परिक्रमा भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है। हम प्राय: सभी मंदिरों, यज्ञों, पूजनीय वृक्षों, उपासना कक्षों की परिक्रमा करते हैं। भारत में अधिकांश मंदिरों के बाहर परिक्रमा पथ बना होता है और भक्तगण अपने इष्टदेव के दर्शनोपरांत उनकी परिक्रमा करते हैं। शास्त्रीय दृष्टिकोण से परिक्रमा को ‘प्रदक्षिणा’ भी कहा जाता है। प्रदक्षिणा के समय भारतवर्ष में निम्रलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है :
‘‘यानि कानि च पापानि, जन्मांतर कृतानि च।
तानि तानि विनश्यन्ति, प्रदक्षिणा पदे-पदे।।’’
अर्थात् जो पापकर्म मेरे द्वारा पिछले जन्मों या इस जन्म में किए गए हैं, उनका इस परिक्रमाके कदम-कदम पर नाश हो जाये।
इस श्लोक से यह आशय है कि परिक्रमामें जन्म-जन्मांतर अर्थात् पूर्वजन्मों में किए गए पापों एवं अशुभ कर्मों का क्षय करने की क्षमता विद्यमान है। परिक्रमासे जुड़े आध्यात्म क्षेत्र में श्रीगणेश जी द्वारा अपने माता-पिता की परिक्रमाकरके प्रथम पूज्य होने के उदाहरण से सभी परिचित हैं। माता-पिता और गुरु को देवतुल्य माना गया है, यही कारण है कि उनके लिए कहा जाता है ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।’ रामचरितमानस में यह चौपाई आती है कि ‘मात पिता गुरु प्रभु कै बानी, बिनहिं विचार करिअ शुभ जानी।।’ अर्थात् माता-पिता और गुरु की आज्ञा को हितकारी समझकर उसकी पालना करनी चाहिए। ये सदैव हितकर वचन बोलते हैं इसीलिए उन्हें देवतुल्य माना गया है और उनकी परिक्रमाका विधान है। श्री गणेशजी ने अपने माता-पिता की परिक्रमाको संपूर्ण पृथ्वी माता की परिक्रमा से भी बड़ा माना और वे विजयी हुए।
प्रश्न उठता है कि हम परिक्रमाक्यों करते हैं? सहज सा उत्तर है कि केंद्र बिंदु के बिना किसी परिधि या गोले का निर्माण हो ही नहीं सकता। हमारे जीवनचक्र, अस्तित्व और स्रोत का केंद्र बिंदु ईश्वर हंै। हम ईश्वर का अंश हंै, पुन: पुन: जन्म लेते हैं, फिर मृत्यु को प्राप्त होते हैं और फिर जन्म लेते हैं परंतु ईश्वर हमारा केन्द्र बना रहता है। हमारा जन्मचक्र भी परिक्रमाके समान ही है। यही कारण है कि ईश्वर को अपने जीवन का केन्द्र बिंदु मानते हुए, हम अपने नित्य कार्यों को संपादित करते हैं। किसी भी वृत्त का केन्द्र बिन्दु परिक्रमा पथ पर स्थित किसी भी बिन्दु से समान दूरी पर होता है। इसका तात्पर्य यह है कि हम जहाँ कहीं भी हों या जो कुछ भी हों, सदैव ईश्वर के समीप रहते हैं, वह हमारा केन्द्र बिन्दु होता है, उसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति निहित होती है और हम इसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बंधकर अपने परिक्रमावथ पर प्रदक्षिणारत रहते हैं अर्थात् जीवनचक्र को भोगते हैं। परिक्रमाका भी यही आशय है, यही महत्व है।
हम किसी मंदिर में स्थापित मूर्ति के दर्शन के बाद उसकी परिक्रमा करके अपने जीवन चक्र (पुनर्जन्म) और ईश्वर से बंधे रहने के संकल्प को स्मरण करते हैं। किसी वृक्ष, उपासना स्थल, समाधि, यज्ञ, हवन आदि का परिक्रमा करके हम उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं हमारे जीवन में उनके केन्द्रीय भाव के प्रति अपना संकल्प प्रदर्शित करते हैं। सूर्य को अघ्र्य आदि देकर हम निज परिक्रमा कर लेते हैं जिसका अर्थ होता है कि सूर्य की दैवीय शक्ति हममें समाविष्ट हो गई और अब हम निज परिक्रमा कर सूर्य के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा प्रकट करते हैं कि वह इस जगत की आत्मा है और हमें शक्ति प्रदान करते हैं।
जब हम कहते हैं कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ तो हम स्वयं को ईश्वर का अंश मानते हैं। हमारा यह भौतिक शरीर हमारे माता-पिता की अमानत होता है और इस शरीर को ज्ञान एवं विद्या से आचार्य (गुरु) भरते हैं, हमारे अंधकार को दूर करते हैं। इस संसार में हमें जो कुछ मिलता है, आरंभ में वह माता-पिता और गुरु से ही मिलता है इसलिए हमारा प्रथम कत्र्तव्य बनता है कि हम इनके प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था को प्रकट करें और उन्हें ही अपना केन्द्र मानकर अपनी परिक्रमा करें। जिस प्रकार आकाश मण्डल में ग्रह सूर्य की परिक्रमा में रहते हैं उसी प्रकार हम भी केन्द्र की परिक्रमा करते हैं।
परिक्रमा कैसे करें ? : परिक्रमा सदैव दक्षिणावर्त (बायें से दायीं ओर) करते हैं। दायीं ओर घूमने को शुभ माना जाता है। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में मकानों की सीढिय़ाँ दायीं ओर घुमाते हुए निर्मित्त करते हैं तथा आरती भी दायीं ओर घुमाते हुए करते हैं। दायें हाथ को शक्ति का स्वरूप माना जाता है, मुहावरे में भी कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्ति का दायां हाथ है अर्थात् शक्ति प्रदाता है, कार्य साधक है। उपासना कक्ष की परिक्रमा करते समय हम स्वयं को स्मरण दिलाते हैं कि ईश्वर हमारे दायें हाथ के समान सदैव हमारे साथ रहते हैं। परिक्रमा में हम हमारी नकारात्मक प्रवृत्तियों को पार कर अपने द्वारा किए गए दुष्कर्मों को भविष्य में नहीं दोहराने का संकल्प लेते हैं। साधक, भक्त या उपासक को ध्यान रखना चाहिए कि परिक्रमा सदैव दायीं ओर घूमते हुए करें। जब हम स्वयं की परिक्रमा भी करते हैं तो दायीं ओर घूमकर करनी चाहिए और परिक्रमा करते समय स्वयं के दिव्य तत्व और आत्म-विश्वास को पहचानना चाहिए अन्यथा परिक्रमा के पूर्णफल नहीं मिलते हैं। परिक्रमा भावना से बंधी है यदि भाव गंभीर नहीं होगा, श्रद्धा कम होगी तो परिक्रमा का लाभ मिल पाना संभव नहीं होगा।
हमारे देश में ‘गोवर्धन पर्वत’ की परिक्रमा आस्थावान निरंतर करते रहते हैं। कहते हैं कि वह पर्वत भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अंगुली में धारण किया था और स्वयं केंद्र बिंदु थे। हम जहां भी केंद्र पाते हैं उसकी परिक्रमा करने लगते हैं अर्थात् हमारी परिक्रमा का केन्द्र अवश्य ही आकर्षण और शक्तियुक्त होता है जो हमें परिक्रमा करने के लिए विवश कर देता है। भारतीय सनातन धर्म में चक्र पूजन (चाक पूजन) विवाह के पूर्व एक संस्कार होता है, इस चक्र पूजन का आशय भी यही होता है कि विवाह के लिए तैयार वर-वधू को अब चाक रूपी जीवनचक्र में परिक्रमारत रहना है और उस चक्र के केन्द्र में सृजनात्मक शक्ति छिपी हुई है जो ईश्वर है अत: परिक्रमा अधीन रहकर हमें ईश्वर का सदैव ध्यान रखना है तथा प्रदक्षिणारत भी रहना है, कर्म में निरत रहना है।
परिक्रमा करते समय ऊपर वर्णित मंत्र का उच्चारण अवश्य करना चाहिए। यदि कारणवश मंत्र याद नहीं रहें तो ईश्वर से अपने द्वारा किए गए अशुभ कर्मों के लिए क्षमा प्रार्थना कर लेनी चाहिए।
‘‘यानि कानि च पापानि, जन्मांतर कृतानि च।
तानि तानि विनश्यन्ति, प्रदक्षिणा पदे-पदे।।’’
अर्थात् जो पापकर्म मेरे द्वारा पिछले जन्मों या इस जन्म में किए गए हैं, उनका इस परिक्रमाके कदम-कदम पर नाश हो जाये।
इस श्लोक से यह आशय है कि परिक्रमामें जन्म-जन्मांतर अर्थात् पूर्वजन्मों में किए गए पापों एवं अशुभ कर्मों का क्षय करने की क्षमता विद्यमान है। परिक्रमासे जुड़े आध्यात्म क्षेत्र में श्रीगणेश जी द्वारा अपने माता-पिता की परिक्रमाकरके प्रथम पूज्य होने के उदाहरण से सभी परिचित हैं। माता-पिता और गुरु को देवतुल्य माना गया है, यही कारण है कि उनके लिए कहा जाता है ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव।’ रामचरितमानस में यह चौपाई आती है कि ‘मात पिता गुरु प्रभु कै बानी, बिनहिं विचार करिअ शुभ जानी।।’ अर्थात् माता-पिता और गुरु की आज्ञा को हितकारी समझकर उसकी पालना करनी चाहिए। ये सदैव हितकर वचन बोलते हैं इसीलिए उन्हें देवतुल्य माना गया है और उनकी परिक्रमाका विधान है। श्री गणेशजी ने अपने माता-पिता की परिक्रमाको संपूर्ण पृथ्वी माता की परिक्रमा से भी बड़ा माना और वे विजयी हुए।
प्रश्न उठता है कि हम परिक्रमाक्यों करते हैं? सहज सा उत्तर है कि केंद्र बिंदु के बिना किसी परिधि या गोले का निर्माण हो ही नहीं सकता। हमारे जीवनचक्र, अस्तित्व और स्रोत का केंद्र बिंदु ईश्वर हंै। हम ईश्वर का अंश हंै, पुन: पुन: जन्म लेते हैं, फिर मृत्यु को प्राप्त होते हैं और फिर जन्म लेते हैं परंतु ईश्वर हमारा केन्द्र बना रहता है। हमारा जन्मचक्र भी परिक्रमाके समान ही है। यही कारण है कि ईश्वर को अपने जीवन का केन्द्र बिंदु मानते हुए, हम अपने नित्य कार्यों को संपादित करते हैं। किसी भी वृत्त का केन्द्र बिन्दु परिक्रमा पथ पर स्थित किसी भी बिन्दु से समान दूरी पर होता है। इसका तात्पर्य यह है कि हम जहाँ कहीं भी हों या जो कुछ भी हों, सदैव ईश्वर के समीप रहते हैं, वह हमारा केन्द्र बिन्दु होता है, उसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति निहित होती है और हम इसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बंधकर अपने परिक्रमावथ पर प्रदक्षिणारत रहते हैं अर्थात् जीवनचक्र को भोगते हैं। परिक्रमाका भी यही आशय है, यही महत्व है।
हम किसी मंदिर में स्थापित मूर्ति के दर्शन के बाद उसकी परिक्रमा करके अपने जीवन चक्र (पुनर्जन्म) और ईश्वर से बंधे रहने के संकल्प को स्मरण करते हैं। किसी वृक्ष, उपासना स्थल, समाधि, यज्ञ, हवन आदि का परिक्रमा करके हम उनके प्रति अपनी श्रद्धा एवं हमारे जीवन में उनके केन्द्रीय भाव के प्रति अपना संकल्प प्रदर्शित करते हैं। सूर्य को अघ्र्य आदि देकर हम निज परिक्रमा कर लेते हैं जिसका अर्थ होता है कि सूर्य की दैवीय शक्ति हममें समाविष्ट हो गई और अब हम निज परिक्रमा कर सूर्य के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा प्रकट करते हैं कि वह इस जगत की आत्मा है और हमें शक्ति प्रदान करते हैं।
जब हम कहते हैं कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ तो हम स्वयं को ईश्वर का अंश मानते हैं। हमारा यह भौतिक शरीर हमारे माता-पिता की अमानत होता है और इस शरीर को ज्ञान एवं विद्या से आचार्य (गुरु) भरते हैं, हमारे अंधकार को दूर करते हैं। इस संसार में हमें जो कुछ मिलता है, आरंभ में वह माता-पिता और गुरु से ही मिलता है इसलिए हमारा प्रथम कत्र्तव्य बनता है कि हम इनके प्रति अपनी श्रद्धा, आस्था को प्रकट करें और उन्हें ही अपना केन्द्र मानकर अपनी परिक्रमा करें। जिस प्रकार आकाश मण्डल में ग्रह सूर्य की परिक्रमा में रहते हैं उसी प्रकार हम भी केन्द्र की परिक्रमा करते हैं।
परिक्रमा कैसे करें ? : परिक्रमा सदैव दक्षिणावर्त (बायें से दायीं ओर) करते हैं। दायीं ओर घूमने को शुभ माना जाता है। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में मकानों की सीढिय़ाँ दायीं ओर घुमाते हुए निर्मित्त करते हैं तथा आरती भी दायीं ओर घुमाते हुए करते हैं। दायें हाथ को शक्ति का स्वरूप माना जाता है, मुहावरे में भी कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक व्यक्ति का दायां हाथ है अर्थात् शक्ति प्रदाता है, कार्य साधक है। उपासना कक्ष की परिक्रमा करते समय हम स्वयं को स्मरण दिलाते हैं कि ईश्वर हमारे दायें हाथ के समान सदैव हमारे साथ रहते हैं। परिक्रमा में हम हमारी नकारात्मक प्रवृत्तियों को पार कर अपने द्वारा किए गए दुष्कर्मों को भविष्य में नहीं दोहराने का संकल्प लेते हैं। साधक, भक्त या उपासक को ध्यान रखना चाहिए कि परिक्रमा सदैव दायीं ओर घूमते हुए करें। जब हम स्वयं की परिक्रमा भी करते हैं तो दायीं ओर घूमकर करनी चाहिए और परिक्रमा करते समय स्वयं के दिव्य तत्व और आत्म-विश्वास को पहचानना चाहिए अन्यथा परिक्रमा के पूर्णफल नहीं मिलते हैं। परिक्रमा भावना से बंधी है यदि भाव गंभीर नहीं होगा, श्रद्धा कम होगी तो परिक्रमा का लाभ मिल पाना संभव नहीं होगा।
हमारे देश में ‘गोवर्धन पर्वत’ की परिक्रमा आस्थावान निरंतर करते रहते हैं। कहते हैं कि वह पर्वत भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अंगुली में धारण किया था और स्वयं केंद्र बिंदु थे। हम जहां भी केंद्र पाते हैं उसकी परिक्रमा करने लगते हैं अर्थात् हमारी परिक्रमा का केन्द्र अवश्य ही आकर्षण और शक्तियुक्त होता है जो हमें परिक्रमा करने के लिए विवश कर देता है। भारतीय सनातन धर्म में चक्र पूजन (चाक पूजन) विवाह के पूर्व एक संस्कार होता है, इस चक्र पूजन का आशय भी यही होता है कि विवाह के लिए तैयार वर-वधू को अब चाक रूपी जीवनचक्र में परिक्रमारत रहना है और उस चक्र के केन्द्र में सृजनात्मक शक्ति छिपी हुई है जो ईश्वर है अत: परिक्रमा अधीन रहकर हमें ईश्वर का सदैव ध्यान रखना है तथा प्रदक्षिणारत भी रहना है, कर्म में निरत रहना है।
परिक्रमा करते समय ऊपर वर्णित मंत्र का उच्चारण अवश्य करना चाहिए। यदि कारणवश मंत्र याद नहीं रहें तो ईश्वर से अपने द्वारा किए गए अशुभ कर्मों के लिए क्षमा प्रार्थना कर लेनी चाहिए।
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