Sunday, March 27, 2011

जल व वास्तु

वास्तुशास्त्र में भूमिगत जल का अत्यधिक महत्व है। इस महत्व को महाभारत की एक महत्वपूर्ण घटना से समझा जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों के महल के निर्माण के लिए मयासुर की सेवाएँ लीं। वे जानते थे कि नियम विरुद्ध निर्माण कराने में मयासुर ही उनकी मदद कर सकते हैं। वे यह भी जानते थे कि अंतत: यह महल कौरवों के आधिपत्य में जाने वाला है। उन्होंने उस महल के मध्य में जलाशय जैसी रचना कराई। इस प्रकार केवल वह रचना मध्यप्लवा हो गई बल्कि ब्रह्म स्थान में जल होने के वास्तुदोष से भी पीडि़त हो गई। जब कौरवों ने यह महल पाण्डवों से जीत कर अपने आधिपत्य में ले लिया तब वास्तुदोष के प्रभाव के कारण वह धीरे-धीरे विनाश को प्राप्त हुए।

जल के देवता वरुण हैं जो कि दिक्ïपालों में से एक हैं। इनकी गणना द्वादशादित्यों में भी की जाती है। पृथ्वी और अंतरिक्ष में जल के जितने स्वरूप हैं उन सबके स्वामी वरुण देवता हैं। अथर्ववेद में वरुण के लिए अपामाधिपति शब्द का प्रयोग किया गया है। जलाशय के रूप में भूमि में, हम वरुण की स्थापना ही करते हैं। जब जलाशय भूमिगत हों तो परिणामदायी हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भूमिगत जलाशय, भूमि के अंदर स्थित ऊर्जा चक्र को प्रभावित करते हैं और जैसे ही जल का भूमि से संबंध स्थापित हुआ, तीव्र क्रिया सामने आती है। यदि जल पात्र सीमेंट जैसी वस्तु का बना हुआ हो तो ऊर्जा या विद्युत का सुचालक होने के कारण इनके परिणाम तीव्र गति से आते हैं।
जलाशय का निर्माण करते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि जलाशय दिशा मध्य अथवा कोणों पर हों।
चित्र में जलाशय की उचित-अनुचित विभिन्न दिशाओं को चिह्निï किया गया है।
अत: भूमिगत जलाशय पश्चिम, उत्तर एवं उत्तर-पूर्व अथवा ईशान कोण में ही बनाए जाने चाहिएं, अन्यत्र नहीं।
वराहमिहिर ने विभिन्न दिशाओं में जलाशय होने के परिणाम बताये हैं जो इस प्रकार हैं-
ईशान कोण : ईशान कोण में जल साधन संपन्नता देने वाला होता है। ईशान कोण में स्थित जलाशय त्वरित परिणाम देने वाला होता है अत: यदि कोई व्यक्ति अपनी आयु के अधिक वर्षों में अर्थात्ï लगभग प्रौढ़ावस्था की आयु में भवन या व्यावसायिक प्रतिष्ठान का निर्माण करता है तो उसे जलाशय ईशान कोण में ही बनाना चाहिए। ईशान कोण में जलाशय का निर्माण करते समय यह बात विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिए कि वास्तु पुरुष के सिर का कोई अंग अथवा मर्म पीडि़त हों।
पूर्व दिशा : पूर्व दिशा में जलाशय होने से पुत्र संतान के लिए शुभ स्थिति नहीं रहती तथा पड़ोसियों की ईष्र्या कई बार दुखों का कारणबनती है।
आग्नेय कोण : पूर्व से दक्षिण की ओर अथवा आग्नेय कोण में यदि जलाशय हो तो संतान पर निश्चित गहरा असर डालते हैं और कदाचित कुछ मामलों में मृत्यु तक देखने को मिलती है। डिहाइड्रेशन के मामले, किडनी फेल हो जाने के मामले तथा तरह-तरह के रोग या लंबी अवधि के असाध्य रोग भी इसके कारण देखने को मिलते हैं।
दक्षिण दिशा : दक्षिण दिशा में भूमिगत जलाशय घर की स्त्रियों के लिए विनाश का कारण बनते हैं तथा घर की स्त्रियों में गायनाकोलोजिकल (स्त्रियों से संबंधित) रोगों को जन्म देते हैं।
नैर्ऋत्य कोण : नैर्ऋत्य कोण में जलाशय होने से व्यक्ति के शत्रुओं में वृद्धि होती है तथा उसे उनसे भय भी रहता है। नैर्ऋत्य कोण राहु एवं केतु की दिशा है अत: यहाँ स्थित जलाशय भूत-प्रेतादि से संबंधित समस्याएं लाने वाला तथा व्यर्थ की कठिनाइयां लाने वाला सिद्ध होता है एवं गृह स्वामी के नाश का कारण बनता है।
पश्चिम दिशा : पश्चिम दिशा में स्थित जलाशय प्रशस्त माना गया है, जैसा कि ऊपर वर्णित किया जा चुका है पश्चिम दिशा वरुण देवता की है तथा उसमें जलाशय का होना धन समृद्धि की वृद्धि करता है। व्यवसाय बढ़ाने के लिए जिस कौशल की आवश्यकता होती है वह पश्चिम में जलाशय से आता है। यदि किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान में पश्चिम में जल होगा तो वहाँ टैक्स बचाने के लिए भी अतिरिक्त कौशल का परिचय व्यक्ति देगा। वरुण देवता समुद्र पार से आय भी कराते हैं अत: पश्चिम में जल का संबंध विदेश से आय के साधन खोल देता है। यद्यपि पश्चिम दिशा में स्थित जलाशय अत्यधिक संपन्नता देने वाला होता है तथापि वह संपन्नताजनित दोष भी घर में ले आता है अत: यदि पश्चिम में जल से आने वाले दोषों का दमन कर लिया जाए तो व्यक्ति महापुुरुष की श्रेणी में सकता है।
वायव्य कोण : वायव्य कोण में स्थित जलाशय निर्धनता और रोग देने वाला होता है।
उत्तर दिशा : उत्तर दिशा में स्थित जलाशय श्रेष्ठ परिणाम देता है। धन, संतान पुत्रों की वृद्धि होती है। पुत्रों की वृद्धि से तात्पर्य आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुत्र पुत्री दोनों संतानों से लिया जाना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति कम उम्र अर्थात्ï 20 से 25 वर्ष की आयु में भवन अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठान का निर्माण करता है तो उसे उत्तर दिशा में ही जलाशय बनाना चाहिए।
विशेष : निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति को जल्दी संपन्नताजनित वृद्धि चाहिए उनको जलाशय उत्तर-पूर्व तथा अन्य लोगों को उत्तर दिशा में ही बनाना चाहिए।
दिशाओं के बाद अब जलाशय निर्माण के लिए कुछ विशेष नक्षत्रों की चर्चा करते हैं।
वराहमिहिर ने जलाशयारंभ के लिए कुछ नक्षत्रों के नाम का प्रस्ताव दिया है। हस्त, मघा, अनुराधा, पुष्य, धनिष्ठा, तीनों उत्तरा, रोहिणी और शतभिषा नक्षत्रों में कुएँ का निर्माण करना शुभ माना गया है। आजकल बोरिंग खुदवाने की प्रथा है, उसको भी कुएँ की श्रेणी में माना जाता है अत: इन नक्षत्रों में कार्य शुरु किया जा सकता है।
जिनके यहाँ पूजन कराने की सुविधा हो, वहाँ वरुण देवता को बलि देकर गंध, पुष्प, धूपादि से वटवृक्ष की लकड़ी से, कील की पूजा करके उसे शिरा में गाड़ा जाता है। शिरा स्थान का निर्धारण इससे पहले कर लिया जाता है।
जलाशय निर्माण के लिए ग्रंथों में बहुत प्रशंसा की गई है। एक ग्रंथ में लिखा है कि जो व्यक्ति रेगिस्तान में गाय के खुर के बराबर भी जलाशय बनाता है तो उसे 60 हजार वर्ष तक स्वर्ग में रहने का अधिकार मिलता है। काश्यप ने कहा है कि कृत्रिम या अकृत्रिम जल तथा समीप के उपवन में देवता निवास करते हैं। इसी तरह से जिस सरोवर में कमल हों या हंस हों तथा जहाँ हंस कारंडव, क्रौंच और चक्रवात पक्षी शब्द कर रहे हों तथा वहाँ आस-पास स्थित वृक्षों में जीव निवास करते हों, ऐसे सरोवर में सदा देवता निवास तथा विहार करते हैं। वराहमिहिर यह मानते हैं कि बहने वाली नदियों के पास में भी देवता निवास करते हैं। वे आगे चलकर कहते हैं कि वन, नदी, पर्वत और उपवन जिस नगर के पास हों, उस नगर में भी देवता वास करते हैं। वे इन स्थानों के पास में देवालय बनाने की भी प्रशंसा करते हैं।

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