Saturday, July 30, 2011

जीवन-शैली और संस्कृति जन्य रोग

विगत कुछ वर्षों में बढ़ते औद्योगीकरण तथा औद्योगिक रूप से उन्नत देशों और विकासशील देशों में जीवनशैली (जिसे पाश्चात्य संस्कृति के नाम से जाना जाता है) में बहुत परिवर्तन आया है।
जहां खाने-पीने के तरीकों में गिरावट, डिब्बा बंद खाने-पीने में बढ़ते टॉक्सिनों के आधिक्य, ऐन्टिबायोटिक्स दवाओं का अति उपयोग और नित्य नई एंटिबायोटिक्स का प्रयोग, अत्यधिक तनाव और भागदौड़ की जीवनचर्या में व्यायाम का अभाव आदि आम हो गया है, जिन्हें हम सभ्यताजन्य रोग कहते हैं। जैसे- कम उम्र में हार्ट-अटैक, डायबिटीज, चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, नपुंसकता, महिलाओं में मासिक स्राव का जल्दी बंद होना तथा लड़कियों में अनियमित मासिक स्राव और अनिद्रा आदि।
इन मामलों में सबसे बढिय़ा सलाह होगी कि आप सदैव ध्यान रखें कि आप क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं, कितनी बार खा रहे हैं, अपनी भूल पर नियंत्रण रखें, नियमित व्यायाम करें तथा तनाव-व्यवस्थापन (योग-मेडिटेशन) की विधियों का पालन करें जिससे स्वास्थ्य में सुधार हो और शरीर निरोगी रह सके।
आपकी जानकारी के लिए निम्न बिन्दुओं पर सूक्ष्म प्रकाश रूपी विवेचन किया गया है, जिसके बारे में आप समझ सके।
खानपान की गलत आदतें : भौतिकतावादी युग में बहुत से लोग समयाभा का बहाना बनाकर ऐसे खानपान क तरीके अपनाते हैं, जिनमें ज्यादा कैलोरी की खपत और असंतुलित शरीर पुष्टि होती है। डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बाजार के बने फास्टफूड पदार्थ, रेस्टोरेंटों पर बने खाने के फैशन और बढ़ते पशु मांस की खपत के कारण शरीर में ‘saturated fat’ तथा कॉलेस्ट्रोल का स्तर बढ़ता है, जो अनेकों रोगों का स्वत: आमंत्रण है।
ज्यादा रिफाइण्ड और तैयार भोजन के कारण प्राकृतिक विटामिन, खनिज पदार्थों (शरीर के लिए आवश्यक minerule) Sibers (cellulose) और अन्य लाभदायक पौष्टिक पदार्थों की शरीर में समुचित आपूर्ति नहीं हो पाती है। तात्कालिक जाँचों (Investigations) और अध्ययनों से पाया गया कि जिनके खानपान में सब्जियां, दालें, फलों, सलाद तथा ऑलिव तैल (परम्परागत तैलों) का उपयोग ज्यादा होता है, उन लोगों की आयु तथा स्वास्थ्य अपेक्षाकृत ज्यादा और बेहतर पाया गया है अत: स्वास्थ्य और आयु में बढ़ोत्तरी पराम्परागत भोजन शैली को अपनाने से होती है।
शरीर में अत्यधिक टॉक्सिनों की मौजूदगी : ज्यादातर डिब्बा बंद पदार्थों और फास्ट फूड़ में रंगने के पदार्थों व preservatives के कारण टॉक्सिनों का आधिक्य होता है। खाने में रंग और स्वाद के लिए मिलाए गए ज्यादातर पदार्थ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। प्रतिदिन इन toxins युक्त पदार्थों के खाने से शरीर में तनाव और Acidity (जलन) संबंधित टॉक्सिनों का निर्माण होता है तथा इनके साथ-साथ मदिरा (शराब) के सेवन, निकोटिन तथा कैफीन के उत्पादों का सेवन करने से इनसे शरीर में, इनसे संबंधित टॉक्सिन्स भी भेजते रहते हुए शरीर पर अत्याचार करते रहते हैं। वास्तव में आज के समाज में यह सब आम बात हो गई है कि हम लोग अपने शरीर में शारीरिक अंग-प्रदर्शन की परिव्यक्त (विसर्जित) करने की क्षमता से ज्यादा टॉक्सिन भरते जाते हैं, जिससे हमें जीवनशैली जन्य रोग होने लगते हैं। जैसे- विभिन्न प्रकार की त्वचा एलर्जी, अस्थमा, कैंसर तथा एस्ट्रोएन्ट्राइटिस समस्याएं आदि अत: ताजा और सुपाच्य पदार्थों का ही अपने परम्परागत तरीकों से उपयोग में लाना चाहिए।
बढ़ता शारीरिक अम्ल स्तर : हमारे शरीर का सामान्य स्तर 7.2 से 7.4 तक होता है, जोकि तनिक क्षारीय होता है। भोजन में अत्यधिक गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से पाचन तंत्र द्वारा पचाने हेतु अम्ल पैदा होता है। शरीर द्वारा इस अम्ल को फेफड़ों, किडनी और त्वचा के तन्तुओं द्वारा संतुलित किया जाता है। उग्र के बढऩे के साथ के साथ इस बढ़े हुए अम्ल को संतुलित करने की क्षमता कम होती जाती है। शरीर में बढ़े हुए अम्ल स्तर को शरीर के इन अंगों द्वारा संतुलन में शरीर से कैल्शियम और मैग्नीशियम और क्षारीय पदार्थों को सोखा जाता है, जिससे शरीर की साधारण पेशियों के कमजोर होने से हड्डियों के कमजोर होने तक के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। हड्डियों का खोखला होना (Osteopenia and Osteoporosis) प्रारंभ हो जाता है।
ज्यादा अम्ल (Hyperacidity) से जुड़े रोग जैसे - उच्च रक्तचाप और निम्न रक्तचाप (Low B.P.) , डायबिटीज, कॉलेस्ट्रोल और हृदय पेशियों के रोग आदि अत: इस प्रकार के क्लोसोफिल युक्त पदार्थों का अधिक उपयोग करना चाहिए। जिससे शरीर का क्क॥ लेवल संतुलित रहकर इन बीमारियों स निजात पाई जा सके।
एन्टिबायोटिक्स और दवाईयां : आए दिन पुरानी एन्टीबायोटिक्स दवाईयों के प्रति रोगकारक जीवाणुओं में उत्पन्न प्रतिरोधक क्षमता के कारण शरीर में रोगों के प्रति इनकी क्रियाशीलता का स्तर गिरता जा रहा है, अत: नई उच्चस्तरीय (High dose) एन्टीबायोटिक्स के प्रयोग के कारण लीवर, आमाशय, आमाशय के अम्लीय स्तर तथा रोगकारक जीवाणुओं के साथ शरीर के लिए लाभदायक जीवाणुओं के नष्ट करने जैसे प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ रहे हैं जिससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता का शनै: शनै: ह्रास होता जा रहा है अत: इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए आयुर्वेद और प्राकृतिक जीवनशैली का सहारा लेना चाहिए।
तनाव और उच्च रक्तचाप : काम, भागदौड़ भरी जीवनचर्या और सामाजिक दायित्वों से उत्पन्न तनाव हमारे शरीर के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है। ज्यादा तनाव से मस्तिष्क के कुछ हिस्सों में प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। जिसके कारण शरीर के अन्य अंगों और पेशियों में अनावश्यक संदेश impulse जाते हैं। हमारे शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है कि हम किस हद तक तनाव और उससे उत्पन्न impulses को बिना बीमार पड़े सहनकर सकें। जब हमें डर या कोई मानसिक आघात लगता है तो हम प्राय: बीमार पड़ जाते हैं और हमारा शरीर इमरजेन्सी की परिस्थिति में चला जाता है जिसमें हमारे शरीर की ग्रंथियां, स्नायु तंत्र, मस्तिष्क का हाइपोथैलेगिक भाग और हाथ-पैर आदि प्रभावित होते हैं। कई लोग इस तथ्य को मानकर तनाव व्यस्थापन (योग व मेडिटेशन) कर लेते हैं।
व्यायाम का अभाव : हममें से हर कोई एक व्यस्त पेशेवर और सामाजिक जीवन जीता है। इसमें से ज्यादातर लोग आजकल व्यायाम तक नहीं कर पाते हैं, पर अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में शरीर में सुस्ती, मोटापा, आन्त्र रोग, हृदय के रोग, कॉलेस्ट्रोल का बढऩा, किडनी रोग और अन्य कई रोगों का शिकार बनना पड़ता है। व्यायाम आदि करने से शरीर तन्दुरुस्त रहता है जिससे शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है, और स्वस्थ्य जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
कीटनाशकों और वनस्पतिनाशकों का अत्यधिक प्रयोग : आजकल कृषि उत्पादकों क अत्यधिक पैदावार, साग-सब्जियों पर लगने वाले कीटों, चूहों तथा अनचाही वनस्पतियों (खरपतवार) के नाश के लिए विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है जिसके कारण इनके खाने और पीने के पानी आदि पदार्थों में सम्मिश्रण के कारण लोगों को इनके दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है। इनके दुष्प्रभावों से जननीय इन्द्रियों तथा ग्रंन्थियों के तंत्रों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके अलावा त्वचा पर फफोले, लाल चकत्ते और जलन, आँखों, नाक व मुंह का जलना, फूलना, उल्टी का मन होना, दस्त लगना, अंगों का सुन्नपन होना, थकान और सिरदर्द जैसे कष्टों का सामना करना पड़ता है।

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