Saturday, July 30, 2011
हमने कहा था ...
1. इस समय भारत राहु अन्तर्दशा में चल रहा है जो कि सितम्बर 2011 तक है। राहु स्वयं भी कृत्तिका नक्षत्र में स्थित हैं जो कि सूर्य का नक्षत्र है। इस अन्तर्दशा में शासक गणों में भारी गतिरोध, वैमनस्य, प्रतिहिंसा और संदेह का वातावरण रहेगा। शासक वर्ग से जुड़े मंत्री और अधिकारियों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां और कानूनी कार्यवाहियां होंगी। सूर्य स्वयं आश्लेषा नक्षत्र के हैं और वर्ष के प्रारंभ में ही अस्तंगत मंगल मिथुन राशि में होने के कारण आर्थिक घोटालों में लिप्त शासक वर्ग के बहुत सारे लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही संभावित है। सरकार कितना ही बचाने की कोशिश कर लें, कानून अपना काम करेगा।
2. शनि के वक्री होते ही अर्थात् 29 जनवरी के बाद प्रमुख घोटालों के आरोपी कानूनी कार्यवाहियों के शिकार होने लगेंगे, इस बारे में रोज नया समाचार सुनने को मिलेगा। किसी बड़े अधिकारी या नेता की आत्महत्या या कोई अन्य दुर्घटना संभावित है।
2G घोटाले के मुख्य आरोपी दूरसंचार मंत्री राजा और उनके सहयोगियों पर सीबीआई ने शिकंजा कँसा और उन्हें सलाखों के पीछे भेज दिया। इसी तरह करुणानिधि की सुपुत्री कन्नीमोझी को भी तिहाड़ जेल का सफर तय करना पड़ा। कॉमनवैल खेलों के मुख्य आरोपी सुरेश कलमाड़ी के खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही करने को सरकार मजबूर हो गई। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री डोर्जी खाण्डू का हैलीकॉप्टर दुर्घटना में देहांत हो गया।
3. कर्क लग्न की श्रीमती सोनिया गांधी की कुण्डली में फरवरी से जून तक का समय विशेष है जब राहुल गांधी के द्वारा कही गई कुछ बातों की विशेष चर्चा होगी।
आपको याद होगा कि मायावती ने राहुल गांधी को गिरफ्तार करके देश में सनसनी सी फैला दी थी। किसानों के हित में राहुल गांधी की आवाज को मायावती ने कुचलने की कोशिश की। 19 जून यानि राहुल गांधी के जन्मदिन से यह चर्चा अचानक तेज हो गई कि क्या वही हैं भारत के अगले प्रधानमंत्री।
4. दूरसंचार घोटाले के मुख्य आरोपी राजा और नीरा राडिया सहित 10-12 अन्य व्यक्ति और व्यावसायिक घरानों के विरुद्ध सीबीआई अपनी पूरी कानूनी कार्यवाही करेगी। इनको बचाया जाना संभव नहीं है। कांग्रेस सरकार इनकी आसानी से बलि दे देगी।
घोटालों के मुख्य आरोपियों के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट ला रही है। कोर्ट जमानत अर्जियाँ खारिज कर रही है और सरकार देख रही है। गठबंधन को खतरा होते हुए भी सरकार ने कुछ मुख्य नामों को बचाने में रुचि नहीं दिखाई और जैसा हमने कहा था कांग्रेस सरकार ने इनकी आसानी से बलि दे दी।
5. बृहस्पति प्रत्यन्तर 4 फरवरी तक है। भारत की कुण्डली में बृहस्पति सबसे कम षड्बल के हैं और अष्टमेश होकर छठे भाव में बैठे हैं। इस समय भयंकर राजनैतिक और आर्थिक गतिरोध रहेंगे और सरकार को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। केन्द्र सरकार का किया गया कोई भी उपाय जनता को विश्वास नहीं दिला पाएगा। इसी अवधि में शेयर मार्केट में भारी हलचल रहेगी, निवेशक सावधान रहें।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के अनशन ने जहाँ सरकार की नींद उड़ा दी, वहीं रामलीला मैदान में रामदेव और उनके आंदोलनकारियों पर की गई कार्यवाही से सरकार के खिलाफ जनता में आक्रोश पैदा हुआ। सरकार को अपना चेहरा बचाने के लिए सफाई देनी पड़ी।
2. शनि के वक्री होते ही अर्थात् 29 जनवरी के बाद प्रमुख घोटालों के आरोपी कानूनी कार्यवाहियों के शिकार होने लगेंगे, इस बारे में रोज नया समाचार सुनने को मिलेगा। किसी बड़े अधिकारी या नेता की आत्महत्या या कोई अन्य दुर्घटना संभावित है।
2G घोटाले के मुख्य आरोपी दूरसंचार मंत्री राजा और उनके सहयोगियों पर सीबीआई ने शिकंजा कँसा और उन्हें सलाखों के पीछे भेज दिया। इसी तरह करुणानिधि की सुपुत्री कन्नीमोझी को भी तिहाड़ जेल का सफर तय करना पड़ा। कॉमनवैल खेलों के मुख्य आरोपी सुरेश कलमाड़ी के खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही करने को सरकार मजबूर हो गई। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री डोर्जी खाण्डू का हैलीकॉप्टर दुर्घटना में देहांत हो गया।
3. कर्क लग्न की श्रीमती सोनिया गांधी की कुण्डली में फरवरी से जून तक का समय विशेष है जब राहुल गांधी के द्वारा कही गई कुछ बातों की विशेष चर्चा होगी।
आपको याद होगा कि मायावती ने राहुल गांधी को गिरफ्तार करके देश में सनसनी सी फैला दी थी। किसानों के हित में राहुल गांधी की आवाज को मायावती ने कुचलने की कोशिश की। 19 जून यानि राहुल गांधी के जन्मदिन से यह चर्चा अचानक तेज हो गई कि क्या वही हैं भारत के अगले प्रधानमंत्री।
4. दूरसंचार घोटाले के मुख्य आरोपी राजा और नीरा राडिया सहित 10-12 अन्य व्यक्ति और व्यावसायिक घरानों के विरुद्ध सीबीआई अपनी पूरी कानूनी कार्यवाही करेगी। इनको बचाया जाना संभव नहीं है। कांग्रेस सरकार इनकी आसानी से बलि दे देगी।
घोटालों के मुख्य आरोपियों के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट ला रही है। कोर्ट जमानत अर्जियाँ खारिज कर रही है और सरकार देख रही है। गठबंधन को खतरा होते हुए भी सरकार ने कुछ मुख्य नामों को बचाने में रुचि नहीं दिखाई और जैसा हमने कहा था कांग्रेस सरकार ने इनकी आसानी से बलि दे दी।
5. बृहस्पति प्रत्यन्तर 4 फरवरी तक है। भारत की कुण्डली में बृहस्पति सबसे कम षड्बल के हैं और अष्टमेश होकर छठे भाव में बैठे हैं। इस समय भयंकर राजनैतिक और आर्थिक गतिरोध रहेंगे और सरकार को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। केन्द्र सरकार का किया गया कोई भी उपाय जनता को विश्वास नहीं दिला पाएगा। इसी अवधि में शेयर मार्केट में भारी हलचल रहेगी, निवेशक सावधान रहें।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के अनशन ने जहाँ सरकार की नींद उड़ा दी, वहीं रामलीला मैदान में रामदेव और उनके आंदोलनकारियों पर की गई कार्यवाही से सरकार के खिलाफ जनता में आक्रोश पैदा हुआ। सरकार को अपना चेहरा बचाने के लिए सफाई देनी पड़ी।
क्या राहु दशा का है इंतजार? - 4
बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं और उन्हें ब्रह्मा की सभा में बैठने का अधिकार है। उनका शौक ब्राह्मण जैसा हैं, उन्हें पवित्र व दैवीय गुणों से युक्त माना जाता है। वे शिक्षक हैं, उपदेशक हैं और धर्म-कर्म इत्यादि के प्रवक्ता हैं। सभी गुरुओं में, धर्माचार्यों में, न्यायाधीशों में, अमात्य व मंत्रियों में और वित्त से संबंध रखने वाले व्यक्तियों में बृहस्पति का अंश है। ये ज्ञान और सुख स्वरूप हैं, गौर वर्ण हैं, इनके प्रत्यधि देवता इन्द्र हैं और इन्हें पुरुष ग्रह माना जाता है। इनकी सत् प्रकृति, विशालदेह, पिंगल वर्ण केश और नेत्र, कफ प्रकृति, बुद्धिमान और सभी शास्त्रों के ज्ञाता हैं। शरीर में वसा या चर्बी पर इनका अधिकार है। मधुर वस्तुओं पर उनका अधिकार है। संसार भर के कोष पर उनका अधिकार है। पूर्व दिशा में बलवान हैं तथा यदि दिन में जन्म हो तो यह अधिक शक्तिशाली माने गए हैं। फल वाले वृक्षों को भी बृहस्पति उत्पन्न करते हैं। गुरु के वस्त्र पीले हैं और हेमन्त ऋतु पर इनका अधिकार माना गया है। इन्हें कर्क राशि में उच्च का, मकर राशि में नीच का और धनु राशि में मूल त्रिकोण का माना गया है। ग्रहमण्डल में सूर्य, चंद्रमा और मंगल इनके मित्र माने गए हैं। शनि सम माने गए हैं और बुध शत्रु माने गए हैं।
जन्मपत्रिका में बृहस्पति की दो राशियां मानी गई हैं - धनु तथा मीन। धनु राशि को पृष्ठोदयी माना गया है। यह राशि अपने अंतिम रूप में परिणाम देती है। इस राशि में पिंगल वर्ण, रात्रि में बलवान, अग्नि तत्व, क्षत्रिय स्वभाव, धनुषधारी, पूर्व दिशा में बसने वाली, भूमि पर भूचारी और तेजस्वी माना गया है। इस राशि में प्रशासनिक लक्षण हैं और अत्यंत ऊर्जावान है। बृहस्पति की ही दूसरी राशि मीन है। ऐसे दो मछलियां जिनके मुंह एक-दूसरे की पूंछ की तरह हैं। ये राशि दिन में बलवान होती है। इस राशि से प्रभावित लोग जल में या जल के आसपास में होते हैं। ब्राह्मण राशि मानी गई है।
खगोलशास्त्र की दृष्टि से बृहस्पति बहुत बड़े ग्रह हैं और उन पर एक बड़ा गड्ढा है जिसमें हमारी पांच पृथ्वी समा जाएं। बृहस्पति में अमोनिया गैस बहुत ज्यादा पाई जाती है जिसके कारण यह बहुत शीतल है। जब किसी ग्रह पर बृहस्पति की दृष्टि होती है तो सारे दोष दूर हो जाते हैं और इनकी दृष्टि को अमृत माना गया है। जिस भाव को बृहस्पति दृष्टि कर लेते हैं उस भाव में शुभत्व आ जाता है और उस भाव की रक्षा होना माना गया है। बृहस्पति को पुत्र का कारक माना गया है। जन्मपत्रिकाओं में बृहस्पति से पुत्र के शुभ-अशुभ देखे जाते हैं। बृहस्पति हर लग्न के लिए शुभफल नहीं देते। सामान्य रूप से बृहस्पति की महादशा में नवीन वस्त्र की प्राप्ति होती है। नौकर-चाकर और परिवार के लोगों में वृद्धि होती है, पुत्र की प्राप्ति होती है, धन व मित्रों में वृद्धि होती है, प्रशंसा मिलती है, श्रेष्ठ व्यक्तियों से सम्मान प्राप्त होता है परंतु गुरुजनों का, पिता आदि का वियोग सहना पड़ता है। कफ रोग होते हैं और कान से संबंधित समस्याएं आती हैं।
बृहस्पति को 2, 5, 9, 10 और 11वें भाव का स्थिर कारक माना गया है। आमतौर से अपने ही भाव में कारक को अच्छा नहीं माना गया है परंतु दूसरे भाव में बृहस्पति को लाभ देने वाला माना गया है।
प्रत्येक लग्र के लिए बृहस्पति का शुभ-अशुभ: मेष लग्न में बृहस्पति योगकारक हैं। वृषभ व मिथुन लग्न के लिए पाप फल देते हैं। कर्क, सिंह लग्न के लिए बृहस्पति शुभ फलदायी हैं परंतु कन्या और तुला लग्न के लिए अशुभ फलदायी होते हैं। वृश्चिक लग्न के लिए बृहस्पति शुभफल देने वाले, धनु लग्न के लिए सम, मकर और कुंभ लग्न के लिए पाप फल देने वाले और मीन लग्न के लिए शुभफल माने गए हैं।
बृहस्पति जन्मपत्रिका में जब वक्री होते हैं तब अत्यंत शक्तिशाली परिणाम देते हैं। आमतौर से बृहस्पति अपनी सोलह वर्ष की दशा भोगने के बाद ही पूरे परिणाम देते हैं और जिस भाव के अधिपति होते हैं उसका तो निश्चित परिणाम देते हैं। जिस भाव पर इनकी दृष्टि हो, उस भाव के भी शुभ परिणाम देेते हैं। दैनिक भ्रमण में भी बृहस्पति जिस-जिस भाव पर दृष्टि करते हुए चलते हैं उस भाव के शुभ परिणामों में वृद्धि हो जाती है। जिस भाव के स्वामी के साथ बृहस्पति युति कर रहें हो तो उस भाव के स्वामी के भी शुभफल आना शुरु हो जाते हैं। बृहस्पति अस्त होते हैं तो अशुभ परिणाम देते हैं। जन्मपत्रिका में अस्त होने से शरीर में वसा संबंधी विकृतियां आती हैं और आमतौर से पेट और लीवर इत्यादि प्रभावी होते हैं। बृहस्पति जब आकाश में अस्त चल रहे होते हैं तो मुहूर्त नहीं निकाले जाते। मूल जन्मपत्रिका में भी यदि बृहस्पति अस्त हो गए हों तो विवाह में शुभ नहीं माने जाते हैं। कन्याओं की जन्मपत्रिकाओं में बृहस्पति को विवाह का कारक माना जाता है और इनका अस्त होना अच्छा नहीं माना जाता। मंगल और बृहस्पति का जन्मपत्रिका में परस्पर संबंध भी शुभ नहीं माना जाता।
बृहस्पति जिस भाव में बैठे होते हैं उसी भाव की चिंता कराते हैं। सप्तम भाव में स्थित बृहस्पति विवाह के लिए शुभ नहीं माने जाते हैं। या तो यह विवाह होने नहीं देते या विवाह को टिकने नहीं देते। पंचम भाव में स्थित बृहस्पति अधिकांश राशियों में कन्या अधिक देते हैं और पुत्र कम देते हैं।
यदि बृहस्पति जन्मपत्रिका में अस्त या वक्री हों तो मोटापे से संबंधित दोष आते हैं और पाचन तंत्र के विकार परेशान करते हैं। जब-जब गोचर में बृहस्पति लग्न, लग्नेश तथा चंद्र लग्न को देखते हैं तो वजन बढऩे लगता है क्योंकि खानपान का स्तर उच्चकोटि का रहता है। बृहस्पति जब-जब बलवान होंगे, गरिष्ठ भोजन करने को मिलेगा और सभाओं में और दावत में जाने का अवसर मिलता रहेगा।
बृहस्पति अपनी दशाओं में व्यक्ति को लेखक बनाते हैं, धार्मिक बनाते हैं, व्यक्ति की प्रसिद्धि कराते हैं और लोग व्यक्ति से सलाह लेने आते हैं। व्यक्ति की मित्रता राज्य के अधिकारियों से होती है और वह बड़े लोगों की संगत में बैठता है। बृहस्पति ज्ञान में वृद्धि करते हैं, यज्ञ-हवन कराते हैं और शरीर व मस्तिष्क पर तेज आता है। यदि जन्मकाल में बृहस्पति केन्द्र में उच्च या स्वराशि में होकर बैठ जाएं तो हंसयोग बनाते हैं जिसमें व्यक्ति महान होता चला जाता है। यदि चंद्रमा से केन्द्र में बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग बनता है जिसके प्रभाव में व्यक्ति समाज में ऊंचा उठता हुआ चला जाता है। हंसयोग में जन्मे व्यक्ति के हाथ व पैरों में शंख, कमल आदि के चिन्ह मिलते हैं। सौम्य शरीर होता है, उत्तम भोजन करने वाला होता है और लोग उसकी प्रशंसा करते हैं।
बृहस्पति के बारे में कुछ विशेष : यदि नीच राशि के हों, अस्तंगत हों, लग्न से 6, 8, 12 में हों, शनि, मंगल से दृष्ट हों या युत हों तो अपने करीबी लोगों से और सरकार से कलह होती है, चोर से कष्ट होता है, माता-पिता के लिए हानिकारक है, मानहानि होती है, राजभय होता है, धन नाश होता है, विष से या सर्प से या ज्वर से पीड़ा होती है और खेती और भूमि की हानि होती है।
यदि महादशानाथ से बृहस्पति केन्द्र-त्रिकोण में हों या 11वें भाव में हों और षड्बल से युक्त हों तो बंधुओं से और पुत्र से सुख होता है, उत्साह होता है, धन, पशु और यश की वृद्धि होती है और अन्न इत्यादि का दान करते हैं। आजकल पशुओं की जगह कारें आ गई हैं। यदि महादशानाथ से 6, 8, 12 में स्थित बृहस्पति निर्बल हो जाएं तो दु:ख, परेशानियां, रोग, भय, स्त्री और बंधु से द्वेष होता है, बहुत ज्यादा खर्चा होता है, राजकोप होता है, धन हानि होती है और ब्राह्मण से भय होता है। बृहस्पति यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हों या दूसरे और सातवें भाव में हों तो कष्ट होता है।
बृहस्पति के दोषों के निवारण के लिए शिव सहस्त्र नाम जप, गऊ और भूमि का दान तथा स्वर्ण दान करने से अरिष्ट शांति होती है।
गजकेसरी योग: चन्द्रमा से केन्द्र में यदि बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग होता है। गजकेसरी योग में व्यक्तिमें गज और केसरी दोनों के गुण आते हैं। हाथी जैसा बल और सिंह जैसा चातुर्य दोनों जिसमें हों वह व्यक्ति धीरे-धीरे जीवन में प्रगति करता है और सबसे ऊपर उठ जाता है परन्तु इस योग में भी बहुत सारे स्तर हैं। जैसे- अष्टम में चंद्रमा हों और तब उससे गजकेसरी योग बने तो कमजोर हो जाता है। इसी प्रकार बृहस्पति 6, 8, 12 भाव में बैठकर चंद्रमा से गजकेसरी योग बनाएं तो कमजोर हो जाता है।
यदि चंद्रमा अपनी ही राशि में हों और उसी में बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग बहुत शक्तिशाली होगा परन्तु यही योग यदि लग्न में हो तो वह योग और भी शक्तिशाली हो जाएगा। केन्द्र में कर्क राशि में बनने वाला गजकेसरी योग सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि केन्द्राधिपति दोष न होने पर भी लग्नेश चंद्रमा लग्न में हों तो सबसे अधिक शक्तिशाली होते हैं। यहां पर बृहस्पति नवमेश भी होने के कारण भाग्येश हुए और व्यक्ति के जीवन में बहुत उन्नति देखने को मिलेगी। एक अन्य शक्तिशाली स्थिति है जिसमें कर्क राशि पंचम भाव में हो और बृहस्पति दूसरे भाव में हों। यह दोनों अत्यन्त शक्तिशाली स्थितियां हैं। एक अन्य परिस्थिति है जिसमें चंद्रमा धनु लग्न में हों और बृहस्पति मीन राशि में हों। यह भी अतिशक्तिशाली योग है परन्तु इनमें से एक भी ग्रह खराब भाव में चला गया तो गजकेसरी योग में कमी आ जाती है। गजकेसरी योग अन्य जिन बातों के कारण कमजोर होता है उनमें बृहस्पति और चंद्रमा का केन्द्राधिपति दोष से पीडि़त होना, चंद्रमा का क्षीण होना तथा चंद्रमा या बृहस्पति का नीच राशि, शत्रु राशि, नीच नवांश, अस्तंगत होना या पापकर्तरि में होना शामिल है। गजकेसरी योग बलवान हो जाता है यदि योग बनाने वाले ग्रह उत्तम वर्गों में हों या शुभ ग्रहों से दृष्ट हों या युत हों तथा चंद्र और बृहस्पति षड्बल से युक्त हो जाएं। दो गजकेसरी योगों के फलों में 1 और 100 का अनुपात हो सकता है।
स्त्री जातक और बृहस्पति: स्त्रियों के गुण-अवगुणों का पता लगाने के लिए त्रिंशांश कुण्डली का प्रयोग किया जाता है। त्रिंशांश कुण्डली में मंगल और शनि के त्रिंशांश बहुत ही खराब माने गए हैं परन्तु यदि बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो वह स्त्री बहुत गुणी मानी जाती है। चंद्रमा, शुक्र और बुध के त्रिंशांश में भी दोष बताए गए हैं परन्तु किसी भी लग्न में लग्नेश या ग्रह बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो वह स्त्री अत्यन्त गुणवती मानी गई है। बृहस्पति एकमात्र ऐसे ग्रह हैं जो किसी भी राशि में हों, अगर कोई ग्रह बृहस्पति के त्रिंशांश में पड़ जाए तो उसे शुद्ध, पवित्र और मंगलकारी माना गया है।
वेद आदि का ज्ञान: यदि लग्न समराशि हो और बृहस्पति बलवान हों तो स्त्री शास्त्रों में निपुण और वेदों के अर्थ को जानने वाली होती है।
विवाह लग्न: विवाह लग्न में यदि बृहस्पति हों तो वह स्त्री धनवान हो जाती है और पति का सुख मिलता है। यदि विवाह लग्न से तीसरे में बृहस्पति हों तो वह स्त्री संतान वाली और धनवान हो जाती है। यदि विवाह लग्न से पांचवें स्थान में बृहस्पति हों तो कई पुत्र होते हैं। विवाह लग्न से सातवें बृहस्पति शुभ नहीं माने गए हैं और न ही आठवें भाव में शुभ माने गए हैं। विवाह लग्न से दसवें भाव में बृहस्पति, स्त्री को धार्मिक बनाते हैं।
दशम भाव और बृहस्पति: किसी भी भाव से बृहस्पति यदि दशम भाव को देखें तो कितने भी अरिष्ट हों, शांत हो जाते हैं। राजा से या नियोक्ता से या पिता से लाभ होता है, समाज में सम्मान बढ़ता है। केवल लग्न से छठे बृहस्पति की निंदा की गई है क्योंकि वे व्यक्ति को ऋणग्रस्त कराते हैं।
बृहस्पति का दशाक्रम: बृहस्पति अपनी महादशा में शुभ फल करेंगे यदि वे लग्न, पंचम, नवम, चतुर्थ या दशम के स्वामी हों। यदि केन्द्र के स्वामी हों तो बृहस्पति की सामथ्र्य में एकदम से कमी आ जाएगी और केन्द्राधिपत्य दोष के कारण बहुत कम शुभ फल देंगे इसीलिए बृहस्पति सदा त्रिकोण के स्वामी होने पर शानदार फल देते हैं। अपनी मित्र अंतर्दशाओं में शुभ फल देते हैं और अपनी शत्रु अंतर्दशाओं में खराब फल देते हैं। यदि बृहस्पति लग्नेश के मित्र हुए तो अत्यन्त शुभ फल प्रदान करेंगे और लग्नेश के शत्रु हुए तो खराब फल देंगे।
बृहस्पति महादशा में शुक्र अन्तर्दशा में बृहस्पति और शुक्र के घात-प्रतिघात से नुकसान हो सकता है। कुण्डलियों में बृहस्पति का अस्त होना या सूर्य के साथ योग बनाना शुभ परिणामदायी नहीं माना गया है। गुर्वादित्य योग में या बृहस्पति के अस्त होने से विवाह असफल हो जाते हैं, ऐसा माना गया है। प्राय: वक्री बृहस्पति या अस्त बृहस्पति या नीच बृहस्पति स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खड़ी करते हैं। पाचनतंत्र के विकार, आंखों से संबंधित विकार और मोटापे से संबंधित विकार बृहस्पति की देन है। बृहस्पति बलवान होने पर व्यक्ति को अहंकारी बना देते हैं। हथेली में यदि बृहस्पति पर्वत ज्यादा उन्नत हो जाए तो स्वाभिमानी व्यक्ति को कब अहंकारी बना दें पता ही नहीं चलता। बृहस्पति यदि दोष युक्त हों तो स्वभाव में मिथ्या अहंकार जन्म लेता है और व्यक्ति अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझता। उसके व्यवहार में बहुत जल्दी परिवर्तन आते हैं।
गोचर: बृहस्पति अपनी कक्षापथ में 13 वर्ष में एक चक्कर पूरा कर लेते हैं। करीब एक वर्ष एक राशि में रहते हैं। वर्ष में एक बार वे अस्त होते हैं और एक बार वक्री होते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि बृहस्पति किसी राशि से अगली राशि में चले जाते हैं और पुन: पिछली राशि में आकर (वर्तमान से) अगली राशि में चले जाएंगे। एक वर्ष में तीन राशियों में रहने से बृहस्पति अतिचारी हो जाते हैं और आखिरी भाग में निष्फल हो जाते हैं। वक्री बृहस्पति अतिशक्तिशाली होते हैं और शुभ हैं तो अत्यन्त शुभ परिणाम और यदि वे अशुभ हो गए हों तो अत्यन्त अशुभ परिणाम देते हैं। बृहस्पति जब अस्त होते हैं तो शुक्र की भांति शुभ मुहूर्त नहीं किए जाते और इसे सामान्य भाषा में तारा डूबना बताया गया है।
सिंहस्थ गुरु का विचार: सिंह राशि में गुरु होने पर कई सारे कार्यों का निषेध बताया गया है। भारत के कई क्षेत्रों में विवाह इत्यादि निषेध किया गया है। न केवल विवाह बल्कि व्रत, यात्रा, नगर प्रासाद, घर आदि का निर्माण, मुण्डन, विद्या और उपविद्या ज्ञान करने का निषेध किया गया है तथा क्षौैरकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, दीक्षा, परीक्षा, तीर्थयात्रा, भूमि दान व देव प्रतिष्ठा कराने पर शुभ फल प्राप्त नहीं होता है, ऐसा कहा गया है। वसिष्ठ ऋषि ने यह बताया है कि गोदावरी से उत्तर से और गंगा के दक्षिण भाग में सिंह के गुरु में विवाह नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अन्य भागों में विवाह किया जा सकता है। कुछ विद्वानों ने एक तर्क दिया है कि जब सिंह राशि में गुरु हों और मेष राशि में सूर्य हों तो कुछ कार्य किए जा सकते हैं। कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें सिंह के गुरु में, मेष का सूर्य होने पर विवाह आदि किए जा सकते हैं, शेष महीनों में नहीं किए जा सकते।
इसी तरह से मकर राशि के बृहस्पति जब तक बृहस्पति अपने परम नीच अंश में नहीं पहुंच जाएं तब तक विवाह इत्यादि नहीं करना चाहिए। करीब-करीब 60 दिनों का निषेध कुल मिलाकर बताया है। इसी तरह से गुरु के अतिचारी या वक्री होने पर 28दिनों तक यज्ञोपवीत और विवाह इत्यादि नहीं किए जाते। सूर्य और बृहस्पति का योग जब एक ही नक्षत्र में हो तो विवाह के लिए अत्यन्त अशुभ सिद्ध होता है। सूर्य की राशि में बृहस्पति और बृहस्पति की राशि में सूर्य हों तब भी कुछ मुहूर्त नहीं किए जाते और उसकी निंदा की गई है।
बृहस्पति को लेकर बहुत अधिक कहा गया है और इनका उल्लेख इसलिए किया गया है कि बिना महादशा के भी उपरोक्त परिस्थितियों में बृहस्पति शुभ और अशुभ देने में समर्थ हैं। इनके दिन में दर्शन होने पर भी मुहूर्त के दृष्टिकोण से अशुभ मान लिया गया है।
बृहस्पति जिन ग्रहों के साथ मिलकर योग बनाते हैं वे अपनी-अपनी दशाओं में बृहस्पति का भी फल देते हैं।
जन्मपत्रिका में बृहस्पति की दो राशियां मानी गई हैं - धनु तथा मीन। धनु राशि को पृष्ठोदयी माना गया है। यह राशि अपने अंतिम रूप में परिणाम देती है। इस राशि में पिंगल वर्ण, रात्रि में बलवान, अग्नि तत्व, क्षत्रिय स्वभाव, धनुषधारी, पूर्व दिशा में बसने वाली, भूमि पर भूचारी और तेजस्वी माना गया है। इस राशि में प्रशासनिक लक्षण हैं और अत्यंत ऊर्जावान है। बृहस्पति की ही दूसरी राशि मीन है। ऐसे दो मछलियां जिनके मुंह एक-दूसरे की पूंछ की तरह हैं। ये राशि दिन में बलवान होती है। इस राशि से प्रभावित लोग जल में या जल के आसपास में होते हैं। ब्राह्मण राशि मानी गई है।
खगोलशास्त्र की दृष्टि से बृहस्पति बहुत बड़े ग्रह हैं और उन पर एक बड़ा गड्ढा है जिसमें हमारी पांच पृथ्वी समा जाएं। बृहस्पति में अमोनिया गैस बहुत ज्यादा पाई जाती है जिसके कारण यह बहुत शीतल है। जब किसी ग्रह पर बृहस्पति की दृष्टि होती है तो सारे दोष दूर हो जाते हैं और इनकी दृष्टि को अमृत माना गया है। जिस भाव को बृहस्पति दृष्टि कर लेते हैं उस भाव में शुभत्व आ जाता है और उस भाव की रक्षा होना माना गया है। बृहस्पति को पुत्र का कारक माना गया है। जन्मपत्रिकाओं में बृहस्पति से पुत्र के शुभ-अशुभ देखे जाते हैं। बृहस्पति हर लग्न के लिए शुभफल नहीं देते। सामान्य रूप से बृहस्पति की महादशा में नवीन वस्त्र की प्राप्ति होती है। नौकर-चाकर और परिवार के लोगों में वृद्धि होती है, पुत्र की प्राप्ति होती है, धन व मित्रों में वृद्धि होती है, प्रशंसा मिलती है, श्रेष्ठ व्यक्तियों से सम्मान प्राप्त होता है परंतु गुरुजनों का, पिता आदि का वियोग सहना पड़ता है। कफ रोग होते हैं और कान से संबंधित समस्याएं आती हैं।
बृहस्पति को 2, 5, 9, 10 और 11वें भाव का स्थिर कारक माना गया है। आमतौर से अपने ही भाव में कारक को अच्छा नहीं माना गया है परंतु दूसरे भाव में बृहस्पति को लाभ देने वाला माना गया है।
प्रत्येक लग्र के लिए बृहस्पति का शुभ-अशुभ: मेष लग्न में बृहस्पति योगकारक हैं। वृषभ व मिथुन लग्न के लिए पाप फल देते हैं। कर्क, सिंह लग्न के लिए बृहस्पति शुभ फलदायी हैं परंतु कन्या और तुला लग्न के लिए अशुभ फलदायी होते हैं। वृश्चिक लग्न के लिए बृहस्पति शुभफल देने वाले, धनु लग्न के लिए सम, मकर और कुंभ लग्न के लिए पाप फल देने वाले और मीन लग्न के लिए शुभफल माने गए हैं।
बृहस्पति जन्मपत्रिका में जब वक्री होते हैं तब अत्यंत शक्तिशाली परिणाम देते हैं। आमतौर से बृहस्पति अपनी सोलह वर्ष की दशा भोगने के बाद ही पूरे परिणाम देते हैं और जिस भाव के अधिपति होते हैं उसका तो निश्चित परिणाम देते हैं। जिस भाव पर इनकी दृष्टि हो, उस भाव के भी शुभ परिणाम देेते हैं। दैनिक भ्रमण में भी बृहस्पति जिस-जिस भाव पर दृष्टि करते हुए चलते हैं उस भाव के शुभ परिणामों में वृद्धि हो जाती है। जिस भाव के स्वामी के साथ बृहस्पति युति कर रहें हो तो उस भाव के स्वामी के भी शुभफल आना शुरु हो जाते हैं। बृहस्पति अस्त होते हैं तो अशुभ परिणाम देते हैं। जन्मपत्रिका में अस्त होने से शरीर में वसा संबंधी विकृतियां आती हैं और आमतौर से पेट और लीवर इत्यादि प्रभावी होते हैं। बृहस्पति जब आकाश में अस्त चल रहे होते हैं तो मुहूर्त नहीं निकाले जाते। मूल जन्मपत्रिका में भी यदि बृहस्पति अस्त हो गए हों तो विवाह में शुभ नहीं माने जाते हैं। कन्याओं की जन्मपत्रिकाओं में बृहस्पति को विवाह का कारक माना जाता है और इनका अस्त होना अच्छा नहीं माना जाता। मंगल और बृहस्पति का जन्मपत्रिका में परस्पर संबंध भी शुभ नहीं माना जाता।
बृहस्पति जिस भाव में बैठे होते हैं उसी भाव की चिंता कराते हैं। सप्तम भाव में स्थित बृहस्पति विवाह के लिए शुभ नहीं माने जाते हैं। या तो यह विवाह होने नहीं देते या विवाह को टिकने नहीं देते। पंचम भाव में स्थित बृहस्पति अधिकांश राशियों में कन्या अधिक देते हैं और पुत्र कम देते हैं।
यदि बृहस्पति जन्मपत्रिका में अस्त या वक्री हों तो मोटापे से संबंधित दोष आते हैं और पाचन तंत्र के विकार परेशान करते हैं। जब-जब गोचर में बृहस्पति लग्न, लग्नेश तथा चंद्र लग्न को देखते हैं तो वजन बढऩे लगता है क्योंकि खानपान का स्तर उच्चकोटि का रहता है। बृहस्पति जब-जब बलवान होंगे, गरिष्ठ भोजन करने को मिलेगा और सभाओं में और दावत में जाने का अवसर मिलता रहेगा।
बृहस्पति अपनी दशाओं में व्यक्ति को लेखक बनाते हैं, धार्मिक बनाते हैं, व्यक्ति की प्रसिद्धि कराते हैं और लोग व्यक्ति से सलाह लेने आते हैं। व्यक्ति की मित्रता राज्य के अधिकारियों से होती है और वह बड़े लोगों की संगत में बैठता है। बृहस्पति ज्ञान में वृद्धि करते हैं, यज्ञ-हवन कराते हैं और शरीर व मस्तिष्क पर तेज आता है। यदि जन्मकाल में बृहस्पति केन्द्र में उच्च या स्वराशि में होकर बैठ जाएं तो हंसयोग बनाते हैं जिसमें व्यक्ति महान होता चला जाता है। यदि चंद्रमा से केन्द्र में बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग बनता है जिसके प्रभाव में व्यक्ति समाज में ऊंचा उठता हुआ चला जाता है। हंसयोग में जन्मे व्यक्ति के हाथ व पैरों में शंख, कमल आदि के चिन्ह मिलते हैं। सौम्य शरीर होता है, उत्तम भोजन करने वाला होता है और लोग उसकी प्रशंसा करते हैं।
बृहस्पति के बारे में कुछ विशेष : यदि नीच राशि के हों, अस्तंगत हों, लग्न से 6, 8, 12 में हों, शनि, मंगल से दृष्ट हों या युत हों तो अपने करीबी लोगों से और सरकार से कलह होती है, चोर से कष्ट होता है, माता-पिता के लिए हानिकारक है, मानहानि होती है, राजभय होता है, धन नाश होता है, विष से या सर्प से या ज्वर से पीड़ा होती है और खेती और भूमि की हानि होती है।
यदि महादशानाथ से बृहस्पति केन्द्र-त्रिकोण में हों या 11वें भाव में हों और षड्बल से युक्त हों तो बंधुओं से और पुत्र से सुख होता है, उत्साह होता है, धन, पशु और यश की वृद्धि होती है और अन्न इत्यादि का दान करते हैं। आजकल पशुओं की जगह कारें आ गई हैं। यदि महादशानाथ से 6, 8, 12 में स्थित बृहस्पति निर्बल हो जाएं तो दु:ख, परेशानियां, रोग, भय, स्त्री और बंधु से द्वेष होता है, बहुत ज्यादा खर्चा होता है, राजकोप होता है, धन हानि होती है और ब्राह्मण से भय होता है। बृहस्पति यदि द्वितीयेश या सप्तमेश हों या दूसरे और सातवें भाव में हों तो कष्ट होता है।
बृहस्पति के दोषों के निवारण के लिए शिव सहस्त्र नाम जप, गऊ और भूमि का दान तथा स्वर्ण दान करने से अरिष्ट शांति होती है।
गजकेसरी योग: चन्द्रमा से केन्द्र में यदि बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग होता है। गजकेसरी योग में व्यक्तिमें गज और केसरी दोनों के गुण आते हैं। हाथी जैसा बल और सिंह जैसा चातुर्य दोनों जिसमें हों वह व्यक्ति धीरे-धीरे जीवन में प्रगति करता है और सबसे ऊपर उठ जाता है परन्तु इस योग में भी बहुत सारे स्तर हैं। जैसे- अष्टम में चंद्रमा हों और तब उससे गजकेसरी योग बने तो कमजोर हो जाता है। इसी प्रकार बृहस्पति 6, 8, 12 भाव में बैठकर चंद्रमा से गजकेसरी योग बनाएं तो कमजोर हो जाता है।
यदि चंद्रमा अपनी ही राशि में हों और उसी में बृहस्पति हों तो गजकेसरी योग बहुत शक्तिशाली होगा परन्तु यही योग यदि लग्न में हो तो वह योग और भी शक्तिशाली हो जाएगा। केन्द्र में कर्क राशि में बनने वाला गजकेसरी योग सर्वाधिक शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि केन्द्राधिपति दोष न होने पर भी लग्नेश चंद्रमा लग्न में हों तो सबसे अधिक शक्तिशाली होते हैं। यहां पर बृहस्पति नवमेश भी होने के कारण भाग्येश हुए और व्यक्ति के जीवन में बहुत उन्नति देखने को मिलेगी। एक अन्य शक्तिशाली स्थिति है जिसमें कर्क राशि पंचम भाव में हो और बृहस्पति दूसरे भाव में हों। यह दोनों अत्यन्त शक्तिशाली स्थितियां हैं। एक अन्य परिस्थिति है जिसमें चंद्रमा धनु लग्न में हों और बृहस्पति मीन राशि में हों। यह भी अतिशक्तिशाली योग है परन्तु इनमें से एक भी ग्रह खराब भाव में चला गया तो गजकेसरी योग में कमी आ जाती है। गजकेसरी योग अन्य जिन बातों के कारण कमजोर होता है उनमें बृहस्पति और चंद्रमा का केन्द्राधिपति दोष से पीडि़त होना, चंद्रमा का क्षीण होना तथा चंद्रमा या बृहस्पति का नीच राशि, शत्रु राशि, नीच नवांश, अस्तंगत होना या पापकर्तरि में होना शामिल है। गजकेसरी योग बलवान हो जाता है यदि योग बनाने वाले ग्रह उत्तम वर्गों में हों या शुभ ग्रहों से दृष्ट हों या युत हों तथा चंद्र और बृहस्पति षड्बल से युक्त हो जाएं। दो गजकेसरी योगों के फलों में 1 और 100 का अनुपात हो सकता है।
स्त्री जातक और बृहस्पति: स्त्रियों के गुण-अवगुणों का पता लगाने के लिए त्रिंशांश कुण्डली का प्रयोग किया जाता है। त्रिंशांश कुण्डली में मंगल और शनि के त्रिंशांश बहुत ही खराब माने गए हैं परन्तु यदि बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो वह स्त्री बहुत गुणी मानी जाती है। चंद्रमा, शुक्र और बुध के त्रिंशांश में भी दोष बताए गए हैं परन्तु किसी भी लग्न में लग्नेश या ग्रह बृहस्पति के त्रिंशांश में हों तो वह स्त्री अत्यन्त गुणवती मानी गई है। बृहस्पति एकमात्र ऐसे ग्रह हैं जो किसी भी राशि में हों, अगर कोई ग्रह बृहस्पति के त्रिंशांश में पड़ जाए तो उसे शुद्ध, पवित्र और मंगलकारी माना गया है।
वेद आदि का ज्ञान: यदि लग्न समराशि हो और बृहस्पति बलवान हों तो स्त्री शास्त्रों में निपुण और वेदों के अर्थ को जानने वाली होती है।
विवाह लग्न: विवाह लग्न में यदि बृहस्पति हों तो वह स्त्री धनवान हो जाती है और पति का सुख मिलता है। यदि विवाह लग्न से तीसरे में बृहस्पति हों तो वह स्त्री संतान वाली और धनवान हो जाती है। यदि विवाह लग्न से पांचवें स्थान में बृहस्पति हों तो कई पुत्र होते हैं। विवाह लग्न से सातवें बृहस्पति शुभ नहीं माने गए हैं और न ही आठवें भाव में शुभ माने गए हैं। विवाह लग्न से दसवें भाव में बृहस्पति, स्त्री को धार्मिक बनाते हैं।
दशम भाव और बृहस्पति: किसी भी भाव से बृहस्पति यदि दशम भाव को देखें तो कितने भी अरिष्ट हों, शांत हो जाते हैं। राजा से या नियोक्ता से या पिता से लाभ होता है, समाज में सम्मान बढ़ता है। केवल लग्न से छठे बृहस्पति की निंदा की गई है क्योंकि वे व्यक्ति को ऋणग्रस्त कराते हैं।
बृहस्पति का दशाक्रम: बृहस्पति अपनी महादशा में शुभ फल करेंगे यदि वे लग्न, पंचम, नवम, चतुर्थ या दशम के स्वामी हों। यदि केन्द्र के स्वामी हों तो बृहस्पति की सामथ्र्य में एकदम से कमी आ जाएगी और केन्द्राधिपत्य दोष के कारण बहुत कम शुभ फल देंगे इसीलिए बृहस्पति सदा त्रिकोण के स्वामी होने पर शानदार फल देते हैं। अपनी मित्र अंतर्दशाओं में शुभ फल देते हैं और अपनी शत्रु अंतर्दशाओं में खराब फल देते हैं। यदि बृहस्पति लग्नेश के मित्र हुए तो अत्यन्त शुभ फल प्रदान करेंगे और लग्नेश के शत्रु हुए तो खराब फल देंगे।
बृहस्पति महादशा में शुक्र अन्तर्दशा में बृहस्पति और शुक्र के घात-प्रतिघात से नुकसान हो सकता है। कुण्डलियों में बृहस्पति का अस्त होना या सूर्य के साथ योग बनाना शुभ परिणामदायी नहीं माना गया है। गुर्वादित्य योग में या बृहस्पति के अस्त होने से विवाह असफल हो जाते हैं, ऐसा माना गया है। प्राय: वक्री बृहस्पति या अस्त बृहस्पति या नीच बृहस्पति स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खड़ी करते हैं। पाचनतंत्र के विकार, आंखों से संबंधित विकार और मोटापे से संबंधित विकार बृहस्पति की देन है। बृहस्पति बलवान होने पर व्यक्ति को अहंकारी बना देते हैं। हथेली में यदि बृहस्पति पर्वत ज्यादा उन्नत हो जाए तो स्वाभिमानी व्यक्ति को कब अहंकारी बना दें पता ही नहीं चलता। बृहस्पति यदि दोष युक्त हों तो स्वभाव में मिथ्या अहंकार जन्म लेता है और व्यक्ति अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझता। उसके व्यवहार में बहुत जल्दी परिवर्तन आते हैं।
गोचर: बृहस्पति अपनी कक्षापथ में 13 वर्ष में एक चक्कर पूरा कर लेते हैं। करीब एक वर्ष एक राशि में रहते हैं। वर्ष में एक बार वे अस्त होते हैं और एक बार वक्री होते हैं। कई बार ऐसा देखा गया है कि बृहस्पति किसी राशि से अगली राशि में चले जाते हैं और पुन: पिछली राशि में आकर (वर्तमान से) अगली राशि में चले जाएंगे। एक वर्ष में तीन राशियों में रहने से बृहस्पति अतिचारी हो जाते हैं और आखिरी भाग में निष्फल हो जाते हैं। वक्री बृहस्पति अतिशक्तिशाली होते हैं और शुभ हैं तो अत्यन्त शुभ परिणाम और यदि वे अशुभ हो गए हों तो अत्यन्त अशुभ परिणाम देते हैं। बृहस्पति जब अस्त होते हैं तो शुक्र की भांति शुभ मुहूर्त नहीं किए जाते और इसे सामान्य भाषा में तारा डूबना बताया गया है।
सिंहस्थ गुरु का विचार: सिंह राशि में गुरु होने पर कई सारे कार्यों का निषेध बताया गया है। भारत के कई क्षेत्रों में विवाह इत्यादि निषेध किया गया है। न केवल विवाह बल्कि व्रत, यात्रा, नगर प्रासाद, घर आदि का निर्माण, मुण्डन, विद्या और उपविद्या ज्ञान करने का निषेध किया गया है तथा क्षौैरकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, दीक्षा, परीक्षा, तीर्थयात्रा, भूमि दान व देव प्रतिष्ठा कराने पर शुभ फल प्राप्त नहीं होता है, ऐसा कहा गया है। वसिष्ठ ऋषि ने यह बताया है कि गोदावरी से उत्तर से और गंगा के दक्षिण भाग में सिंह के गुरु में विवाह नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अन्य भागों में विवाह किया जा सकता है। कुछ विद्वानों ने एक तर्क दिया है कि जब सिंह राशि में गुरु हों और मेष राशि में सूर्य हों तो कुछ कार्य किए जा सकते हैं। कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें सिंह के गुरु में, मेष का सूर्य होने पर विवाह आदि किए जा सकते हैं, शेष महीनों में नहीं किए जा सकते।
इसी तरह से मकर राशि के बृहस्पति जब तक बृहस्पति अपने परम नीच अंश में नहीं पहुंच जाएं तब तक विवाह इत्यादि नहीं करना चाहिए। करीब-करीब 60 दिनों का निषेध कुल मिलाकर बताया है। इसी तरह से गुरु के अतिचारी या वक्री होने पर 28दिनों तक यज्ञोपवीत और विवाह इत्यादि नहीं किए जाते। सूर्य और बृहस्पति का योग जब एक ही नक्षत्र में हो तो विवाह के लिए अत्यन्त अशुभ सिद्ध होता है। सूर्य की राशि में बृहस्पति और बृहस्पति की राशि में सूर्य हों तब भी कुछ मुहूर्त नहीं किए जाते और उसकी निंदा की गई है।
बृहस्पति को लेकर बहुत अधिक कहा गया है और इनका उल्लेख इसलिए किया गया है कि बिना महादशा के भी उपरोक्त परिस्थितियों में बृहस्पति शुभ और अशुभ देने में समर्थ हैं। इनके दिन में दर्शन होने पर भी मुहूर्त के दृष्टिकोण से अशुभ मान लिया गया है।
बृहस्पति जिन ग्रहों के साथ मिलकर योग बनाते हैं वे अपनी-अपनी दशाओं में बृहस्पति का भी फल देते हैं।
हमारे संस्कार : पुस्तक पूजा
बचपन में जब मैं पढ़ता था और मेरे हाथ से पुस्तक गिर जाती थी तो मेरी माता या पिता दोनों में से जो भी सामने होता, वे मुझे पुस्तक उठाकर उसको माथे से लगाने के लिए कहते। उस वक्त मैं समझ नहीं पाता था कि वे ऐसा क्यों करवाते हैं? और स्कूल में जब अपनी उम्र से बड़े विद्यार्थियों को ऐसा करते देखता तो सहज जिज्ञासा होती थी कि ऐसा क्या है? परन्तु बाद में धीरे-धीरे यह समझ में आया कि यह पुस्तकें ही ज्ञान देती हैं और ज्ञान की देवी सरस्वती ऐसा करने से शायद प्रसन्न होती हैं। आज मैं देवी सरस्वती का उपासक पुस्तक के उस महत्व को समझ पाया हँू और साथ में यह भी समझ में आया कि धर्मग्रंथ या कोई भी पुस्तक इतनी महत्वपूर्ण क्यों है?
विश्व में अनेक धर्म हैं। सभी धर्मों के अपने नियम और सिद्धांत हैं। सभी धर्म किन्हीं अवधारणाओं, नैतिक मूल्यों, सत्य, ईमानदारी जैसे आधारभूत सिद्धांतों पर टिके हैं। विश्वव्यापी धर्मों की व्यापकता पर प्रकाश डालने पर ज्ञात होता है कि अधिकांश धर्मों का जन्म कुछ मानवीय मूल्यों के पोषण और पालन के लिए हुआ है। इन मानवीय मूल्यों का वर्णन किसी पुस्तक, शास्त्र, ग्रंथ, संहिता, स्मृति, आरण्यक, आगम, निगम आदि में समाविष्ट होता है। यह निर्विवाद सत्य है कि धर्म मनुष्य का मूल आधार है। धर्म के बिना कोई समाज या उस समाज का व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। यह बात और है कि विश्व के सभी व्यक्ति किसी एक ही धर्म का अनुकरण नहीं करते हैं परंतु वे किसी न किसी धर्म का अनुकरण अवश्य करते हैं। हमने कहा कि मानवमात्र का मूल आधार धर्म होता है और धर्म का मूल आधार होता है गं्रथ या पुस्तक। पुस्तक से हमारा तात्पर्य है किसी धर्म का आधारभूत सर्वमान्य संहिता या शास्त्र अथवा गं्रथ जिसके मूल्यों पर वह धर्म टिका होता है।
संसार के प्रमुख धर्मों का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि उनके पूजनीय ग्रंथ व शास्त्र या पुस्तकें हैं जिन्हें उस धर्म के अनुयायी आजीवन अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। उदाहरणार्थ हिंदू धर्म में पूजनीय ग्रंथ रामचरितमानस, भागवत गीता प्रमुख हैं। इनके साथ ही कई स्मृतियां, पुराण, शास्त्र, टीकाएं आदि भी श्रद्धेय हैं। मुख्य रूप से हिंदू धर्म के अनुयायी रामायण, रामचरितमानस और भागवत गीता का पाठ करते हैं, कीर्तन करते हैं। उसे पूजा कक्ष में उच्च स्थान देकर, नियमित रूप से अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। जब कभी किसी कारणवश यात्रा आदि पर जाना होता है तो अपने पूजनीय श्रद्धेय ग्रंथ का गुटिका रूप साथ ले जाते हैं और नियमित पूजा पाठ करते रहते हैं। पुस्तक पूजा उनके लिए आहार समान दैनिक कार्य होता है। हिंदू धर्म या सनातन धर्म से निकले कुछ अन्य धर्म जैसे जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि इन धर्मों के भी अपने श्रद्धेय ग्रंथ हैं। जैन धर्म में आगम-निगम गंं्रथ हैं तो बौद्ध धर्म में त्रिपिटिक नामक गंं्रथ पूजनीय है। इसी प्रकार ईसाई धर्म अपने पूज्य ग्रंथ बाइबिल पर टिका है। बाइबिल में ईसाई धर्म के आचरणीय सूत्रों और नियमों की विशद व्याख्या है जिनका ईसाई धर्म के अनुयायी पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा से पालन करते हैं। बाइबिल की प्रत्येक पंक्ति इन अनुयायियों के लिए स्मरणीय, पूज्य और उपदेश स्वरूप होती है।
पुस्तक पूजा को सर्वोच्च सम्मान देने वाला धर्म है सिक्ख धर्म। इस धर्म ने अपनी धार्मिक पुस्तक को ही अपना ग्यारहवां गुरु मानकर ग्रंथ को अमर पदवी दी है। सिक्ख धर्म में गुरु ग्रंथ साहिब को ग्यारहवां गुरु मानकर धार्मिक ग्रंथ के प्रति मानव जाति ने अपनी श्रद्धा की पराकाष्ठा का परिचय दिया है। आज पूरे विश्व में फैला सिक्ख समाज गुरुग्रंथ साहिब को अपना सर्वस्व मानता है तथा गुरु पद से विभूषित करता है। गुरुग्रंथ साहिब के प्रति सिक्ख अनुयायियों की श्रद्धा, भक्ति, सम्मान और प्रतिष्ठा देखते ही बनती है। सिक्ख समाज गुरुग्रंथ साहिब को गुरु मानकर उनके साक्षी रूप में ही विवाहादि सभी मंगल कार्य संपन्न करता है। किसी अन्य मांगलिक सहयोग की उन्हें कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। संभवत पुस्तक पूजा (ग्रंथ पूजा) के संबंध में सिक्ख धर्म विश्व के सभी धर्मों से आगे निकल गया है। गुरबानी के स्वर प्रात: कहीं भी सुने जा सकते हैं। पुस्तक पूजा के प्रति श्रद्धा में मुस्लिम धर्म भी किसी से कम नहीं है। उनका आधारभूत धर्म है कुरआन शरीफ। कुरआन शरीफ हर मुसलमान के घर में सादर पूजी जाती है उसके फातिहे पढ़े जाते हैं। कहते हैं कि एक सच्चा मुसलमान अपने धार्मिक ग्रंथ कुरआन शरीफ की हिफाजत और संरक्षण आपने प्राणों की बलि देकर भी करता है। अपने धर्म और धर्म ग्रंथ की रक्षा के लिए सभी धर्म कुछ भी बलिदान देने के लिए तत्पर रहते हैं।
हम पाठकगण का ध्यान हिन्दू धर्म / सनातन धर्म महान पोषक ग्रंथ वेदों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं कि सनातन धर्म के ये आधार ग्रंथ आज भी प्रत्येक अनुयायी के लिए पूजनीय और श्रद्धेय हैं। वेदों को हिंदू धर्म अपना सर्वस्व मानता है। इनमें निहित सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों का सम्मान किया जाता है। जब-जब भी वैदिक धर्म के अस्तित्व पर कोई संकट आता है तो समस्त हिंदू अनुयायी उनकी रक्षा के लिए एकजुट हो जाते हैं। हमारा अभिप्राय है कि किसी भी धर्म के गं्रथ पूजनीय, अर्चनीय, श्रद्धेय होते हैं। हमें अपने धर्मग्रंथ की पूजा अर्चना करनी चाहिए और दूसरे धर्म के गं्रथों का सम्मान और आदर। इसी प्रकार पारसी धर्म का मूल आधार ग्रंथ जेंदेवस्ता है जिसमें पारसी धर्म से संबंधित मूल्यों का वर्णन मिलता है तथा यही ग्रंथ इनका पूजनीय और श्रद्धेय है। कुल प्रमुख धर्म और संप्रदायों के अलग मूलाधार ग्रंथ हैं, पूजनीय पुस्तकें हैं। जैसे कबीर रचित बीजक कबीर पंथियों के लिए श्रद्धेय और अनुकरणीय है।
पुस्तक पूजा की इस विचार श्रृंखला में लेखक का उद्देश्य हमारी संस्कृति में छुपे उन संस्कारों की ओर ध्यान आकर्षित करना है। जिन्हें हम अपनी दिनचर्या में नित्य प्रति प्रयुक्त करते हैं और वे हमारे जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। जिनके बिना हमारा अस्तित्व बने रहना अत्यंत कठिन है।
पाठकगण इस पुस्तक पूजा के इस लेख को और अधिक व्यापक रूप से समझने के लिए अन्य धर्मग्रथों पर भी दृष्टिपात कर सकते हैंं। प्रश्न उठता है कि पुस्तक पूजा हमारे संस्कारों में इतनी गहनता से कैसे रच-बस गई। सहज सा उत्तर बनता है कि कोई भी धर्म ग्रंथ मनुष्य को गलत रास्ते पर जाने की अनुमति नहीं देता अपितु गलत और भ्रमित रास्ते से लौटकर सही दिशा में जाने का मार्गप्रशस्त करता है। सभी धर्मग्रंथ, पुस्तकें अपने अनुयायियों को सकारात्मक अवधारणा, आशा, धैर्य, सत्य, अहिंसा, नेकनीयती, दया, करुणा, कल्याण की भावना सिखाते हैं तथा बुरे मार्गों पर जाने से रोकते हैं। यही कारण है कि वे पुस्तकें पूजनीय हैं, वंदनीय, श्रद्धेय, अर्चनीय और सम्मानीय हैं।
विश्व में अनेक धर्म हैं। सभी धर्मों के अपने नियम और सिद्धांत हैं। सभी धर्म किन्हीं अवधारणाओं, नैतिक मूल्यों, सत्य, ईमानदारी जैसे आधारभूत सिद्धांतों पर टिके हैं। विश्वव्यापी धर्मों की व्यापकता पर प्रकाश डालने पर ज्ञात होता है कि अधिकांश धर्मों का जन्म कुछ मानवीय मूल्यों के पोषण और पालन के लिए हुआ है। इन मानवीय मूल्यों का वर्णन किसी पुस्तक, शास्त्र, ग्रंथ, संहिता, स्मृति, आरण्यक, आगम, निगम आदि में समाविष्ट होता है। यह निर्विवाद सत्य है कि धर्म मनुष्य का मूल आधार है। धर्म के बिना कोई समाज या उस समाज का व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। यह बात और है कि विश्व के सभी व्यक्ति किसी एक ही धर्म का अनुकरण नहीं करते हैं परंतु वे किसी न किसी धर्म का अनुकरण अवश्य करते हैं। हमने कहा कि मानवमात्र का मूल आधार धर्म होता है और धर्म का मूल आधार होता है गं्रथ या पुस्तक। पुस्तक से हमारा तात्पर्य है किसी धर्म का आधारभूत सर्वमान्य संहिता या शास्त्र अथवा गं्रथ जिसके मूल्यों पर वह धर्म टिका होता है।
संसार के प्रमुख धर्मों का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि उनके पूजनीय ग्रंथ व शास्त्र या पुस्तकें हैं जिन्हें उस धर्म के अनुयायी आजीवन अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। उदाहरणार्थ हिंदू धर्म में पूजनीय ग्रंथ रामचरितमानस, भागवत गीता प्रमुख हैं। इनके साथ ही कई स्मृतियां, पुराण, शास्त्र, टीकाएं आदि भी श्रद्धेय हैं। मुख्य रूप से हिंदू धर्म के अनुयायी रामायण, रामचरितमानस और भागवत गीता का पाठ करते हैं, कीर्तन करते हैं। उसे पूजा कक्ष में उच्च स्थान देकर, नियमित रूप से अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। जब कभी किसी कारणवश यात्रा आदि पर जाना होता है तो अपने पूजनीय श्रद्धेय ग्रंथ का गुटिका रूप साथ ले जाते हैं और नियमित पूजा पाठ करते रहते हैं। पुस्तक पूजा उनके लिए आहार समान दैनिक कार्य होता है। हिंदू धर्म या सनातन धर्म से निकले कुछ अन्य धर्म जैसे जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि इन धर्मों के भी अपने श्रद्धेय ग्रंथ हैं। जैन धर्म में आगम-निगम गंं्रथ हैं तो बौद्ध धर्म में त्रिपिटिक नामक गंं्रथ पूजनीय है। इसी प्रकार ईसाई धर्म अपने पूज्य ग्रंथ बाइबिल पर टिका है। बाइबिल में ईसाई धर्म के आचरणीय सूत्रों और नियमों की विशद व्याख्या है जिनका ईसाई धर्म के अनुयायी पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा से पालन करते हैं। बाइबिल की प्रत्येक पंक्ति इन अनुयायियों के लिए स्मरणीय, पूज्य और उपदेश स्वरूप होती है।
पुस्तक पूजा को सर्वोच्च सम्मान देने वाला धर्म है सिक्ख धर्म। इस धर्म ने अपनी धार्मिक पुस्तक को ही अपना ग्यारहवां गुरु मानकर ग्रंथ को अमर पदवी दी है। सिक्ख धर्म में गुरु ग्रंथ साहिब को ग्यारहवां गुरु मानकर धार्मिक ग्रंथ के प्रति मानव जाति ने अपनी श्रद्धा की पराकाष्ठा का परिचय दिया है। आज पूरे विश्व में फैला सिक्ख समाज गुरुग्रंथ साहिब को अपना सर्वस्व मानता है तथा गुरु पद से विभूषित करता है। गुरुग्रंथ साहिब के प्रति सिक्ख अनुयायियों की श्रद्धा, भक्ति, सम्मान और प्रतिष्ठा देखते ही बनती है। सिक्ख समाज गुरुग्रंथ साहिब को गुरु मानकर उनके साक्षी रूप में ही विवाहादि सभी मंगल कार्य संपन्न करता है। किसी अन्य मांगलिक सहयोग की उन्हें कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ती। संभवत पुस्तक पूजा (ग्रंथ पूजा) के संबंध में सिक्ख धर्म विश्व के सभी धर्मों से आगे निकल गया है। गुरबानी के स्वर प्रात: कहीं भी सुने जा सकते हैं। पुस्तक पूजा के प्रति श्रद्धा में मुस्लिम धर्म भी किसी से कम नहीं है। उनका आधारभूत धर्म है कुरआन शरीफ। कुरआन शरीफ हर मुसलमान के घर में सादर पूजी जाती है उसके फातिहे पढ़े जाते हैं। कहते हैं कि एक सच्चा मुसलमान अपने धार्मिक ग्रंथ कुरआन शरीफ की हिफाजत और संरक्षण आपने प्राणों की बलि देकर भी करता है। अपने धर्म और धर्म ग्रंथ की रक्षा के लिए सभी धर्म कुछ भी बलिदान देने के लिए तत्पर रहते हैं।
हम पाठकगण का ध्यान हिन्दू धर्म / सनातन धर्म महान पोषक ग्रंथ वेदों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं कि सनातन धर्म के ये आधार ग्रंथ आज भी प्रत्येक अनुयायी के लिए पूजनीय और श्रद्धेय हैं। वेदों को हिंदू धर्म अपना सर्वस्व मानता है। इनमें निहित सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों का सम्मान किया जाता है। जब-जब भी वैदिक धर्म के अस्तित्व पर कोई संकट आता है तो समस्त हिंदू अनुयायी उनकी रक्षा के लिए एकजुट हो जाते हैं। हमारा अभिप्राय है कि किसी भी धर्म के गं्रथ पूजनीय, अर्चनीय, श्रद्धेय होते हैं। हमें अपने धर्मग्रंथ की पूजा अर्चना करनी चाहिए और दूसरे धर्म के गं्रथों का सम्मान और आदर। इसी प्रकार पारसी धर्म का मूल आधार ग्रंथ जेंदेवस्ता है जिसमें पारसी धर्म से संबंधित मूल्यों का वर्णन मिलता है तथा यही ग्रंथ इनका पूजनीय और श्रद्धेय है। कुल प्रमुख धर्म और संप्रदायों के अलग मूलाधार ग्रंथ हैं, पूजनीय पुस्तकें हैं। जैसे कबीर रचित बीजक कबीर पंथियों के लिए श्रद्धेय और अनुकरणीय है।
पुस्तक पूजा की इस विचार श्रृंखला में लेखक का उद्देश्य हमारी संस्कृति में छुपे उन संस्कारों की ओर ध्यान आकर्षित करना है। जिन्हें हम अपनी दिनचर्या में नित्य प्रति प्रयुक्त करते हैं और वे हमारे जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। जिनके बिना हमारा अस्तित्व बने रहना अत्यंत कठिन है।
पाठकगण इस पुस्तक पूजा के इस लेख को और अधिक व्यापक रूप से समझने के लिए अन्य धर्मग्रथों पर भी दृष्टिपात कर सकते हैंं। प्रश्न उठता है कि पुस्तक पूजा हमारे संस्कारों में इतनी गहनता से कैसे रच-बस गई। सहज सा उत्तर बनता है कि कोई भी धर्म ग्रंथ मनुष्य को गलत रास्ते पर जाने की अनुमति नहीं देता अपितु गलत और भ्रमित रास्ते से लौटकर सही दिशा में जाने का मार्गप्रशस्त करता है। सभी धर्मग्रंथ, पुस्तकें अपने अनुयायियों को सकारात्मक अवधारणा, आशा, धैर्य, सत्य, अहिंसा, नेकनीयती, दया, करुणा, कल्याण की भावना सिखाते हैं तथा बुरे मार्गों पर जाने से रोकते हैं। यही कारण है कि वे पुस्तकें पूजनीय हैं, वंदनीय, श्रद्धेय, अर्चनीय और सम्मानीय हैं।
मैकेनिकल इण्डस्ट्रीज में कॅरियर
समस्त धर्मों हिन्दू, बौद्ध, ताओ, कन्फ्यूशियस, शिंटो, जुरथ्रस्थ (पारसी), इस्लाम, यहूदी तथा ईसाई के अनुयायी एक ऐसी शक्ति में विश्वास करते हैं जो कम से कम मनुष्य से अधिक शक्तिशाली है। इस शक्ति को विज्ञान तीन ऊर्जाओं के रूप में स्वीकारता है - न्यूक्लियर फोर्स, मैग्निटिक फोर्स तथा कॉस्मिक फोर्स। इनके परे कुछ भी नहीं है, सब कुछ इसी सत्य-सत्ता में समाहित है। इनमें व्यक्ति, देश, काल आदि के अनुसार असन्तुलन बना नहीं कि समझिए आपदाओं-विपदाओं तथा अराजकता ने घेरना प्रारम्भ कर दिया है। चिरन्तर से प्रत्येक देश-धर्म का सतत् प्रयास रहा है कि विरोधी बन गयी इन ऊर्जाओं को पुन: कैसे अनुकूल करके सन्तुलन बनाया जाए?
सृजनात्मक शक्तियों में मुक्त प्रवाह को अनुकूल करके अधिकाधिक दैहिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए वास्तुशास्त्र तथा फेंगशुई के प्रयोग भी अत्यधिक प्रचलित और प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं।
वास्तु विज्ञान के नियम और सिद्धान्त पूर्णतया व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक हैं। पृथ्वी का प्राकृतिक चुम्बकीय क्षेत्र, जिसमें कि चुम्बकीय आकर्षण सदैव उत्तर से दक्षिण दिशा में रहता है, हमारे जीवन को निरन्तर प्रभावित करता है। पल-प्रतिपल जीवन इस चुम्बकीय आकर्षण के प्रति आकर्षित है। प्राकृतिक रूप से इस अदृश्य शक्ति द्वारा हमारा जीवन संचार हो रहा है। एक छोटा सा उदाहरण देखें, इस आकर्षण की उपयोगिता स्वयं सिद्ध हो जाएगी - नियम है कि - सोते समय हम अपने पैर दक्षिण दिशा की ओर नहीं करते। सौर जगत, धु्रव के आकर्षण पर आलम्बित है, यह धु्रव उत्तर दिशा में स्थित है।
यदि कोई व्यक्ति दक्षिण दिशा की ओर पैर और उत्तर की ओर सिर करके सोएगा तो ध्रुव चुम्बकीय प्रभाव के कारण पेट में पड़ा भोजन पचने पर जिसका अनुपयोगी अर्थात् न पचने वाला अंश मल के रूप में नीचे जाना आवश्यक है, वह ऊपर की ओर आकर्षित होगा, इससे हृदय, मस्तिष्क आदि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके विपरीत उत्तर दिशा की ओर पैर होंगे तो एक तो हमारा भोजन परिपाक ठीक होगा। दूसरे वहाँ धु्रवाकर्षण के कारण दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर प्रगतिशील विद्युत प्रवाह हमारे मस्तिष्क से प्रवेश करके पैर के रास्ते निकल जाएगा और प्रात: उठने पर मस्तिष्क विशुद्ध परमाणुओं से परिपूर्ण और सर्वथा स्वस्थ होगा।
जन्मकुण्डली जीवन में संभावित हर अदृश्य घटनाक्रम पर से पर्दा हटाकर घटना का प्रत्यक्ष दर्शन करा सकती है। वाहनों से संबंधित ऑटोमोबाइल और मैकेनिकल क्षेत्र आज बहुत अधिक विस्तृत हो गया है। प्राचीन काल में तो केवल हाथी, घोड़ा, ऊँट, बैल, महिष आदि पशुओं तथा रथ, बग्गी या घोड़ा गाड़ी, बैल गाड़ी, गधा गाड़ी आदि वाहनों या साधनों का ही प्रयोग होता था। पुष्पक विमान जैसे वायुयानों का वर्णन रामायण में मिलता है।
हिन्दु धर्मग्रंथों में प्रत्येक देवता का भी एक निश्चित वाहन बताया गया है। जैसे-गणेश जी का चूहा, शिवजी का बैल (नंदी), दुर्गा जी का शेर, कार्तिकेय का मोर, भगवान विष्णु का गरुड़, लक्ष्मी जी का उल्लू, सरस्वती जी का हंस, इन्द्र का ऐरावत हाथी, ग्रहों में सूर्य देव का रथ (सात घोड़ों का), चंद्रमा का हिरण, मंगल का मेष या मेंढ़ा, बुध का सिंह, गुरु का हाथी, शुक्र का घोड़ा, शनि का गीध पक्षी, राहु का रथ (जरख पशु से जुता हुआ) तथा केतु का मीन या मछली वाहन होता है। इस तरह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में पशुओं व पक्षियों को तथा इनके द्वारा निर्मित साधनों रथ आदि को ही वाहन के रूप में प्रयोग किया जाता था। पशु-पक्षियों का वाहन के अलावा संदेश वाहक व मालवाहक के रूप में भी प्रयोग होता था।
वाहनों के कारक ग्रह- वर्तमान में वाहनों का स्थान मशीनों ने ले लिया है। उपयोग तो वही रहा परंतु साधन और माध्यम बदल गये हैं। पहले पशु या वाहन व्यवसाय हेतु बृहस्पति ग्रह को प्रमुखता दी जाती थी पंरतु वर्तमान में वाहनों में मशीनरी व विद्युत का अधिक प्रयोग होने के कारण बृहस्पति के साथ शनि-मंगल व राहु की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। बृहस्पति चौपायों के, शनि मशीनों के, मंगल विद्युत के और राहु तकनीकी के कारक माने जाते है।
वर्तमान में वाहन का व्यवसाय केवल विक्रय तक ही सीमित नहीं रहा अपितु रिपेयरिंग यूनिट भी आवश्यक हो गई है।
मशीनों के प्रति रुझान- व्यक्ति का रुझान किस क्षेत्र विशेष में रहेगा यह जान लेना सर्वप्रथम आवश्यक है, उसके बाद अन्य ग्रह स्थितियों के आधार पर रुचि के क्षेत्र में निश्चित विषय का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
जन्म कुण्डली के लग्र व चंद्रमा पर शनि का प्रभाव मशीनों व वाहनों के प्रति सहज आकर्षण देता है तथा साथ में राहु का प्रभाव वस्तु या विषय की तकनीकी समझने की सहज चेष्टा उत्पन्न करता है।
जन्म लग्र व चंद्रमा पर ग्रह विशेष का प्रभाव व्यक्ति के मनोबल को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है।
वाहन से आजीविका- वाहन का सुख होना व वाहनों से आजीविका कमाना दो अलग-अलग बातें हैं। वाहन सुख व उपयोग के लिए जन्म पत्रिका का चौथा भाव और वाहन से आजीविका के लिए दसवां भाव विचारणीय होता है। जैसा कि पहले बताया है शनि व राहु ग्रह का लग्र व चंद्रमा पर प्रभाव होने पर जातक का यदि मशीनों के प्रति लगाव हो तो फिर दशम भाव के आधार पर आजीविका तक पहुँचना पड़ता है।
योग : वाहन व्यवसाय के लिए दशम भाग में बृहस्पति की राशि(धनु या मीन) सकारात्मक लक्षण होता है। कुण्डली में यदि बृहस्पति दशम भाव के स्वामी हों और चतुष्पद राशि (मेष,वृषभ या सिंह) में स्थित हों तथा चतुष्पद राशि में स्थित ग्रह से दृष्ट हों तो जातक निश्चित रूप से वाहन व्यवसाय, उद्योग या तकनीकी के क्षेत्र से आजीविका कमाता है।
छोटे व मंहगे वाहन- चतुष्पद राशि (मेष, वृषभ या सिंह) में स्थित दशमेष बृहस्पति पर यदि चतुष्पद (पशु) राशि में स्थित मंगल का दृष्टि प्रभाव हों तो जातक ऑटोमोबाइल इंजीनिंयरिग में सफल हो सकता है। अथवा अति आधुनिक तकनीकि पर आधारित मंहगे व छोटे दुपहिया या चार पहिया वाले वाहनों का व्यवसाय कर सकता है।
छोटे सवारी व माल वाहक वाहन- उपरोक्त स्थिति में स्थित बृहस्पति पर यदि चतुष्पाद राशि में स्थित बुध की दृष्टि हो तो व्यक्ति छोटे सवारी ढोने वाले तथा मालवाहक रिक्शा, टेम्पो, लगेज या साइकिल व साइकिल रिक्शा का व्यापार अथवा राहु या शनि का भी दशम पर दृष्टि प्रभाव हो तो मरम्मत का कारखाना डालकर भी व्यक्ति आजीविका कमा सकता है।
वाहनों से व्यवसाय- वाहन खरीदकर अपनी आजीविका कमाना भी एक क्षेत्र है। वास्तव में तो यह बहुत बड़ा भी है। ट्रांसपोर्ट, ट्रेवल एजेन्सीज, टयूर एंड ट्रेवल्स, सवारी गाड़ी, बस, जीप, कार आदि तथा मालवाहक वाहनों को किराये पर चलाकर भी उत्तम लाभ अर्जित किया जा सकता है।
चतुष्पाद राशि में स्थित दशमेश बृहस्पति पर यदि चंद्रमा की दृष्टि हो तथा चंद्रमा षड्वर्ग कुण्डलियों में बुध की राशियों में स्थित हों तो व्यक्ति, इसी तरह आजीविका कमाता है। वह वाहनों को उत्पादक वस्तुओं व रूप में काम में लेता है। चंद्रमा की दृष्टि से मँहगें व सुविधाजनक वाहनों से लाभ कमाता है परंतु यदि चंद्रमा के साथ शनि का प्रभाव हो तो बस, ट्रक आदि से भी लाभ कमाता है।
मँहगी मोपेड या वायुयान : जन्मपत्रिका में दशमेश बृहस्पति सिंह राशि में हों और सूर्य वृषभ राशि में हों तो व्यक्ति तेज गति वाले अति मँहगें वाहनों या वायुयानों के माध्यम से आजीविका के योग बन जाते हैं। किसी अच्छी एयर बस सर्विस में नौकरी मिल सकती है, एयर बस का मालिक हो सकते हैं, मँहगी मोपेड़ या मर्सीडीज जैसी कारों का व्यापार भी हो सकता है।
उपरोक्त वर्णन में चतुष्पद राशि में स्थित बृहस्पति पर चतुष्पद राशि में स्थित अन्य ग्रह की दृष्टि से विशेष प्रकार के वाहनों के व्यापार या व्यवसाय के योग बताए गए हैं। यदि उपरोक्त योगों में बृहस्पति पर यदि शनि व राहु का दृष्टि प्रभाव भी किसी कुण्डली में दिखाई देता है तो व्यक्ति केवल वाहन विशेष का व्यापार न करके, वाहन के पाटर््स का निर्माण, तकनीकी में सहयोग व सुधार यानि इंजीनियरिंग, वाहनों की मरम्मत आदि द्वारा भी अपनी आजीविका कमा सकते हैं।
फेंगशुई दीपक का उपयोग वास्तु दोषों को दूर करने में मैंने बहुत उपयोगी पाया है। अपनी प्रचलित नाम राशि की दिशा अथवा उससे संबंधित ग्रह की दिशा में दीपक अपने सोने के स्थान पर सायँकाल से 2/3 घंटे जलाएं। स्वास्थ्य लाभ के लिए यह बहुत अच्छा उपक्रम सिद्ध होता है।
2. एक खुले मुँह वाले काँच के पारदर्शी बर्तन में कुछ बच्चों के खेलने वाली रंगीन गोलियाँ डाल दें। इसमें जल भरें तथा सतह पर एक सफेद फ्लोटिंग मोमबत्ती जला दें। तैरने वाली मोमबत्ती न मिले तो किसी तैरने वाली पारदर्शी सतह पर सफेद मोमबत्ती जला दें। नित्य इस दीपक का पानी बदल दिया करें। यदि बाजार से फेंगशुई दीपक मिल जाए तो अधिक अच्छा होगा।
ध्यान केन्द्रित करने के लिए बौद्ध मठों में सुगन्धित मोमबत्तियाँ मिलती हैं। इनकी भीनी-भीनी सुगन्ध में अपने चित्त का तारतम्य बाह्य मण्डल से जोड़कर अपने विवेक और प्रज्ञा ज्ञान से ‘ची’ को सकारात्मक करने का प्रयास करें - आनन्द की अनुभूति होगी।
सृजनात्मक शक्तियों में मुक्त प्रवाह को अनुकूल करके अधिकाधिक दैहिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए वास्तुशास्त्र तथा फेंगशुई के प्रयोग भी अत्यधिक प्रचलित और प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं।
वास्तु विज्ञान के नियम और सिद्धान्त पूर्णतया व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक हैं। पृथ्वी का प्राकृतिक चुम्बकीय क्षेत्र, जिसमें कि चुम्बकीय आकर्षण सदैव उत्तर से दक्षिण दिशा में रहता है, हमारे जीवन को निरन्तर प्रभावित करता है। पल-प्रतिपल जीवन इस चुम्बकीय आकर्षण के प्रति आकर्षित है। प्राकृतिक रूप से इस अदृश्य शक्ति द्वारा हमारा जीवन संचार हो रहा है। एक छोटा सा उदाहरण देखें, इस आकर्षण की उपयोगिता स्वयं सिद्ध हो जाएगी - नियम है कि - सोते समय हम अपने पैर दक्षिण दिशा की ओर नहीं करते। सौर जगत, धु्रव के आकर्षण पर आलम्बित है, यह धु्रव उत्तर दिशा में स्थित है।
यदि कोई व्यक्ति दक्षिण दिशा की ओर पैर और उत्तर की ओर सिर करके सोएगा तो ध्रुव चुम्बकीय प्रभाव के कारण पेट में पड़ा भोजन पचने पर जिसका अनुपयोगी अर्थात् न पचने वाला अंश मल के रूप में नीचे जाना आवश्यक है, वह ऊपर की ओर आकर्षित होगा, इससे हृदय, मस्तिष्क आदि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके विपरीत उत्तर दिशा की ओर पैर होंगे तो एक तो हमारा भोजन परिपाक ठीक होगा। दूसरे वहाँ धु्रवाकर्षण के कारण दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर प्रगतिशील विद्युत प्रवाह हमारे मस्तिष्क से प्रवेश करके पैर के रास्ते निकल जाएगा और प्रात: उठने पर मस्तिष्क विशुद्ध परमाणुओं से परिपूर्ण और सर्वथा स्वस्थ होगा।
जन्मकुण्डली जीवन में संभावित हर अदृश्य घटनाक्रम पर से पर्दा हटाकर घटना का प्रत्यक्ष दर्शन करा सकती है। वाहनों से संबंधित ऑटोमोबाइल और मैकेनिकल क्षेत्र आज बहुत अधिक विस्तृत हो गया है। प्राचीन काल में तो केवल हाथी, घोड़ा, ऊँट, बैल, महिष आदि पशुओं तथा रथ, बग्गी या घोड़ा गाड़ी, बैल गाड़ी, गधा गाड़ी आदि वाहनों या साधनों का ही प्रयोग होता था। पुष्पक विमान जैसे वायुयानों का वर्णन रामायण में मिलता है।
हिन्दु धर्मग्रंथों में प्रत्येक देवता का भी एक निश्चित वाहन बताया गया है। जैसे-गणेश जी का चूहा, शिवजी का बैल (नंदी), दुर्गा जी का शेर, कार्तिकेय का मोर, भगवान विष्णु का गरुड़, लक्ष्मी जी का उल्लू, सरस्वती जी का हंस, इन्द्र का ऐरावत हाथी, ग्रहों में सूर्य देव का रथ (सात घोड़ों का), चंद्रमा का हिरण, मंगल का मेष या मेंढ़ा, बुध का सिंह, गुरु का हाथी, शुक्र का घोड़ा, शनि का गीध पक्षी, राहु का रथ (जरख पशु से जुता हुआ) तथा केतु का मीन या मछली वाहन होता है। इस तरह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में पशुओं व पक्षियों को तथा इनके द्वारा निर्मित साधनों रथ आदि को ही वाहन के रूप में प्रयोग किया जाता था। पशु-पक्षियों का वाहन के अलावा संदेश वाहक व मालवाहक के रूप में भी प्रयोग होता था।
वाहनों के कारक ग्रह- वर्तमान में वाहनों का स्थान मशीनों ने ले लिया है। उपयोग तो वही रहा परंतु साधन और माध्यम बदल गये हैं। पहले पशु या वाहन व्यवसाय हेतु बृहस्पति ग्रह को प्रमुखता दी जाती थी पंरतु वर्तमान में वाहनों में मशीनरी व विद्युत का अधिक प्रयोग होने के कारण बृहस्पति के साथ शनि-मंगल व राहु की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जाती है। बृहस्पति चौपायों के, शनि मशीनों के, मंगल विद्युत के और राहु तकनीकी के कारक माने जाते है।
वर्तमान में वाहन का व्यवसाय केवल विक्रय तक ही सीमित नहीं रहा अपितु रिपेयरिंग यूनिट भी आवश्यक हो गई है।
मशीनों के प्रति रुझान- व्यक्ति का रुझान किस क्षेत्र विशेष में रहेगा यह जान लेना सर्वप्रथम आवश्यक है, उसके बाद अन्य ग्रह स्थितियों के आधार पर रुचि के क्षेत्र में निश्चित विषय का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
जन्म कुण्डली के लग्र व चंद्रमा पर शनि का प्रभाव मशीनों व वाहनों के प्रति सहज आकर्षण देता है तथा साथ में राहु का प्रभाव वस्तु या विषय की तकनीकी समझने की सहज चेष्टा उत्पन्न करता है।
जन्म लग्र व चंद्रमा पर ग्रह विशेष का प्रभाव व्यक्ति के मनोबल को स्पष्ट रूप से प्रकट करता है।
वाहन से आजीविका- वाहन का सुख होना व वाहनों से आजीविका कमाना दो अलग-अलग बातें हैं। वाहन सुख व उपयोग के लिए जन्म पत्रिका का चौथा भाव और वाहन से आजीविका के लिए दसवां भाव विचारणीय होता है। जैसा कि पहले बताया है शनि व राहु ग्रह का लग्र व चंद्रमा पर प्रभाव होने पर जातक का यदि मशीनों के प्रति लगाव हो तो फिर दशम भाव के आधार पर आजीविका तक पहुँचना पड़ता है।
योग : वाहन व्यवसाय के लिए दशम भाग में बृहस्पति की राशि(धनु या मीन) सकारात्मक लक्षण होता है। कुण्डली में यदि बृहस्पति दशम भाव के स्वामी हों और चतुष्पद राशि (मेष,वृषभ या सिंह) में स्थित हों तथा चतुष्पद राशि में स्थित ग्रह से दृष्ट हों तो जातक निश्चित रूप से वाहन व्यवसाय, उद्योग या तकनीकी के क्षेत्र से आजीविका कमाता है।
छोटे व मंहगे वाहन- चतुष्पद राशि (मेष, वृषभ या सिंह) में स्थित दशमेष बृहस्पति पर यदि चतुष्पद (पशु) राशि में स्थित मंगल का दृष्टि प्रभाव हों तो जातक ऑटोमोबाइल इंजीनिंयरिग में सफल हो सकता है। अथवा अति आधुनिक तकनीकि पर आधारित मंहगे व छोटे दुपहिया या चार पहिया वाले वाहनों का व्यवसाय कर सकता है।
छोटे सवारी व माल वाहक वाहन- उपरोक्त स्थिति में स्थित बृहस्पति पर यदि चतुष्पाद राशि में स्थित बुध की दृष्टि हो तो व्यक्ति छोटे सवारी ढोने वाले तथा मालवाहक रिक्शा, टेम्पो, लगेज या साइकिल व साइकिल रिक्शा का व्यापार अथवा राहु या शनि का भी दशम पर दृष्टि प्रभाव हो तो मरम्मत का कारखाना डालकर भी व्यक्ति आजीविका कमा सकता है।
वाहनों से व्यवसाय- वाहन खरीदकर अपनी आजीविका कमाना भी एक क्षेत्र है। वास्तव में तो यह बहुत बड़ा भी है। ट्रांसपोर्ट, ट्रेवल एजेन्सीज, टयूर एंड ट्रेवल्स, सवारी गाड़ी, बस, जीप, कार आदि तथा मालवाहक वाहनों को किराये पर चलाकर भी उत्तम लाभ अर्जित किया जा सकता है।
चतुष्पाद राशि में स्थित दशमेश बृहस्पति पर यदि चंद्रमा की दृष्टि हो तथा चंद्रमा षड्वर्ग कुण्डलियों में बुध की राशियों में स्थित हों तो व्यक्ति, इसी तरह आजीविका कमाता है। वह वाहनों को उत्पादक वस्तुओं व रूप में काम में लेता है। चंद्रमा की दृष्टि से मँहगें व सुविधाजनक वाहनों से लाभ कमाता है परंतु यदि चंद्रमा के साथ शनि का प्रभाव हो तो बस, ट्रक आदि से भी लाभ कमाता है।
मँहगी मोपेड या वायुयान : जन्मपत्रिका में दशमेश बृहस्पति सिंह राशि में हों और सूर्य वृषभ राशि में हों तो व्यक्ति तेज गति वाले अति मँहगें वाहनों या वायुयानों के माध्यम से आजीविका के योग बन जाते हैं। किसी अच्छी एयर बस सर्विस में नौकरी मिल सकती है, एयर बस का मालिक हो सकते हैं, मँहगी मोपेड़ या मर्सीडीज जैसी कारों का व्यापार भी हो सकता है।
उपरोक्त वर्णन में चतुष्पद राशि में स्थित बृहस्पति पर चतुष्पद राशि में स्थित अन्य ग्रह की दृष्टि से विशेष प्रकार के वाहनों के व्यापार या व्यवसाय के योग बताए गए हैं। यदि उपरोक्त योगों में बृहस्पति पर यदि शनि व राहु का दृष्टि प्रभाव भी किसी कुण्डली में दिखाई देता है तो व्यक्ति केवल वाहन विशेष का व्यापार न करके, वाहन के पाटर््स का निर्माण, तकनीकी में सहयोग व सुधार यानि इंजीनियरिंग, वाहनों की मरम्मत आदि द्वारा भी अपनी आजीविका कमा सकते हैं।
फेंगशुई दीपक का उपयोग वास्तु दोषों को दूर करने में मैंने बहुत उपयोगी पाया है। अपनी प्रचलित नाम राशि की दिशा अथवा उससे संबंधित ग्रह की दिशा में दीपक अपने सोने के स्थान पर सायँकाल से 2/3 घंटे जलाएं। स्वास्थ्य लाभ के लिए यह बहुत अच्छा उपक्रम सिद्ध होता है।
2. एक खुले मुँह वाले काँच के पारदर्शी बर्तन में कुछ बच्चों के खेलने वाली रंगीन गोलियाँ डाल दें। इसमें जल भरें तथा सतह पर एक सफेद फ्लोटिंग मोमबत्ती जला दें। तैरने वाली मोमबत्ती न मिले तो किसी तैरने वाली पारदर्शी सतह पर सफेद मोमबत्ती जला दें। नित्य इस दीपक का पानी बदल दिया करें। यदि बाजार से फेंगशुई दीपक मिल जाए तो अधिक अच्छा होगा।
ध्यान केन्द्रित करने के लिए बौद्ध मठों में सुगन्धित मोमबत्तियाँ मिलती हैं। इनकी भीनी-भीनी सुगन्ध में अपने चित्त का तारतम्य बाह्य मण्डल से जोड़कर अपने विवेक और प्रज्ञा ज्ञान से ‘ची’ को सकारात्मक करने का प्रयास करें - आनन्द की अनुभूति होगी।
वास्तु -फेंगशुई, वैज्ञानिक परिपेक्ष
वास्तुशास्त्र में जीवन को प्रभावित करने वाले ऐसे अनेक तथ्य हैं परन्तु भौतिकवाद की अन्धड़ दौड़ में उनका उपयोग पा लेना लुप्तप्राय: हो गया अथवा विषय के प्रति अज्ञानतावश उसका पूरा-पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा। हमारी सृष्टि पंच भूतात्मक है अर्थात् इसमें पंच तत्वों का समावेश है। शरीर भी इन्हीं पाँच तत्वों का सम्मिश्रण है। आध्यात्मवाद में घुसकर अण्ड-पिण्ड सिद्धान्त को समझकर ही तथ्य को समझा जा सकता है।
प्रत्येक निर्माण कार्य में भी यही पंच तत्व कारक हैं, इनमें सामंजस्य बनाना ही वास्तुशास्त्र अथवा फेंगशुई सिखाता है। जब भी इन पंच तत्वों में तथा इन ऊर्जाओं में प्रकृति से विपरीत प्रभाव बनने लगता है तो उसके दुष्परिणाम हमें भोगने ही पड़ते हैं। डेविडसन की पुस्तक ‘The Great Pyramid’ का अध्ययन-मनन करें तो पता चलेगा कि पूर्व मिश्रवासियों को ऐसे प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों को ज्ञात करने का ज्ञान प्राप्त था जो मानव जीवन के लिए सर्वाधिक सु:खद था। अनेक प्राचीन मंदिर, ऐतिहासिक भवन तथा पिरामिड आदि वास्तु शास्त्र के सजीव उदाहरण हैं।
इन सबमें प्रयुक्त कोण, बिन्दु, आयत, वर्ग आदि ज्यामितीय आकृतियों में इन सकारात्मक ऊर्जाओं का विलक्षण विज्ञान छिपा है। यह विज्ञान यहाँ तक विकसित था कि पिरामिड की एक कक्ष की ऊध्र्वाधर विभाजन रेखाओं अथवा अनुप्रस्थ दीवारों की रेखाओं को नीचे आकर एक-दूसरे स्थान को काटें तो इन काट-कूटों के बीच के स्थानों का मापन पिरामिड इंचों में करके उसे वर्ष, माह, दिन में यदि जोड़ा जाए तो महत्वपूर्ण तिथियों की भविष्यवाणी तक की जा सकती थी।
पिरामिड द्वारा जिन भविष्यवाणियों का संकेत मिला है वे हंै पृथ्वी का जन्मकाल, बाढ़, मानव का भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान और पतन, महान सम्राटों के अनेक नैतिक और राजनैतिक युद्ध-महायुद्ध आदि। ये पुरानिर्माण कितनी सटीक वैज्ञानिक गणनाओं पर आधारित थे इसका अनुमान उनके ज्यामितीय अध्ययनों से सहज लग जाता है। गीजा के ग्रेट पिरामिड का अध्ययन करने से वैज्ञानिकों के सामने और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। उनके आधार का क्षेत्रफल निकालकर, ऊँचाई के बारह गुना संख्या से भाग देने पर जो योगफल प्राप्त होता है वह गणितीय स्थिरांक ‘पाई’ के मान (3.143) के बराबर था।
इसी प्रकार उसकी ऊँचाई को लाख गुना करने पर पृथ्वी से सूर्य की दूरी 9 करोड़ 30 लाख मील प्राप्त होती है। सूर्य की ऊर्जा कुल दूरी के लाखवें हिस्से में बससे अधिक संकेदिन्द्रत होती है। पिरामिड के मध्य का उत्तर-दक्षिण अक्ष संपूर्ण पृथ्वी को ठीक दो भागों में बाँटता है, साथ ही पृथ्वी के जल और स्थल को ठीक आधा कर देता है। इससे स्पष्ट है कि पृथ्वी के गोलाकार होने का पूर्व में ज्ञान था। पिरामिड गुरुत्वाकर्षण केन्द्र के ठीक ऊपर स्थित हंै।
इसका पदाधार 635600 मीटर है, जो पृथ्वी के अद्र्धव्यास का ठीक दसवाँ भाग है। आधुनिक मीटर इसका चालीसवाँ हिस्सा है। वर्ष में 365 दिन होते हैं, इसका सौ गुना कर, उसमें एक दिन के 24 घंटे जोडऩे पर योग 36524 होता है, यह मीटर में पिरामिड के आधार की परिधि है। इसके दरवाजे सर्वत्र पूर्वाभिमुखी हैं। उत्तरायण गति के अंत में सूर्य जिस बिन्दु तक पहुंचते हंै और वापस लौटते हैं उसको ‘वसंत संपात’ कहते हैं।
सूर्य 21 जून से इस संपात बिन्दु पर पहुँचते हंै। प्रत्येक दरवाजे का इसी बिन्दु की ओर होना निश्चय ही किसी विशिष्ट उद्देश्य की ओर इंगित करता है। यह सब अकारण नहीं हो सकता।
वैज्ञानिक यह भी मानने लगे हैं कि वास्तु के अद्भुत यह निर्माण कम से कम शवगाह नहीं हो सकते, यह अवश्य ही किसी अतिविकसित सभ्यता के उपासना गृह रहे होंगे। दूसरे यह भी मत है कि असाधारण ब्रह्माण्डीय ऊर्जा वाले तथा दिव्य रूपान्तर क्षमता वाले यह निर्माण अतिविकसित वेधशाला रही हों। जो भी रहा हो, यह अवश्य सिद्ध होता है कि निर्माण यदि वास्तु के नियमों को ध्यान में रखकर किया गया है तो वह हर दृष्टि से सुखदायी होगा। परन्तु फैराहो अथवा पूर्व-पूर्वान्तर से चले आ रहे इस विलक्षण शास्त्र का प्रयोग कालान्तर में सिवाय राज प्रासाद, मन्दिर, ऐतिहासिक भवन, स्मारकों आदि को छोड़कर नगण्य होता गया।
इसका मुख्य कारण था शहरीकरण अथवा भौतिक दौड़ की आपाधापी जिसके कारण दैहिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों में निरन्तर कमी आती गयी। सत्तर-अस्सी के दशक में हमें शास्त्र के प्रति पुन: जागृति प्रारंभ हुई परन्तु दुर्भाग्य यहाँ रहा कि यह शास्त्र पुन: कुछेक ऐसे हाथों में चला गया जिनको या तो राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था या जिनके साथ मीडिया था। जिस कारण उनके द्वारा इसका दोहन ही हुआ और जन साधारण इसके सु:प्रभाव से अछूता रहा। हम कुछेक लोग इस दिशा में सतत् प्रयत्नशील हंै कि यह किसी की बपौती न बने बल्कि ‘सर्वे भवन्तु सु:खिन: .....’ के सिद्धान्त पर कार्य करें।
इन सब विपरीत ऊर्जाओं को अनुकूल करने में फेंगशुई बहुत सहायक सिद्ध हुई है। इस छोटे से लेख में मेरा यही प्रयास है कि जन साधारण इस गुप्तादिगुप्त विद्या को समझे, मनन करे और व्यवहार में लाए। यदि निर्माण वास्तु शास्त्र के अनुकूल नहीं हुआ है तो भी इसको अनुकूल किया जा सकता है और इसमें फेंगशुई सबसे सरल उपक्रम है। इस विज्ञान का सिद्धांत आध्यात्मविद्या में वर्णित ‘नाद’ और ‘बिन्दु’ का ही आधार है। विज्ञान भी यही मानता है कि प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप संतुलित व्यवस्था में चलता रहता है।
फेंगशुई में सब कुछ ‘ची’ अर्थात् सकारात्मक ऊर्जा पर आधारित है। ‘ची’ के अनुकूल करने के लिए घर में नौ घंटियों वाला विंड चाइम बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है। घर की बलाएं दूर करने के लिए ड्रैगन का चित्र अनुकूल ‘ची’ देता है। उत्तर दिशा में फिश एक्वेरियम तथा दक्षिण दिशा में गरुड़ का चित्र रखना स्वास्थ्य वर्धक सिद्ध होता है। सुख-समृद्धि के लिए हँसता हुआ चीनी तोंदियल बुड्ढा, हाथ उठाए चीनी साधु बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं।
भारतीय पाश्चात्य ज्योतिष में प्रचलित 12 राशियों की भांति चीन में फेंगशुई में भी 12 राशियाँ प्रचलित हैं। इनसे संबंधित पैन्डेंट, चित्र तथा अन्य सामग्रियाँ मिलती हैं। अपनी राशि के अनुसार यदि यह घर में प्रयोग किए जाएं तो सकारात्मक ची घर में उत्पन्न किया जा सकता है।
वास्तु शास्त्र में भवन का सबसे बड़ा दोष तब माना जाता है जब उसके उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व अर्थात् ईशान कोण में शौचालय स्थित हो। ऐसी स्थिति में शौचालय के दक्षिण-पश्चिम कोण में एक ऐसा कार्बन आर्क लैंप, जिसका प्रकाश उसके उत्तर-पूर्वी कोण पर पड़े, लगा दें इससे यह दोष कम होगा।
फेंगशुई के अनुसार भवन में विभिन्न स्थानों पर व्यवस्थित ढंग से दर्पण भी अनुकूल प्रभाव देते हैं। दर्पण ऊर्जा विकिरण का कार्य करते हैं। निम्न पाँच परिस्थितियों में दर्पण का प्रयोग उपयोगी सिद्ध होता है : 1. यदि कमरे की दक्षिण दीवार उत्तर से बड़ी हो, 2. ईशान में जल अथवा पूजा की व्यवस्था न हो पाई हो, 3. पश्चिमी दीवार पूर्व से बड़ी हो, 4. उत्तरी-पूर्वी कोण से दक्षिण-पश्चिम कोण छोटा हो, 5. ईशान में शौचालय हो।
फेंगशुई में भी पंचभूतात्मक तत्व का समावेश माना गया है। इन तत्वों के परे कुछ नहीं मानते। इन आकार आकृतियों का प्रयोग भी सकारात्मक ची के लिए प्रचलन में है। पाठक अपने तत्व के अनुसार लाभ उठाएं।
फेंगशुई दीपक का उपयोग वास्तु दोषों को दूर करने में मैंने बहुत उपयोगी पाया है। अपनी प्रचलित नाम राशि की दिशा अथवा उससे संबंधित ग्रह की दिशा में दीपक अपने सोने के स्थान पर सायँकाल से 2/3 घंटे जलाएं। स्वास्थ्य लाभ के लिए यह बहुत अच्छा उपक्रम सिद्ध होता है।
2. एक खुले मुँह वाले काँच के पारदर्शी बर्तन में कुछ बच्चों के खेलने वाली रंगीन गोलियाँ डाल दें। इसमें जल भरें तथा सतह पर एक सफेद फ्लोटिंग मोमबत्ती जला दें। तैरने वाली मोमबत्ती न मिले तो किसी तैरने वाली पारदर्शी सतह पर सफेद मोमबत्ती जला दें। नित्य इस दीपक का पानी बदल दिया करें। यदि बाजार से फेंगशुई दीपक मिल जाए तो अधिक अच्छा होगा।
ध्यान केन्द्रित करने के लिए बौद्ध मठों में सुगन्धित मोमबत्तियाँ मिलती हैं। इनकी भीनी-भीनी सुगन्ध में अपने चित्त का तारतम्य बाह्य मण्डल से जोड़कर अपने विवेक और प्रज्ञा ज्ञान से ‘ची’ को सकारात्मक करने का प्रयास करें - आनन्द की अनुभूति होगी।
प्रत्येक निर्माण कार्य में भी यही पंच तत्व कारक हैं, इनमें सामंजस्य बनाना ही वास्तुशास्त्र अथवा फेंगशुई सिखाता है। जब भी इन पंच तत्वों में तथा इन ऊर्जाओं में प्रकृति से विपरीत प्रभाव बनने लगता है तो उसके दुष्परिणाम हमें भोगने ही पड़ते हैं। डेविडसन की पुस्तक ‘The Great Pyramid’ का अध्ययन-मनन करें तो पता चलेगा कि पूर्व मिश्रवासियों को ऐसे प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों को ज्ञात करने का ज्ञान प्राप्त था जो मानव जीवन के लिए सर्वाधिक सु:खद था। अनेक प्राचीन मंदिर, ऐतिहासिक भवन तथा पिरामिड आदि वास्तु शास्त्र के सजीव उदाहरण हैं।
इन सबमें प्रयुक्त कोण, बिन्दु, आयत, वर्ग आदि ज्यामितीय आकृतियों में इन सकारात्मक ऊर्जाओं का विलक्षण विज्ञान छिपा है। यह विज्ञान यहाँ तक विकसित था कि पिरामिड की एक कक्ष की ऊध्र्वाधर विभाजन रेखाओं अथवा अनुप्रस्थ दीवारों की रेखाओं को नीचे आकर एक-दूसरे स्थान को काटें तो इन काट-कूटों के बीच के स्थानों का मापन पिरामिड इंचों में करके उसे वर्ष, माह, दिन में यदि जोड़ा जाए तो महत्वपूर्ण तिथियों की भविष्यवाणी तक की जा सकती थी।
पिरामिड द्वारा जिन भविष्यवाणियों का संकेत मिला है वे हंै पृथ्वी का जन्मकाल, बाढ़, मानव का भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान और पतन, महान सम्राटों के अनेक नैतिक और राजनैतिक युद्ध-महायुद्ध आदि। ये पुरानिर्माण कितनी सटीक वैज्ञानिक गणनाओं पर आधारित थे इसका अनुमान उनके ज्यामितीय अध्ययनों से सहज लग जाता है। गीजा के ग्रेट पिरामिड का अध्ययन करने से वैज्ञानिकों के सामने और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। उनके आधार का क्षेत्रफल निकालकर, ऊँचाई के बारह गुना संख्या से भाग देने पर जो योगफल प्राप्त होता है वह गणितीय स्थिरांक ‘पाई’ के मान (3.143) के बराबर था।
इसी प्रकार उसकी ऊँचाई को लाख गुना करने पर पृथ्वी से सूर्य की दूरी 9 करोड़ 30 लाख मील प्राप्त होती है। सूर्य की ऊर्जा कुल दूरी के लाखवें हिस्से में बससे अधिक संकेदिन्द्रत होती है। पिरामिड के मध्य का उत्तर-दक्षिण अक्ष संपूर्ण पृथ्वी को ठीक दो भागों में बाँटता है, साथ ही पृथ्वी के जल और स्थल को ठीक आधा कर देता है। इससे स्पष्ट है कि पृथ्वी के गोलाकार होने का पूर्व में ज्ञान था। पिरामिड गुरुत्वाकर्षण केन्द्र के ठीक ऊपर स्थित हंै।
इसका पदाधार 635600 मीटर है, जो पृथ्वी के अद्र्धव्यास का ठीक दसवाँ भाग है। आधुनिक मीटर इसका चालीसवाँ हिस्सा है। वर्ष में 365 दिन होते हैं, इसका सौ गुना कर, उसमें एक दिन के 24 घंटे जोडऩे पर योग 36524 होता है, यह मीटर में पिरामिड के आधार की परिधि है। इसके दरवाजे सर्वत्र पूर्वाभिमुखी हैं। उत्तरायण गति के अंत में सूर्य जिस बिन्दु तक पहुंचते हंै और वापस लौटते हैं उसको ‘वसंत संपात’ कहते हैं।
सूर्य 21 जून से इस संपात बिन्दु पर पहुँचते हंै। प्रत्येक दरवाजे का इसी बिन्दु की ओर होना निश्चय ही किसी विशिष्ट उद्देश्य की ओर इंगित करता है। यह सब अकारण नहीं हो सकता।
वैज्ञानिक यह भी मानने लगे हैं कि वास्तु के अद्भुत यह निर्माण कम से कम शवगाह नहीं हो सकते, यह अवश्य ही किसी अतिविकसित सभ्यता के उपासना गृह रहे होंगे। दूसरे यह भी मत है कि असाधारण ब्रह्माण्डीय ऊर्जा वाले तथा दिव्य रूपान्तर क्षमता वाले यह निर्माण अतिविकसित वेधशाला रही हों। जो भी रहा हो, यह अवश्य सिद्ध होता है कि निर्माण यदि वास्तु के नियमों को ध्यान में रखकर किया गया है तो वह हर दृष्टि से सुखदायी होगा। परन्तु फैराहो अथवा पूर्व-पूर्वान्तर से चले आ रहे इस विलक्षण शास्त्र का प्रयोग कालान्तर में सिवाय राज प्रासाद, मन्दिर, ऐतिहासिक भवन, स्मारकों आदि को छोड़कर नगण्य होता गया।
इसका मुख्य कारण था शहरीकरण अथवा भौतिक दौड़ की आपाधापी जिसके कारण दैहिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों में निरन्तर कमी आती गयी। सत्तर-अस्सी के दशक में हमें शास्त्र के प्रति पुन: जागृति प्रारंभ हुई परन्तु दुर्भाग्य यहाँ रहा कि यह शास्त्र पुन: कुछेक ऐसे हाथों में चला गया जिनको या तो राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था या जिनके साथ मीडिया था। जिस कारण उनके द्वारा इसका दोहन ही हुआ और जन साधारण इसके सु:प्रभाव से अछूता रहा। हम कुछेक लोग इस दिशा में सतत् प्रयत्नशील हंै कि यह किसी की बपौती न बने बल्कि ‘सर्वे भवन्तु सु:खिन: .....’ के सिद्धान्त पर कार्य करें।
इन सब विपरीत ऊर्जाओं को अनुकूल करने में फेंगशुई बहुत सहायक सिद्ध हुई है। इस छोटे से लेख में मेरा यही प्रयास है कि जन साधारण इस गुप्तादिगुप्त विद्या को समझे, मनन करे और व्यवहार में लाए। यदि निर्माण वास्तु शास्त्र के अनुकूल नहीं हुआ है तो भी इसको अनुकूल किया जा सकता है और इसमें फेंगशुई सबसे सरल उपक्रम है। इस विज्ञान का सिद्धांत आध्यात्मविद्या में वर्णित ‘नाद’ और ‘बिन्दु’ का ही आधार है। विज्ञान भी यही मानता है कि प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप संतुलित व्यवस्था में चलता रहता है।
फेंगशुई में सब कुछ ‘ची’ अर्थात् सकारात्मक ऊर्जा पर आधारित है। ‘ची’ के अनुकूल करने के लिए घर में नौ घंटियों वाला विंड चाइम बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है। घर की बलाएं दूर करने के लिए ड्रैगन का चित्र अनुकूल ‘ची’ देता है। उत्तर दिशा में फिश एक्वेरियम तथा दक्षिण दिशा में गरुड़ का चित्र रखना स्वास्थ्य वर्धक सिद्ध होता है। सुख-समृद्धि के लिए हँसता हुआ चीनी तोंदियल बुड्ढा, हाथ उठाए चीनी साधु बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं।
भारतीय पाश्चात्य ज्योतिष में प्रचलित 12 राशियों की भांति चीन में फेंगशुई में भी 12 राशियाँ प्रचलित हैं। इनसे संबंधित पैन्डेंट, चित्र तथा अन्य सामग्रियाँ मिलती हैं। अपनी राशि के अनुसार यदि यह घर में प्रयोग किए जाएं तो सकारात्मक ची घर में उत्पन्न किया जा सकता है।
वास्तु शास्त्र में भवन का सबसे बड़ा दोष तब माना जाता है जब उसके उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व अर्थात् ईशान कोण में शौचालय स्थित हो। ऐसी स्थिति में शौचालय के दक्षिण-पश्चिम कोण में एक ऐसा कार्बन आर्क लैंप, जिसका प्रकाश उसके उत्तर-पूर्वी कोण पर पड़े, लगा दें इससे यह दोष कम होगा।
फेंगशुई के अनुसार भवन में विभिन्न स्थानों पर व्यवस्थित ढंग से दर्पण भी अनुकूल प्रभाव देते हैं। दर्पण ऊर्जा विकिरण का कार्य करते हैं। निम्न पाँच परिस्थितियों में दर्पण का प्रयोग उपयोगी सिद्ध होता है : 1. यदि कमरे की दक्षिण दीवार उत्तर से बड़ी हो, 2. ईशान में जल अथवा पूजा की व्यवस्था न हो पाई हो, 3. पश्चिमी दीवार पूर्व से बड़ी हो, 4. उत्तरी-पूर्वी कोण से दक्षिण-पश्चिम कोण छोटा हो, 5. ईशान में शौचालय हो।
फेंगशुई में भी पंचभूतात्मक तत्व का समावेश माना गया है। इन तत्वों के परे कुछ नहीं मानते। इन आकार आकृतियों का प्रयोग भी सकारात्मक ची के लिए प्रचलन में है। पाठक अपने तत्व के अनुसार लाभ उठाएं।
फेंगशुई दीपक का उपयोग वास्तु दोषों को दूर करने में मैंने बहुत उपयोगी पाया है। अपनी प्रचलित नाम राशि की दिशा अथवा उससे संबंधित ग्रह की दिशा में दीपक अपने सोने के स्थान पर सायँकाल से 2/3 घंटे जलाएं। स्वास्थ्य लाभ के लिए यह बहुत अच्छा उपक्रम सिद्ध होता है।
2. एक खुले मुँह वाले काँच के पारदर्शी बर्तन में कुछ बच्चों के खेलने वाली रंगीन गोलियाँ डाल दें। इसमें जल भरें तथा सतह पर एक सफेद फ्लोटिंग मोमबत्ती जला दें। तैरने वाली मोमबत्ती न मिले तो किसी तैरने वाली पारदर्शी सतह पर सफेद मोमबत्ती जला दें। नित्य इस दीपक का पानी बदल दिया करें। यदि बाजार से फेंगशुई दीपक मिल जाए तो अधिक अच्छा होगा।
ध्यान केन्द्रित करने के लिए बौद्ध मठों में सुगन्धित मोमबत्तियाँ मिलती हैं। इनकी भीनी-भीनी सुगन्ध में अपने चित्त का तारतम्य बाह्य मण्डल से जोड़कर अपने विवेक और प्रज्ञा ज्ञान से ‘ची’ को सकारात्मक करने का प्रयास करें - आनन्द की अनुभूति होगी।
जीवन-शैली और संस्कृति जन्य रोग
विगत कुछ वर्षों में बढ़ते औद्योगीकरण तथा औद्योगिक रूप से उन्नत देशों और विकासशील देशों में जीवनशैली (जिसे पाश्चात्य संस्कृति के नाम से जाना जाता है) में बहुत परिवर्तन आया है।
जहां खाने-पीने के तरीकों में गिरावट, डिब्बा बंद खाने-पीने में बढ़ते टॉक्सिनों के आधिक्य, ऐन्टिबायोटिक्स दवाओं का अति उपयोग और नित्य नई एंटिबायोटिक्स का प्रयोग, अत्यधिक तनाव और भागदौड़ की जीवनचर्या में व्यायाम का अभाव आदि आम हो गया है, जिन्हें हम सभ्यताजन्य रोग कहते हैं। जैसे- कम उम्र में हार्ट-अटैक, डायबिटीज, चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, नपुंसकता, महिलाओं में मासिक स्राव का जल्दी बंद होना तथा लड़कियों में अनियमित मासिक स्राव और अनिद्रा आदि।
इन मामलों में सबसे बढिय़ा सलाह होगी कि आप सदैव ध्यान रखें कि आप क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं, कितनी बार खा रहे हैं, अपनी भूल पर नियंत्रण रखें, नियमित व्यायाम करें तथा तनाव-व्यवस्थापन (योग-मेडिटेशन) की विधियों का पालन करें जिससे स्वास्थ्य में सुधार हो और शरीर निरोगी रह सके।
आपकी जानकारी के लिए निम्न बिन्दुओं पर सूक्ष्म प्रकाश रूपी विवेचन किया गया है, जिसके बारे में आप समझ सके।
खानपान की गलत आदतें : भौतिकतावादी युग में बहुत से लोग समयाभाव का बहाना बनाकर ऐसे खानपान क तरीके अपनाते हैं, जिनमें ज्यादा कैलोरी की खपत और असंतुलित शरीर पुष्टि होती है। डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बाजार के बने फास्टफूड पदार्थ, रेस्टोरेंटों पर बने खाने के फैशन और बढ़ते पशु मांस की खपत के कारण शरीर में ‘saturated fat’ तथा कॉलेस्ट्रोल का स्तर बढ़ता है, जो अनेकों रोगों का स्वत: आमंत्रण है।
ज्यादा रिफाइण्ड और तैयार भोजन के कारण प्राकृतिक विटामिन, खनिज पदार्थों (शरीर के लिए आवश्यक minerule) Sibers (cellulose) और अन्य लाभदायक पौष्टिक पदार्थों की शरीर में समुचित आपूर्ति नहीं हो पाती है। तात्कालिक जाँचों (Investigations) और अध्ययनों से पाया गया कि जिनके खानपान में सब्जियां, दालें, फलों, सलाद तथा ऑलिव तैल (परम्परागत तैलों) का उपयोग ज्यादा होता है, उन लोगों की आयु तथा स्वास्थ्य अपेक्षाकृत ज्यादा और बेहतर पाया गया है अत: स्वास्थ्य और आयु में बढ़ोत्तरी पराम्परागत भोजन शैली को अपनाने से होती है।
शरीर में अत्यधिक टॉक्सिनों की मौजूदगी : ज्यादातर डिब्बा बंद पदार्थों और फास्ट फूड़ में रंगने के पदार्थों व preservatives के कारण टॉक्सिनों का आधिक्य होता है। खाने में रंग और स्वाद के लिए मिलाए गए ज्यादातर पदार्थ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। प्रतिदिन इन toxins युक्त पदार्थों के खाने से शरीर में तनाव और Acidity (जलन) संबंधित टॉक्सिनों का निर्माण होता है तथा इनके साथ-साथ मदिरा (शराब) के सेवन, निकोटिन तथा कैफीन के उत्पादों का सेवन करने से इनसे शरीर में, इनसे संबंधित टॉक्सिन्स भी भेजते रहते हुए शरीर पर अत्याचार करते रहते हैं। वास्तव में आज के समाज में यह सब आम बात हो गई है कि हम लोग अपने शरीर में शारीरिक अंग-प्रदर्शन की परिव्यक्त (विसर्जित) करने की क्षमता से ज्यादा टॉक्सिन भरते जाते हैं, जिससे हमें जीवनशैली जन्य रोग होने लगते हैं। जैसे- विभिन्न प्रकार की त्वचा एलर्जी, अस्थमा, कैंसर तथा एस्ट्रोएन्ट्राइटिस समस्याएं आदि अत: ताजा और सुपाच्य पदार्थों का ही अपने परम्परागत तरीकों से उपयोग में लाना चाहिए।
बढ़ता शारीरिक अम्ल स्तर : हमारे शरीर का सामान्य स्तर 7.2 से 7.4 तक होता है, जोकि तनिक क्षारीय होता है। भोजन में अत्यधिक गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से पाचन तंत्र द्वारा पचाने हेतु अम्ल पैदा होता है। शरीर द्वारा इस अम्ल को फेफड़ों, किडनी और त्वचा के तन्तुओं द्वारा संतुलित किया जाता है। उग्र के बढऩे के साथ के साथ इस बढ़े हुए अम्ल को संतुलित करने की क्षमता कम होती जाती है। शरीर में बढ़े हुए अम्ल स्तर को शरीर के इन अंगों द्वारा संतुलन में शरीर से कैल्शियम और मैग्नीशियम और क्षारीय पदार्थों को सोखा जाता है, जिससे शरीर की साधारण पेशियों के कमजोर होने से हड्डियों के कमजोर होने तक के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। हड्डियों का खोखला होना (Osteopenia and Osteoporosis) प्रारंभ हो जाता है।
ज्यादा अम्ल (Hyperacidity) से जुड़े रोग जैसे - उच्च रक्तचाप और निम्न रक्तचाप (Low B.P.) , डायबिटीज, कॉलेस्ट्रोल और हृदय पेशियों के रोग आदि अत: इस प्रकार के क्लोसोफिल युक्त पदार्थों का अधिक उपयोग करना चाहिए। जिससे शरीर का क्क॥ लेवल संतुलित रहकर इन बीमारियों स निजात पाई जा सके।
एन्टिबायोटिक्स और दवाईयां : आए दिन पुरानी एन्टीबायोटिक्स दवाईयों के प्रति रोगकारक जीवाणुओं में उत्पन्न प्रतिरोधक क्षमता के कारण शरीर में रोगों के प्रति इनकी क्रियाशीलता का स्तर गिरता जा रहा है, अत: नई उच्चस्तरीय (High dose) एन्टीबायोटिक्स के प्रयोग के कारण लीवर, आमाशय, आमाशय के अम्लीय स्तर तथा रोगकारक जीवाणुओं के साथ शरीर के लिए लाभदायक जीवाणुओं के नष्ट करने जैसे प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ रहे हैं जिससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता का शनै: शनै: ह्रास होता जा रहा है अत: इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए आयुर्वेद और प्राकृतिक जीवनशैली का सहारा लेना चाहिए।
तनाव और उच्च रक्तचाप : काम, भागदौड़ भरी जीवनचर्या और सामाजिक दायित्वों से उत्पन्न तनाव हमारे शरीर के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है। ज्यादा तनाव से मस्तिष्क के कुछ हिस्सों में प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। जिसके कारण शरीर के अन्य अंगों और पेशियों में अनावश्यक संदेश impulse जाते हैं। हमारे शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है कि हम किस हद तक तनाव और उससे उत्पन्न impulses को बिना बीमार पड़े सहनकर सकें। जब हमें डर या कोई मानसिक आघात लगता है तो हम प्राय: बीमार पड़ जाते हैं और हमारा शरीर इमरजेन्सी की परिस्थिति में चला जाता है जिसमें हमारे शरीर की ग्रंथियां, स्नायु तंत्र, मस्तिष्क का हाइपोथैलेगिक भाग और हाथ-पैर आदि प्रभावित होते हैं। कई लोग इस तथ्य को मानकर तनाव व्यस्थापन (योग व मेडिटेशन) कर लेते हैं।
व्यायाम का अभाव : हममें से हर कोई एक व्यस्त पेशेवर और सामाजिक जीवन जीता है। इसमें से ज्यादातर लोग आजकल व्यायाम तक नहीं कर पाते हैं, पर अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में शरीर में सुस्ती, मोटापा, आन्त्र रोग, हृदय के रोग, कॉलेस्ट्रोल का बढऩा, किडनी रोग और अन्य कई रोगों का शिकार बनना पड़ता है। व्यायाम आदि करने से शरीर तन्दुरुस्त रहता है जिससे शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है, और स्वस्थ्य जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
कीटनाशकों और वनस्पतिनाशकों का अत्यधिक प्रयोग : आजकल कृषि उत्पादकों क अत्यधिक पैदावार, साग-सब्जियों पर लगने वाले कीटों, चूहों तथा अनचाही वनस्पतियों (खरपतवार) के नाश के लिए विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है जिसके कारण इनके खाने और पीने के पानी आदि पदार्थों में सम्मिश्रण के कारण लोगों को इनके दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है। इनके दुष्प्रभावों से जननीय इन्द्रियों तथा ग्रंन्थियों के तंत्रों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके अलावा त्वचा पर फफोले, लाल चकत्ते और जलन, आँखों, नाक व मुंह का जलना, फूलना, उल्टी का मन होना, दस्त लगना, अंगों का सुन्नपन होना, थकान और सिरदर्द जैसे कष्टों का सामना करना पड़ता है।
इन मामलों में सबसे बढिय़ा सलाह होगी कि आप सदैव ध्यान रखें कि आप क्या खा रहे हैं, क्या पी रहे हैं, कितनी बार खा रहे हैं, अपनी भूल पर नियंत्रण रखें, नियमित व्यायाम करें तथा तनाव-व्यवस्थापन (योग-मेडिटेशन) की विधियों का पालन करें जिससे स्वास्थ्य में सुधार हो और शरीर निरोगी रह सके।
आपकी जानकारी के लिए निम्न बिन्दुओं पर सूक्ष्म प्रकाश रूपी विवेचन किया गया है, जिसके बारे में आप समझ सके।
खानपान की गलत आदतें : भौतिकतावादी युग में बहुत से लोग समयाभाव का बहाना बनाकर ऐसे खानपान क तरीके अपनाते हैं, जिनमें ज्यादा कैलोरी की खपत और असंतुलित शरीर पुष्टि होती है। डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बाजार के बने फास्टफूड पदार्थ, रेस्टोरेंटों पर बने खाने के फैशन और बढ़ते पशु मांस की खपत के कारण शरीर में ‘saturated fat’ तथा कॉलेस्ट्रोल का स्तर बढ़ता है, जो अनेकों रोगों का स्वत: आमंत्रण है।
ज्यादा रिफाइण्ड और तैयार भोजन के कारण प्राकृतिक विटामिन, खनिज पदार्थों (शरीर के लिए आवश्यक minerule) Sibers (cellulose) और अन्य लाभदायक पौष्टिक पदार्थों की शरीर में समुचित आपूर्ति नहीं हो पाती है। तात्कालिक जाँचों (Investigations) और अध्ययनों से पाया गया कि जिनके खानपान में सब्जियां, दालें, फलों, सलाद तथा ऑलिव तैल (परम्परागत तैलों) का उपयोग ज्यादा होता है, उन लोगों की आयु तथा स्वास्थ्य अपेक्षाकृत ज्यादा और बेहतर पाया गया है अत: स्वास्थ्य और आयु में बढ़ोत्तरी पराम्परागत भोजन शैली को अपनाने से होती है।
शरीर में अत्यधिक टॉक्सिनों की मौजूदगी : ज्यादातर डिब्बा बंद पदार्थों और फास्ट फूड़ में रंगने के पदार्थों व preservatives के कारण टॉक्सिनों का आधिक्य होता है। खाने में रंग और स्वाद के लिए मिलाए गए ज्यादातर पदार्थ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। प्रतिदिन इन toxins युक्त पदार्थों के खाने से शरीर में तनाव और Acidity (जलन) संबंधित टॉक्सिनों का निर्माण होता है तथा इनके साथ-साथ मदिरा (शराब) के सेवन, निकोटिन तथा कैफीन के उत्पादों का सेवन करने से इनसे शरीर में, इनसे संबंधित टॉक्सिन्स भी भेजते रहते हुए शरीर पर अत्याचार करते रहते हैं। वास्तव में आज के समाज में यह सब आम बात हो गई है कि हम लोग अपने शरीर में शारीरिक अंग-प्रदर्शन की परिव्यक्त (विसर्जित) करने की क्षमता से ज्यादा टॉक्सिन भरते जाते हैं, जिससे हमें जीवनशैली जन्य रोग होने लगते हैं। जैसे- विभिन्न प्रकार की त्वचा एलर्जी, अस्थमा, कैंसर तथा एस्ट्रोएन्ट्राइटिस समस्याएं आदि अत: ताजा और सुपाच्य पदार्थों का ही अपने परम्परागत तरीकों से उपयोग में लाना चाहिए।
बढ़ता शारीरिक अम्ल स्तर : हमारे शरीर का सामान्य स्तर 7.2 से 7.4 तक होता है, जोकि तनिक क्षारीय होता है। भोजन में अत्यधिक गरिष्ठ पदार्थों के सेवन से पाचन तंत्र द्वारा पचाने हेतु अम्ल पैदा होता है। शरीर द्वारा इस अम्ल को फेफड़ों, किडनी और त्वचा के तन्तुओं द्वारा संतुलित किया जाता है। उग्र के बढऩे के साथ के साथ इस बढ़े हुए अम्ल को संतुलित करने की क्षमता कम होती जाती है। शरीर में बढ़े हुए अम्ल स्तर को शरीर के इन अंगों द्वारा संतुलन में शरीर से कैल्शियम और मैग्नीशियम और क्षारीय पदार्थों को सोखा जाता है, जिससे शरीर की साधारण पेशियों के कमजोर होने से हड्डियों के कमजोर होने तक के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। हड्डियों का खोखला होना (Osteopenia and Osteoporosis) प्रारंभ हो जाता है।
ज्यादा अम्ल (Hyperacidity) से जुड़े रोग जैसे - उच्च रक्तचाप और निम्न रक्तचाप (Low B.P.) , डायबिटीज, कॉलेस्ट्रोल और हृदय पेशियों के रोग आदि अत: इस प्रकार के क्लोसोफिल युक्त पदार्थों का अधिक उपयोग करना चाहिए। जिससे शरीर का क्क॥ लेवल संतुलित रहकर इन बीमारियों स निजात पाई जा सके।
एन्टिबायोटिक्स और दवाईयां : आए दिन पुरानी एन्टीबायोटिक्स दवाईयों के प्रति रोगकारक जीवाणुओं में उत्पन्न प्रतिरोधक क्षमता के कारण शरीर में रोगों के प्रति इनकी क्रियाशीलता का स्तर गिरता जा रहा है, अत: नई उच्चस्तरीय (High dose) एन्टीबायोटिक्स के प्रयोग के कारण लीवर, आमाशय, आमाशय के अम्लीय स्तर तथा रोगकारक जीवाणुओं के साथ शरीर के लिए लाभदायक जीवाणुओं के नष्ट करने जैसे प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ रहे हैं जिससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता का शनै: शनै: ह्रास होता जा रहा है अत: इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए आयुर्वेद और प्राकृतिक जीवनशैली का सहारा लेना चाहिए।
तनाव और उच्च रक्तचाप : काम, भागदौड़ भरी जीवनचर्या और सामाजिक दायित्वों से उत्पन्न तनाव हमारे शरीर के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है। ज्यादा तनाव से मस्तिष्क के कुछ हिस्सों में प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। जिसके कारण शरीर के अन्य अंगों और पेशियों में अनावश्यक संदेश impulse जाते हैं। हमारे शरीर की प्रकृति पर निर्भर करता है कि हम किस हद तक तनाव और उससे उत्पन्न impulses को बिना बीमार पड़े सहनकर सकें। जब हमें डर या कोई मानसिक आघात लगता है तो हम प्राय: बीमार पड़ जाते हैं और हमारा शरीर इमरजेन्सी की परिस्थिति में चला जाता है जिसमें हमारे शरीर की ग्रंथियां, स्नायु तंत्र, मस्तिष्क का हाइपोथैलेगिक भाग और हाथ-पैर आदि प्रभावित होते हैं। कई लोग इस तथ्य को मानकर तनाव व्यस्थापन (योग व मेडिटेशन) कर लेते हैं।
व्यायाम का अभाव : हममें से हर कोई एक व्यस्त पेशेवर और सामाजिक जीवन जीता है। इसमें से ज्यादातर लोग आजकल व्यायाम तक नहीं कर पाते हैं, पर अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यायाम जरूरी है क्योंकि इसके अभाव में शरीर में सुस्ती, मोटापा, आन्त्र रोग, हृदय के रोग, कॉलेस्ट्रोल का बढऩा, किडनी रोग और अन्य कई रोगों का शिकार बनना पड़ता है। व्यायाम आदि करने से शरीर तन्दुरुस्त रहता है जिससे शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है, और स्वस्थ्य जीवन व्यतीत किया जा सकता है।
कीटनाशकों और वनस्पतिनाशकों का अत्यधिक प्रयोग : आजकल कृषि उत्पादकों क अत्यधिक पैदावार, साग-सब्जियों पर लगने वाले कीटों, चूहों तथा अनचाही वनस्पतियों (खरपतवार) के नाश के लिए विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है जिसके कारण इनके खाने और पीने के पानी आदि पदार्थों में सम्मिश्रण के कारण लोगों को इनके दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है। इनके दुष्प्रभावों से जननीय इन्द्रियों तथा ग्रंन्थियों के तंत्रों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इसके अलावा त्वचा पर फफोले, लाल चकत्ते और जलन, आँखों, नाक व मुंह का जलना, फूलना, उल्टी का मन होना, दस्त लगना, अंगों का सुन्नपन होना, थकान और सिरदर्द जैसे कष्टों का सामना करना पड़ता है।
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