Sunday, March 27, 2011

जापान

ज्योतिष मंथन प्रिंट मैग्जीन के अप्रैल अंक में हिरोशिमा और नागासाकी का उदाहरण देते हुए हमने लेख लिखा था कि किसी शहर के बीच से यदि कोई नदी गुजर रही हो या अपार जल राशि हो तो वहां अग्नि वर्षण होता है और बार-बार होता है। इराक की राजधानी और चित्तौड़ का उदाहरण भी इसलिए दिया गया था क्योंकि वहां पर बहुत अधिक बम बरसाए गए थे। यह अंक बाजार में पहुंच चुका था कि जापान वाली त्रासदी सामने आई। हम जानते हैं कि जापान एक द्वीप समूह है और उसके बीच-बीच में समुद्र और झीलों की कमी नहीं है।
जयपुर में राजस्थान पत्रिका में कार्यरत न्यूज टूडे के सम्पादक राजेश शर्मा ने मेरे से पूछा कि जापान बार-बार रेडिएशन का शिकार क्यों होता है? पहले भी परमाणु विस्फोट से वहां महाविनाश हुआ और अब पुन: वही हो रहा है, पर साथ में सुनामी भी तो है, तो घटनाओं को हम अलग करके क्यों देखें? हमने वास्तु के नजरिए से एक विश्लेषण किया कि जब किसी घर, ग्राम या राष्ट्र का ऊर्जा पैटर्न या ऊर्जा संतुलन बिगड़ जाता है तो अग्नि का प्रकोप आता है। बम वर्षण अग्नि के क्रुद्ध होने का एक उदाहरण मात्र है। ज्वालामुखी फटना, भयानक गर्मी पडऩा, अग्निकांड होना, तोपों से युद्ध होना, असंख्य बंदूकों का चलना और पृथ्वी की सतह के नीचे चट्टानों का टूटना, खिसकना आदि भी इसी श्रेणी के उत्पात हैं। पृथ्वी में जितनी भी ऊर्जा है उसके कारण जीवजगत का अस्तित्व है और पृथ्वी की ऊर्जा समाप्त होने के बाद यह भी अनंत अंतरिक्ष में विलीन या समाप्त हो जाएगी। पृथ्वी के ठंडा या गर्म होने में अग्निेदव की ही माया है। अग्नि के हजारों रूप हो सकते हैं। मेरा यह मानना है कि जापान में न्यूक्लियर रिएक्टर ही नहीं बल्कि ज्वालामुखी से भी नुकसान हो सकते हैं।
यह अनुसंधान का विषय हो सकता है कि बिना ग्रहण के भी भूकम्प आए और सुनामी आए। मेदिनी ज्योतिष की कक्षाओं में विद्यार्थियों को पढ़ाते समय हम हमेशा ही बृहत्संहिता या अन्य ग्रंथों के आधार पर यही बताते आए हैं कि भूकम्प ग्रहण के आसपास आते हैं और इसके अतिरिक्त तथ्य पुरानी पुस्तकों में नहीं मिलते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी सौर तूफानों को लेकर केवल यह आशंका जताई थी कि दूरसंचार माध्यमों में व्यतिक्रम सकता है। उन्होंने सुनामी या भूकम्प के बारे में नहीं कहा। दूसरी तरफ सुपरमून को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं तो प्रकट की जा रही हैं परन्तु भूकम्प जैसी भविष्यवाणियां वैज्ञानिकों ने नहीं की थीं। ज्योतिषी और वैज्ञानिक दोनों ही कहीं कहीं चूक गए।
मुझे ज्योतिष पत्रिका के सम्पादक के नाते यह स्वीकार करने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि सुपरमून की स्थिति में ग्रहण के बाद आने वाले फलों की कल्पना हम नहीं करते थे और इस कारण पूरे देश में इनसे संबंधित भविष्यवाणियां नहीं हो पाईं। यदि चन्द्रमा के महत्व को और अधिक भी स्वीकार कर लें तो भविष्य में इसके नियम बनाए जा सकते हैं।
चन्द्रमा जब भी पृथ्वी के पास आएंगे या ग्रहण होगा तो उससे कुछ दिन पहले और कुछ दिन बाद तक धरती की टेक्टोनिक प्लेट्स में हलचल मचेगी। टेक्टोनिक प्लेट्स से तात्पर्य वे प्रमुख वृहत चट्टान समूह है जिन्हें महत्व दिया गया है। ये करीब 100 किलोमीटर की मोटाई की हैं और स्थल के नीचे रहने वाली चट्टानें समुद्र के अंदर की चट्टानों के मुकाबले धिक मोटी हैं। ये सब प्लेट्स एस्थिनोस्फियर नाम की पृथ्वी के बाह्य आवृत के नीचे सजी हुई हैं। यह मंडल सरकता रहता है और टेक्टोनिक प्लेट्स का विचरण भी होता रहता है। इन प्लेट्स के अपने स्थान से दूसरे स्थान पर सरक जाने की प्रक्रिया के कारण जैव वैज्ञानिक यह अनुमान लगा पाए कि विभिन्न द्वीपों में या महाद्वीपों में एक जैसी जीवों की जातियां क्यों मिलती हैं? किसी एक महाद्वीप में उसका उद्भव हुआ और अलग होती हुई प्लेट्स के माध्यम से वे जातियां दूसरे महाद्वीप में चली आईं, आज एक-दूसरे से वे हजारों किलोमीटर दूर हैं। चन्द्रमा जो कि पृथ्वी को जब प्रभावित कर रहे होते हैं तो उसकी चुम्बकीय आकर्षण शक्ति पृथ्वी के अंदर के लौह तत्वों को आकर्षित करके चट्टानों को तोड़ देने या उनके स्थान परिवर्तन का कारण बनती है। इस क्रम में कई बार ज्वालामुखी भी बाहर जाते हैं। आप कभी भी किसी पूर्णिमा के दिन समुद्र तट पर खड़े हो जाइए और पूरी रात खड़े रहिए। शाम के बाद से ही ज्वार के आकार में और ऊंचाई में लगातार वृद्धि को आप देख पाएंगे। मैं ऐसा कई बार कर चुका हूं और ऐसे समय केवल यह अनुमान लगाता रहा हूं कि जो चन्द्रमा समुद्र की लहरों को भी इतना ऊंचा उठा देते हैं वे मानव शरीर में स्थित थोड़े से पानी और थोड़े से खून में उबाल अवश्य ला सकते हैं। पूर्ण चन्द्र के दिनों में वैयक्तिक आचरण में असंतुलन इतना प्रभावी होता है कि विचार शृंखलाएं भंग हो जाती हैं और सड़कों पर भी दुर्घटनाओं का प्रतिशत बढ़ जाता है। अमावस्या और पूर्णिमा के आसपास मृत्यु दर और जीवन दर परिवर्तित हो जाती हैं, अगर किसी की मृत्यु हुई है तो उसका पुनर्जन्म होना ही है और कोई मृत्यु शैया पर है तो ऐसे चन्द्रमा उनकी मृत्यु में मदद करते हैं। यह चन्द्रमा जीवन भी प्रदान कर सकते हैं।
भूकम्प: जापान में 11 मार्च 2011 को दोपहर 2.46पर भूकम्प आया। उस समय की कुण्डली निम्न है:
इस समय कर्क लग्न थी और शनि हस्त नक्षत्र में वक्री थे। मंगल और सूर्य, शनि से छठे, आठवें थे तथा शनि पर मंगल की दृष्टि थी। शनि, मंगल का षष्टाष्टक होना एक संकेत है परन्तु ऐसी स्थितियां बार-बार आती रहती हैं। हर बार तो भूकम्प नहीं आते।

मेदिनी ज्योतिष में भूकम्प आने के लिए कुछ परिस्थितियां बताई गई हैं: उनमें ग्रहण होना, स्थिर राशियों में विशेष तौर से वृषभ और वृश्चिक होना, गुरु, शनि और हर्षल का स्थिर राशियों में भ्रमण करना इत्यादि बताए गए हैं। वर्तमान भूकम्प में यह सब देखने को नहीं मिलता है परन्तु पूर्वी क्षितिज पर कुंभ राशि का उदय अवश्य हुआ था परन्तु भूकम्प फिर भी उसके सात-आठ घंटे के बाद ही हुआ है अत: इस नियम का पालन भी नहीं हुआ है। बहुत सारे विद्वानों ने जापान की राशि तुला बताई है। यह घटना तुला राशि में भी नहीं हुई है परन्तु यदि कोई निष्कर्ष लिया जा सके तो एकमात्र यह है कि भूकम्प के समय की कुण्डली के चतुर्थ भाव में तुला राशि है, परन्तु तुला राशि किसी भी तरह से पीडि़त नहीं है बल्कि उसके स्वामी शुक्र अपने परम मित्र शनि की राशि में बैठे हैं। शुक्ल पक्ष की षष्ठी को भूकम्प तभी सकता है जब इससे पहले वाली अमावस्या को सूर्यग्रहण हो गया हो। इस भूकम्प के समय ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मीन राशि में यूरेनस हैं और उनके ठीक सामने वक्री शनि हैं तथा इन सबसे केन्द्र में राहु-केतु हैं, राहु के साथ प्लूटो हैं। यह अवश्य हो सकता है कि हस्त नक्षत्र से केन्द्र में सात ग्रह हैं, परन्तु द्विस्वभाव राशियों में इतने अधिक ग्रह एक साथ होने को और एक-दूसरे से केन्द्र में होने को भूकम्प का कारण माना जाए, तो मेदिनी ज्योतिष में एक नया नियम गढऩा पड़ेगा।
प्राय: यूरेनस, शनि, गुरु और मंगल वृषभ और वृश्चिक राशि में हों, जब ग्रहों का बड़ा दृष्टि योग चतुर्थ भाव की संधि में हो, गुरु जब वृषभ या वृश्चिक में हों और बुध के साथ एक साथ 1800 पर हों या समान क्रांति पर हों तब भी भूकम्प हो सकता है, परन्तु इस मामले में गुरु द्विस्वभाव राशि में ही हैं और बुध 80 47 मिनट, 160 6मिनट पर थे। क्रांति साम्य और समान भोगांश दोनों ही नहीं थे। एक अन्य योग में राहु के सप्तम में मंगल या मंगल के पंचम में बुध या बुध के केन्द्र में चन्द्रमा हों तो भूकम्प हो, ऐसा कुछ भी देखने में नहीं आया। मैंने कई लोगों को इन दिनों कई ब्लॉग्स पर लिखते और विद्या विलास करते देखा है परन्तु किसी ने भी इस बात को ज्यादा नहीं उठाया है कि यह भूकम्प बिना ग्रहण के हुआ है।
चन्द्रमा: उस दिन चन्द्रमा वृषभ राशि में थे और जो कि चन्द्रमा की उच्च राशि है। चन्द्रमा अपने परमोच्च अंश पर सुबह 8.30 बजे के बाद आए हैं। उस समय सुपरमून की स्थितियां प्रारंभ हो चुकी थीं। 11 मार्च से शुरु करके और 19 मार्च को होने वाले सुपरमून में चन्द्रमा वृषभ से सिंह राशि में चुके थे और एक शानदार पूर्णिमा की ओर बढ़ रहे थे परन्तु सुपरमून के दिन चढ़ती हुई पूर्णिमा तक एक नई स्थिति चुकी थी जिसमें शनि और चन्द्रमा एक साथ युति कर रहे हं3 एवं सूर्य, बुध, गुरु और यूरेनस उनसे सातवें बैठे हैं तथा उनसे केन्द्र स्थान में राहु और प्लूटो तथा केतु हैं। सुपरमून के दिन नौ ग्रह (हर्षल, प्लूटो, नेपच्यून सहित) द्विस्वभाव राशियों में और एक दूसरे से केन्द्र स्थान में थे। मैं यह मानकर चल रहा हूं कि 11 मार्च को सुपरमून की तैयारी में ही इतने ग्रहों के सम्मिलित प्रभाव के कारण जापान के समुद्र में स्थित कुछ चट्टानें चन्द्रमा के आकर्षण बल के दबाव को नहीं झेल पाईं, जिसकी वजह से भूकम्प और उसके बाद कुछ देर में ही सुनामी की लहरें उठीं।
3 मई 1947 के दिन की जापान की बनी एक कुण्डली वर्तमान घटना को स्पष्ट करती है। यदि इस कुण्डली को प्रमाण माना जाए तो राहु महादशा, शनि न्तर्दशा, केतु प्रत्यन्तर, बुध सूक्ष्म दशा के मंगल, राहु और गुरु प्राण दशाओं में यह घटना आई। जापान की इस कुण्डली के चतुर्थ भाव में नेपच्यून हैं, दूसरे भाव में प्लूटो हैं और बारहवें भाव में यूरेनस हैं। आज की तारीख में गोचरीय वक्रीय शनि जापान के चतुर्थ भाव से विचरण कर रहे हैं।
निष्कर्ष: मेदिनी ज्योतिष के पुराने नियमों से जापान के इस भूकम्प और सुनामी के विश्लेषण में मदद नहीं मिल रही है और अधिक शोध की आवश्यकता है परन्तु जापान की प्रचलित दो-तीन कुण्डलियों में से इस घटना को खोजा जा सकता है।

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