग्रह की संज्ञा प्राप्त है और चन्द्र लग्न को जन्म लग्न की भाँति सबसे शक्तिशाली माना जाता है। अपनी राशि या अपने नक्षत्र, उच्च राशि में स्थित चन्द्र या पूर्ण चन्द्र वरदान माने जाते हैं और अपनी दशा में श्रेष्ठ फल देते हैं। चन्द्रमा को रागरंग का स्वामी माना जाता है, वे भोगी हैं, सौंदर्य रस की सृष्टि करते हैं और मन को अत्यंत चंचल कर देते हैं। संसार की समस्त जल निधि पर उनका अधिकार है और जिस स्थान पर कण मात्र भी जल हो, वहाँ चन्द्रमा पूर्ण रूप से प्रभावी हो जाते हैं।
चन्द्रमा की दशा में मन अत्यंत शान्त हो जाता है। इन से पूर्व की दशा सूर्य की होती है परन्तु चन्द्रमा प्रारंभ होते ही भयंकर क्रोध, शीतल जल में बदल जाता है परंतु इनकी गति बहुत तीव्र है। चन्द्रमा बहुत चंचल हैं और एक जगह पर नहीं टिकते। इस दशा में कोई भी विचार स्थिर नहीं रहता तथा व्यक्ति तेज गति से निर्णय लेता है। उच्च कोटि का खान-पान, राजकीय वैभव, नये-नये संबंध और रिश्ते, मातृभूमि या माता से लेन-देन तथा समस्त स्त्री जाति से कुछ कुछ प्राप्त करने की लालसा चन्द्रमा की दशा में बनी रहती है। जिनकी कुण्डली में चन्द्रमा बहुत बलवान हैं, उनकी पूर्णिमा या अमावस्या साधारण नहीं जातींं, जिनका जन्म ही पूर्णिमा या अमावस्या का हो, उनका जीवन साधारण नहीं होता।
पूर्णचन्द्र जहाँ एक तरफ वरदान माने जाते हैं और अत्यंत शक्तिशाली और राजयोग देने वाले माने जाते हैं, तो वहीं चन्द्रमा दूसरी तरफ क्षीण होने पर व्यक्ति को खण्डित व्यक्तित्व का स्वामी बनाते हैं। या तो स्वभाव में उच्च कोटि के संस्कार होंगे या कई बार हीन संस्कार उभरकर सतह पर जाते हैं। काम करने में सनक या पागलपन की खनक दिखाई दे जाती है। चन्द्रमा की दशा आई और यह लोग गये काम से।
चन्द्रमा की महादशा में माँ, माँ तुल्य स्त्रियाँ या प्रेमिका मिलती है। दशा शुरु होते ही मनुष्य को चन्द्रमा की छाया आवृत्त कर लेती है। मनोवेगों से संचालित उसकी क्रियाप्रणाली विशिष्ट हो जाती है। भावनात्मक संवेगों को रोक पाने में वह असफल हो जाता है। दिल, दिमाग पर हावी हो जाता है, संतुलित विचार श्रृंखला, स्थायित्व पर आक्रमण करता है। चन्द्रमा में तूफान लाने की शक्ति है और व्यक्ति को गाफिल करने की। आसन्न संकट को तात्कालिक बाहुबल से जीतने की कल्पना संजोता है और नियति के आगे परास्त हो जाने की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर लेता है। मत्र्य लोक में कोई भी शक्ति शाश्वत नहीं होती और नियति के विधान के आगे परास्त हो जाती है।
रोहिणी में चन्द्रमा ने कृष्ण भगवान को अनिंद्य सौंदर्य और सम्मोहन शक्ति से भर दिया था। वे सारे संसार को जैसे मोहिनी निद्रा में ही रखते थे। रोहिणी से उत्कट प्रेम के कारण ही स्वयं चन्द्र को प्रजापति के शाप का शिकार होना पड़ा और वह पाण्डुरोगी हो गये। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस कन्याओं में से शेष सभी छब्बीस कन्यायें ईष्र्यालु हो गई थीं। चन्द्रोत्कर्ष व्यक्ति को निन्दा का पात्र बनाता है अगर उसका भाग्य ने साथ दिया तो वह सफल रहता है अन्यथा मायावी शक्तियों से परास्त हो सकता है। अगर जन्मपत्रिका में कर्क राशि केन्द्र में हो तो केन्द्राधिपत्य दोष होता है। यदि चन्द्रमा लग्नेश हों या स्वराशि में केन्द्र में हों, तब केन्द्राधिपत्य दोष का शमन हो जाता है अन्यथा इस दोषयुक्त व्यक्ति को चन्द्रमा की दशा अशुभ सिद्ध होती है।
वृश्चिक राशि के चन्द्रमा या वृषभ राशि के चन्द्रमा व्यक्ति के जीवन में अतिवाद ला देते हैं। वह व्यक्ति अतिवादी होता है और या तो श्रेष्ठ ऊँचाई को प्राप्त करता है या रसातल में चला जाता है, उसे बीच में रहना पसंद नहीं आता। अमावस्या में जन्मे व्यक्ति भी अपने बहुत सारे अच्छे योगों से हाथ धो बैठते हैं और चन्द्रमा से प्राप्त नैसर्गिक गुणों का उनके जीवन में अभाव मिलता है। पूर्णिमा भी चन्द्रमा को अतिशक्तिशाली बनाती है और बहुत सारे योगों का खण्डन-मण्डन अपने आप ही हो जाता है। पूर्णचन्द्र यदि हों और तब उनकी महादशा जीवन में आये तो व्यक्ति को अकल्पित सफलता प्राप्त कराती है। महानिर्वाण के जितने भी मामले हैं, चाहे महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर या कोई और, इन महान आत्माओं का जन्म या निर्वाण पूर्णिमा से संबंधित होता है। वृश्चिक में स्थित चन्द्रमा की सबसे शानदार काट एक ही है कि उसका जन्म पूर्णचन्द्र को हुआ हो। नीच भंगराज योग इतना अधिक फल नहीं देता, जितना अधिक पूर्णचन्द्र देते हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन में चन्द्रमा की कलायें सफलता-असफलता के रूप में देखने को मिलती हैं।
अत्यधिक शक्तिशाली चन्द्र जीवन में रागाधिक्य या रसाधिक्य देते हैं। अधिक ओज, अधिक रस (चाहे पसीना, चाहे पित्त और चाहे आँखों में शानदार आब), अधिक काम, अधिक गति, अधिक चैतन्य, अधिक जल संसाधन और राग रंग से भरा जीवन, यही चन्द्रमा का सार है। महादशा आई और चहँु ओर जीवन में वसंत जाता है। जिसके चन्द्रमा खराब हों, उसका जीवन जलहीन हो जाता है और रेगिस्तान जैसा हो जाता है।
चन्द्रमा अपने आप को छुपा नहीं पाते, अपने दागों को भी छुपा नहीं पाते। उनकी या तो चेष्टाएँ सफल नहीं होतीं या वे परवाह नहीं करते। अगर शुक्र उनको जरा-सा भी सहयोग दे जायें, तो वे कलात्मक अभिव्यक्ति में लज्जा को भी त्याग सकते हैं। अगर ऐसे चन्द्रमा युत शुक्र को मंगल सहयोग प्रदान कर दें, तो निर्लज्ज अभिव्यक्ति धनयापन का साधन बन सकती है। अंग प्रदर्शन सहज कौतूहल हो जाता है। चन्द्रमा उत्कट प्रेम के मामले में महापराक्रमी हैं।

दशा-रहस्य

किसी ग्रह की दशा-अन्तर्दशा में परिणामों की सही विवेचना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि शुभ अथवा योगकारक ग्रह की महादशा में अशुभ अथवा अयोगकारक ग्रह की दशा कैसी जाएगी? दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि जिस ग्रह की दशा चल रही है वह यदि एक शुभ एवं एक अशुभ भाव का स्वामी है तो कब शुभ परिणाम मिलेंगे और कब अशुभ? लघु पाराशरी में इन बिन्दुओं को बहुत विस्तार से समझाया गया है। महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ के मध्य का संबंध ही परिणामों की दिशा तय करने का सूत्र है। लघुपाराशरी के अनुसार महादशानाथ के संदर्भ में अन्तर्दशानाथ को दो मुख्य वर्गों में रख सकते हैं- संबंधी ग्रह, असंबंधी ग्रह। इन्हें पुन: तीन वर्गों में बांटा गया है- सधर्मी, विरुद्धधर्मी, समधर्मी।
संबंधी का तात्पर्य है महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ में संबंध। संबंध अर्थात् चतुर्विध संबंध में से कोई भी एक संबंध यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ के मध्य हो तो उन्हें संबंधी कहा जाएगा। यदि महादशा नाथ और अन्तर्दशानाथ में चतुर्विध संबंधों में से कोई भी संबंध नहीं बनता हो तो उन्हें असंबंधी माना जाएगा। सधर्म का तात्त्पर्य है समान धर्म या स्वभाव वाला। यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ दोनों शुभ भावों के स्वामी हों अथवा अशुभ भावों के स्वामी हों जैसे त्रिषडय तो इन्हें सधर्मी कहा जाएगा। स्पष्ट है कि अधर्मी का तात्पर्य है दोनों में समानता न हो, एक शुभ हो, एक अशुभ। समधर्मी का तात्पर्य है न सधर्मी हो, न विरोधी हो।
जब महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ संबंधी ग्रह होंगे तब परिणामों की तीव्रता सर्वाधिक होगी, चाहे वे शुभ हों अथवा अशुभ। यह विदित है कि किसी भी ग्रह की महादशा में उसी ग्रह की अन्तर्दशा परिणाम देने में सक्षम नहीं होती चाहे महादशानाथ कारक हो अथवा मारक। यदि महादशानाथ कारक ग्रह हैं तो सर्वश्रेष्ठ परिणाम तब मिलेंगे, जब कारक ग्रह की अन्तर्दशा आएगी। यही नियम मारक ग्रह पर भी लागू होता है।
यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ विरुद्धधर्मी हों अर्थात् एक शुभ एक अशुभ तो मिश्रित परिणाम आएंगे और परिणामों की तीव्रता सीमित हो जाएगी।
उक्त नियम को निम्न रूप से समझा जा सकता है-
महादशानाथ + संबंधित सधर्मी अन्तर्दशानाथ - पूर्ण फल
महादशानाथ+संबंधित समधर्मी अन्तर्दशानाथ - मध्यम फल
महादशानाथ+संबंधित विरुद्धधर्मी अन्तर्दशानाथ-सामान्य फल
महादशानाथ + असंबंधित सधर्मी अन्तर्दशानाथ-पूर्ण फल
महादशानाथ+असंबंधित विरुद्धधर्मी अन्तर्दशानाथ-मिश्रित फल
इन नियमों को हम और अधिक विस्तार से विभिन्न ष्शठ्ठस्रद्बह्लद्बशठ्ठह्य के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं।
केन्द्रेश व त्रिकोणेश : केन्द्रेश व त्रिकोणेश सधर्मी ग्रह हैं क्योंकि दोनों शुभ भावों के स्वामी हैं अत: एक की महादशा में दूसरे की अन्तर्दशा शुभफल देगी। यदि इन दोनों के बीच किसी भी प्रकार का परस्पर संबंध हो तो फल विशेष शुभ हो जाएगा। इस संबंध में अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य जो लघु पाराशरी कहती है, वह यह है कि यदि केन्द्रेश या त्रिकोणेश अशुभ भाव के स्वामी भी हों तो शुभफल तब प्राप्त होंगे। जब इन दोनों में किसी प्रकार का संबंध हो और अशुभ फल तब प्राप्त होंगे यदि इनमें किसी प्रकार का संबंध न हो। अधिक स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि सहधर्मी होते हुए भी यदि किसी प्रकार का दोष हो तो शुभफल उसी स्थिति में मिलेंगे, जब ये संबंधी भी हों। यहाँ यह उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है कि दोष का तात्पर्य अशुभ भाव का स्वामी होने से ही है, ग्रह के नीच या अस्त आदि होने को दोष नहीं माना गया है। ऐसी स्थिति में योग भंग हो जाता है।
1. दोषरहित केन्द्रेश+दोष रहित त्रिकोणेश, असंबंधी - शुभ
2. दोषरहित केन्द्रेश+दोष रहित त्रिकोणेश, संबंधी-विशेष शुभ।
3. दोषयुक्त केन्द्रेश + दोषयुक्त त्रिकोणेश, असंबंधी-अशुभ
4. दोषयुक्त केन्द्रेश + दोषयुक्त त्रिकोणेश, संबंधी - सामान्य
5.दोषयुक्त केन्द्रेश+दोषयुक्त त्रिकोणेश, असंबंधी - अशुभ।
6. दोषमुक्त केन्द्रेश + दोषयुक्त त्रिकोणेश, असंबंध-अशुभ।
योगकारक व मारक : किसी योगकारक ग्रह की महादशा में शुभ परिणाम तब प्राप्त होंगे जब किसी अन्य योगकारक की अन्तर्दशा आएगी अर्थात् सहधर्मी की। यदि दोनों में संबंध भी हुआ तो परिणाम की तीव्रता बढ़ जाएगी अर्थात् सहधर्मी होने के साथ-साथ संबंधी भी हुए तो विशेष परिणाम प्राप्त होंगे। संबंध न होने की स्थिति में सामान्य फल ही मिलेंगे।
यदि योगकारक ग्रह की महादशा में मारक ग्रह की अन्तर्दशा हो, दोनों मेें संबंध भी हो रहा हो तो राजयोग की प्राप्ति हो सकती है (यद्यपि यह स्थायी नहीं होगा) स्पष्ट है कि संबंधी होने से परिणाम प्राप्त होंगे। यही नियम मारक ग्रह की महादशा में लागू होगा। मारक ग्रह की महादशा में सर्वाधिक मारक परिणाम तब आएंगे जब मारक ग्रह की अन्तर्दशा आएगी और दोनों में संबंध भी होगा। मारक ग्रह की महादशा में संबंधी पापग्रह की अन्तर्दशा में अशुभ परिणाम की तीव्रता कम होगी क्योंकि यह सहधर्मी नहीं होकर सिर्फ संबंधी हैं। यह उल्लेख आवश्यक है कि चतुर्विध संबंध के अतिरिक्त एक-दूसरे से केन्द्र-त्रिकोण में होना भी संबंध है।
राहु-केतु की दशा के नियम : राहु-केतु के लिए नियम है कि ये जिस भाव में बैठते हैं और जिस भावेश से संबंध करते हैं उसी के समान परिणाम देते हैं। केन्द्र-त्रिकोण में बैठने मात्र से राहु-केतु अपनी दशा में शुभफल देंगे। यदि ये केन्द्र-त्रिकोण में बैठकर केन्द्रेश या त्रिकोणेश से संबंध भी करें तो अपनी दशा में योगकारक के समान फल देते हैं।
अब याद रखने योग्य बिन्दु यह है कि केन्द्र में शुभ राशि में बैठने पर इन्हें भी केन्द्राधिपति दोष लगेगा। केन्द्र में पाप राशि में बैठने पर अशुभता सम हो जाएगी और राहु-केतु अपनी दशा में सामान्य फल देंगे। केन्द्र त्रिकोण में स्थित राहु-केतु यदि केन्द्रेश-त्रिकोणेश से संबंध न भी करें तो भी केन्द्रेश-त्रिकोणेश की महादशा में इनकी दशा शुभ परिणाम देगी क्योंकि केन्द्र-त्रिकोण में बैठने से वे केन्द्रेश-त्रिकोणेश के समान फल देंगे अत: ऐसी दशा में सहधर्मी होने से शुभ परिणाम प्राप्त होंगे।
पाप ग्रह की दशा : लघुपाराशरी के अनुसार पाप ग्रह की महादशा में असंबंधी शुभ ग्रह की अन्तर्दंशा हो तो परिणाम अशुभ होते हैं। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि 2,3,11 भावेशों की दशा सामान्य फल देती है और 6,8,12 भावेशों की दशा कष्ट देने वाली होती है। पापी महादशेश में संबंधी शुभग्रह की अन्तर्दशा मिश्रित फल देगी।
1. पापी महादशेश + शुभ अन्र्तदशेश, असंबंधी - अशुभ।
2. पापी महादशेश + शुभ अन्तर्दशेश, संबंधी - मिश्रित फल।
3. पापी महादशेश + योगकारक, असंबंधी - अशुभ फल।
4. पापी महादशेश + योगकारक, संबंधी - मिश्रित फल।
स्पष्ट है कि महादशेश एवं अन्तरर्दशेश में संबंध होने पर परिणामों की तीव्रता बढ़ती है। लघुपाराशरी में एक अत्यंत रोचक उदाहरण से इस तथ्य को समझाने का प्रयास किया गया है। महादशेश राजा के समान है और अन्तर्दशेश उस राजा के अधीन अधिकारी। पापी राजा के राज में सज्जन अधिकारी चाहते हुए भी अच्छा कार्य नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में यदि अधिकारी अत्यधिक सज्जन हुआ तो और भी अधिक डरेगा इसीलिए पापी महादशेश में असंबंधी योगकारक की अन्तर्दशा में अशुभ परिणाम मिलेंगे। यदि राजा और अधिकारी ने किसी भी प्रकार की रिश्तेदारी या संबंध हो तो अधिकारी कभी-कभी निर्भय होकर अपनी इच्छानुसार कार्य कर लेगा अत: संबंधी होने की स्थिति में पापी महादशेश में शुभ अथवा योगकारक अन्तर्दशेश मिश्रित फल देंगे। यही नियम शुभ महादशेश में अशुभ या अयोगकारक अन्तर्दशेश पर लागू होगा। इसी उदाहरण से यह भी समझा जा सकता है कि पापी ग्रह की महादशा में पापी ग्रह की अन्तर्दशा बहुत अशुभ परिणाम देगी और यदि इनमें संबंध भी हो तो ‘करेला और नीम चढ़ा’ की कहावत पूर्णत: चरितार्थ होगी। न चाहते हुए भी भारत के प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह, सुरेश कलमाड़ी और ए. राजा का नाम याद आ रहा है परंतु आधुनिक राजनीति में तो कोई भी नियम नहीं लग सकता।
यदि फलकथन में इन बिन्दुओं का ध्यान रखा जाए तो सटीक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।