Saturday, August 21, 2010

कृष्ण

शायद भारत के सबसे अधिक पूजे जाने वाले कृष्ण का चरित्र अत्यन्त रहस्यमय बताया गया है। यद्यपि उनका हर कर्म सार्वजनिक है और उनके द्वारा दिया गया गीता का दर्शन संसार के अद्भुत दर्शनों में माना गया है। वे ऎसे अवतार बताए गए हैं जिन्होंने अपनी लीलाओं का प्रदर्शन बचपन से ही करना शुरू कर दिया था।
उत्पत्ति: कृष्ण को लेकर ब्रrावैवर्तपुराण और गर्गसंहिता में प्रमाणिक उल्लेख मिलते हैं। गर्ग यादव कुल के आचार्य थे। विक्रमादित्य के नवरत्न वराहमिहिर ने अपने लेखन कार्य में महर्षि गर्ग का उल्लेख बार-बार किया है। ब्रrावैवर्तपुराण में सृष्टि की उत्पत्ति का कारण कृष्ण को माना गया है। इस पुराण में उनके रूप और उनसे उत्पन्न सभी जीवों का वर्णन किया गया है। ब्रrावैवर्तपुराण पढ़ने के बाद यह लगता है कि वे ही ईश्वर हैं और अन्य सभी कुछ उन्हीं से उत्पन्न हुआ है।
कृष्ण के संबंध: कृष्ण के जो संबंध बताए गए हैं उनमें मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, बृज के अन्य क्षेत्र, द्वारिका के अतिरिक्त पाण्डवों से जु़डे हुए महत्व के सभी स्थान जैसे कि कुरूक्षेत्र या हस्तिनापुर इत्यादि अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। गौलोक से पृथ्वी पर अवतरित सभी ऋषि-मुनि व गोपियां भी कृष्ण से अनन्य भाव से संबंधित मानी गई हैं।
ज्योतिष में कृष्ण:
ज्योतिषशास्त्र मे कृष्ण को ज्ञात अज्ञात रूप से कई तरीके से जाना जाता है। महाभारत में भगवान कृष्ण ने ज्योतिष का खुलकर प्रयोग किया था। महाभारत का मुहूर्त, वनवास के बाद पाण्डवों के पुन: प्रकट होने पर वनवास अवधि को लेकर हुई बहस, जयद्रथ वध में सूर्य ग्रहण का ज्ञान, पाण्डवों के लिए बनवाए महल में वास्तु, आचार्य मयासुर को निमंत्रण, शक्रध्वज (अर्जुन के रथ में ध्वज प्रयोग) जैसी अनेक परिस्थितियां हैं जिनमें ज्योतिष का प्रयोग भगवान कृष्ण द्वारा जीत के लिए किया गया है।
चन्द्रमा और कृष्ण: चन्द्रमा से कृष्ण का संबंध बहुत घनिष्ठ रूप से माना गया है। कृष्ण जिस मोरपंख का प्रयोग करते हैं उसमें चन्दूला (जिसमें अग्रभाग में चन्द्रमा जैसी गोल आकृति होती है) सर्वप्रमुख है। भगवान कृष्ण का जन्म भाद्रपद मास की जिस अष्टमी को हुआ था, उस दिन रोहिणी नक्षत्र था अर्थात् चन्द्रमा रोहिणी के नक्षत्र में गोचर कर रहे थे। अत: भगवान कृष्ण का जन्म चन्द्रमा के नक्षत्र में हुआ था। हम सभी जानते हैं कि चन्द्रमा के कुल मिलाकर तीन नक्षत्र हैं- रोहिणी, हस्त एवं श्रवण। ज्योतिष में मान्यता है कि इन तीनों नक्षत्र में जो जन्म लेता है, वह कृष्ण भक्त हो जाता है। उसकी जीवनभर कुछ भी मान्यताएं चलें आखिर में वह कृष्ण भक्ति की ओर मु़डता है। उच्चा के चंद्रमा या कर्क राशि के चन्द्रमा या पूर्ण चन्द्र के दिन जिसका जन्म हो वह आवश्यक रूप से कृष्ण भक्ति में लीन हो जाता है। चन्द्रमा की 27 नक्षत्र पत्नियां जो कि दक्ष प्रजापति की पुत्रियां थीं, में से सबसे अधिक प्रिय रोहिणी थीं जिनको लेकर चन्द्रमा श्रापित भी हुए परन्तु भगवान कृष्ण ने रोहिणी नक्षत्र मे जन्म लेकर इसे अत्यन्त महत्व प्रदान कर दिया।
कृष्ण और संतान प्राप्ति: संतान प्राप्ति के जितने भी उपाय ज्योतिष में बताए गए हैं, उनमें चन्द्रमा या कृष्ण से संबंधित बातें अवश्य आती हैं। संतानोत्पत्ति के जितने भी फार्मूले हैं, उनमें कृष्ण की भक्ति प्रमुखता से बताई गई है। आयुर्वेद में भी कृष्ण के पूजा-पाठ के अलावा जिन औषधियों की चर्चा है, उनमें चन्द्रमा के नक्षत्र प्रमुख हैं। मयूर पंख भस्म को पुत्रोत्पत्ति के संदर्भ में प्रयोग लिया जाता है। इस प्रयोग में चन्दूला ही काम में लिया जाता है।
कृष्ण चन्द्रमा से पीç़डत भी हुए। चौथ के चन्द्रमा का कलंक भगवान कृष्ण पर भी लगा। वह इतना प्रसिद्ध हुआ कि सुन्दरकाण्ड में तुलसीदासजी ने भी उसकी चर्चा की है।
ज्योतिष के योग: ज्योतिष के अधिकांश योगों में जिनमें चन्द्रमा के श्रेष्ठ हो जाने के फल हैं या चन्द्रमा के कारण योग के बनने के फल हैं उनमें व्यक्ति के जीवन मे कृष्ण भक्ति की प्रधानता आती है। रोहिणी नक्षत्र से 180 पर स्थित नक्षत्र ज्येष्ठा का संबंध कृष्ण व बलराम से जो़डा गया है। रोहिणी का उत्तरार्द्ध और ज्येष्ठा का प्रथमार्द्ध कृष्ण या बलराम में भक्ति उत्पन्न करने वाले माने गए हैं।
जन्म चक्र: जन्म चक्र में केन्द्र और त्रिकोण को विष्णु और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। दोनों के संबंध होने मात्र से राजयोगजनित लक्ष्मी का उद्भव माना गया है। स्वर्गलोक में इस लक्ष्मी को स्वर्ग लक्ष्मी कहा गया है तथा राजाओं के यहां वे राजलक्ष्मी कहलाती हैं। जन्म चक्र में केन्द्र और त्रिकोण को लक्ष्मी और विष्णु के रूप में इसीलिए प्रतिपादित किया गया है क्योंकि राजाओं से आश्रय प्राप्त ज्योतिष मनीषियों ने राजयोग व राजलक्ष्मी का बहुत अधिक वर्णन किया है।
ब्रrावैवर्त पुराण के ब्रrाखण्ड में श्रीकृष्ण से नारायण, महादेव, ब्रrाा, धर्म, सरस्वती, महालक्ष्मी और प्रकृति (दुर्गा) का प्रादुर्भाव माना गया है और उन्होंने उत्पत्ति के बाद कृष्ण की स्तुति की है।
कृष्ण से उत्पन्न ब्रrाा इत्यादि ने आगे चलकर ब्रrााण्ड की रचनाएं की हैं और अपनी मानसी सृष्टि को स्वरूप दिया है।
कृष्ण और द्वादश आदित्य: सूर्य के बारह स्वरूपों को द्वादश आदित्य के नाम से प्रसिद्धि मिली है। ये विभिन्न काल में हुए और उन्हें अलग-अलग कारणों से अलग-अलग नाम दिए गए। महाभारत के आदिपर्व में धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरूण, अंश, भग, वैवस्वान, पूषा, सविता, त्वष्टा और बारहवें विष्णु कहे गए। वास्तु चक्र और सर्वतोभद्र, लिङग्तोभद्र जैसे मंडलों मे विष्णु की प्रतिष्ठा है। यही विष्णु आधुनिक सूर्य कहे गए हैं और इंद्र से कनिष्ठ होते हुए यह द्वादश आदित्य आज सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। हम जानते हैं कि कृष्ण और विष्णु का परस्पर संबंध है।
तदेवं भगवान् भास्वान् वेदात्मा वेदसंस्थित:।
वेदविद्यात्मकश्चैव पर: पुरूष उच्यते
मार्कण्डेयपुराण में कहा गया है कि यह भगवान भास्कर, ब्रrाा, विष्णु, रूद्र बनकर सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं, अत: आदित्य और कृष्ण में संबंध स्थापित होता है और आदित्य को ज्योतिष और जन्मचक्र में सबसे अधिक प्रधानता मिली है। कलियुग मे इसीलिए कृष्ण को सबसे अधिक मान्यता मिली। इस्कॉन जैसे संगठनों ने कृष्ण को सारे विश्व में महिमामंडित किया है।
कृष्ण की पृथ्वी पर अवधि: ब्रrावैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड में यह विवरण मिलता है कि सरस्वती, गंगा और पद्मावती अपने नदी रूप का परित्याग करके बैकुण्ठ चली जाएंगी। कलि के पांच हजार वर्ष बीतने पर काशी तथा वृन्दावन के अतिरिक्त प्राय: सभी तीर्थ भगवान श्रीहरि की आज्ञा से, उन देवियों के साथ बैकुण्ठ चले जाएंगे। सालिगराम श्रीहरि की मूर्ति व भगवान जगन्नाथ कलि के दस हजार वर्ष बीतने पर भारत वर्ष को छो़डकर अपने धाम को पधारेंगे। इसके साथ ही साधु, पुराण, शंख, श्राद्ध, तर्पण, वेदोक्त कर्म, देव पूजा, देवनाम, देवताओं के गुणों का कीर्तन, वेद शास्त्र, पुराण, संत, सत्य, धर्म, ग्राम देवता, व्रत, तप और उपहास ये सब भी इस भारत से चले जाएंगे अर्थात् लोगों की श्रद्धा इनमें नहीं रहेगी। कलियुग मे बहुत बाद में भगवान नारायण के अंश के रूप में विष्णु यशा नामक ब्राrाण के घर से भगवान कल्कि के अवतार की कामना की गई है। पृथ्वी की शुद्धि के बाद वे पुन: अंतध्र्यान हो जाएंगे।
श्रीकृष्ण के अंश: ब्रrाा, शिव, शेष, गणेश, कूर्म, धर्म, नारायण, नर और कार्तिकेय, ये सब कृष्ण के नौ अंश माने गए हैं। कृष्ण या विष्णु और शिव दोनों से ही नाग का संबंध माना गया है। संभवत: सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय दोनों में ही नाग की अनिवार्यता मानी गई है। नाग या सर्पगति का समीकरण माया की उत्पत्ति से किया जा सकता है। अगर सर्पगति है तो ही सृष्टि की उत्पत्ति है। सृष्टि के संहार के बाद सर्पगति समाप्त हो जाती है इसीलिए भारतीय वाङग्मय में सर्प को अत्यधिक प्रतिष्ठा मिली है। कद्रू पत्नी नाग माता पृथ्वी पर रोहिणी के रूप में प्रकट हुई थीं। इन्हीं रोहिणी के उदर मे देवकी का सातवां गर्भ योगमाया ने कृष्ण की आज्ञा से स्थापित कर दिया था।

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