नाम सुनते ही लोग डर जाते हैं। शनि भारी है या राहु? इसका अनुमान तो ज्योतिषियों को भी नहीं है। राहु के बारे में बड़े-बड़े मनीषी भी तरह-तरह की कल्पनाएं करते थे। जो पौराणिक कथानक राहु के साथ जोड़े गए हैं, उनमें उन्हें केवल सिर बताया गया है, बाकी सारा शरीर केतु के साथ चला गया। बहुत कम लोग जानते हैं कि अमृत केवल राहु ने ही नहीं पिया बल्कि वह बाकी शरीर में भी चला गया था और इस कारण से राहु के साथ-साथ केतु भी अमर हो गए। अब उन्हें यज्ञ भाग प्राप्त करने भी का अधिकार है तथा ब्रह्मा की सभा में भी बैठने का अधिकार है। ये देवता हो गए हैं। नवग्रहों में इन्हें सूर्य और चन्द्रादि के साथ समान रूप से स्थापित किया जाता है और इनका आह्वान किया जाता है। इनके षोडशोपचार किए जाते हैं और इनसे कृपा की कामना की जाती है।
कई लोग शनि या राहु को गाली देकर बात करते हैं, यह अनुचित है। ये कुछ भी नहीं करते, आपके किए हुए कर्मों का तद्नुसार ही फल देते हैं। क्या आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्र भारत के अधिकांश प्रधानमंत्री राहु के कारण ही इतना ऊंचा राजयोग पा सके हैं। राहु के कारण ही इंदिरा गांधी सफल रहीं और उन्हीं के कारण राजीव गांधी का राज्यारोहण हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी को भी राहु ने बहुत कुछ दिया। उनकी दशांश कुण्डली में तुला में राहु बैठे हैं जिसकी दशा में उन्हें राजयोग मिला। आप सूर्य भगवान की पूजा करें और राहु की उपेक्षा करें तो यह चल नहीं सकता क्योंकि नवग्रह मण्डल में राहु को महत्वपूर्ण स्थान दिया हुआ है। सभी ग्रहों से समान कृपा प्राप्त होने पर ही हम अपने विंशोत्तरी दशा के अनुसार जीवन वर्ष प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को सफलता से भोग सकते हैं।
राहु बहुत बड़े-बड़े योग बनाते हैं और बड़े-बड़े योग भंग कर देते हैं। पाराशर राहु की प्रशंसा में कहते हैं कि यदि केन्द्राधिपति से युत होकर वे केन्द्र में स्थित हो जाएं तो महान राजयोगकारक होते हैं और अपनी दशा में शुभ फल देते हैं।
उत्तर कालामृत में भी राहु की विशेष प्रशंसा की गई है:
यद्यद्दुर्भगतौ यदीशसहितावेतौ तम:खेचरौ
स्यातां तत्फलदायिनौ बलयुतौकेन्द्रत्रिकोणेश्वरा:।
क्षेमं ते ददति प्रसक्तरहिताश्चेदन्यथा ते युता:
तौ दुष्टावपि योगत: शुभकरौ सम्बन्धमात्रेण तौ॥
ज्योतिष में राहु और केतु को छाया ग्रह की संज्ञा दी गई है। इस श्लोक में तम:खेचरौ शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि न केवल वे तम हैं बल्कि पाप ग्रह भी हैं। ये उस ग्रह की भांति फल देते हैं जिस भाव में बैठे हों, उसके स्वामी हों या जिस भाव के स्वामियों के साथ राहु या केतु बैठे हों उसके समान फल देते हैं अर्थात् यदि राहु या केतु छठे भाव के स्वामी के साथ बैठे हों तो छठे भाव का फल करेंगे। यदि योगकारक ग्रह के साथ बैठे हों तो शुभ फल करेंगे। उत्तर कालामृत के रचनाकार केन्द्र-त्रिकोण के स्वामी के साथ राहु और केतु की युति को सदा शुभ नहीं मानते परन्तु पाराशर मानते हैं।
तौ धर्मे यदि कर्मणि स्थितियुजौ व्यत्यासतो वा स्थितौ
योगं तौ कुरुयस्त्रिकोणपतिना योगाऽिप सौख्यप्रद:।
सौख्यं योगकृतोर्दशास्वपि भवेच्चैतद्युजां श्रेयसां
सम्बन्धादथ योगिनोऽशुभकृतां भुक्ताशुभं योगजम्॥
इस श्लोक के अनुसार यदि राहु या केतु नवम स्थान में हों और दशमेश से युत हों या दशम स्थान में हों और नवमेश से युत हों या नवम भाव में राहु या केतु हों और नवमेश, दशम भाव में हों या राहु-केतु दशम भाव में हों और दशमेश, नवम भाव में तो यह शानदार योग बनता है। राहु-केतु का योग त्रिकोण के स्वामी से भी हो जाए तो भी शुभ फल देता है। उच्चकोटि के भावों में पड़ें तो उच्चकोटि का फल मिलता है तथा खराब भावों में पड़ें तो शुभ फलों में न्यूनता आ जाती है। यदि अशुभ ग्रह योगकारक हो और राहु से संबंध हो जाए तो अशुभ फल भी मिलते हैं। इसका अर्थ यह है यदि राहु योगकारक होते हुए भी ऐसे ग्रह से युत हों जो अष्टमेश भी हो तो योग का शुभ फल काफी कुछ नष्ट हो जाता है।
राहु, बुध के प्रभाव में हों तो बुध, राहु के दोषों को दूर कर देते हैं। राहु, बृहस्पति के साथ हों तो या तो गुरु चाण्डाल योग बनाएंगे और ऐसे व्यक्ति के जीवन में घात बहुत मिलेगा या शिष्यों से विद्रोह मिलेगा परन्तु इस योग में यदि बृहस्पति अत्यन्त शक्तिशाली हों तो गुरु चाण्डाल योग अत्यन्त क्षीण हो जाएगा और गुरु, राहु के दोष अर्थात् चाण्डाल के दोष को काफी हद तक कम कर देंगे। बृहस्पति के बलवान होने से शिष्य, गुरु का पतन नहीं करा पाते और गुरु, शिष्यों को या अधीनस्थों को या दुष्टजनों को समझाने में सफल हो जाते हैं।
वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में राहु-चार अध्याय में राहु के बारे में कुछ कल्पनाओं को स्थान दिया है। वराहमिहिर की प्रवृत्ति रही है कि वो अपने से पहले के प्रचलित सिद्धांत या मान्यताओं की चर्चा करते हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख मैं यहां कर रही हूं-
1. राहु नामक राक्षस ने मस्तक कट जाने पर भी अमृत पी लेने के कारण ग्रहत्व प्राप्त किया।
2. काला होने के कारण ब्रह्माजी ने चूंकि वर प्रदान कर दिया था, अत: पर्वकाल से किसी अन्य समय में राहु, चंद्रमा और सूर्य की तरह दिखाई नहीं देते।
3. राहु मुख और पुच्छ में विभक्त हैं और वे सर्प जैसे आकार के हैं। कोई-कोई कहते हैं कि राहु का कोई भी आकार नहीं होता है, वे केवल अंधकारमय हैं।
मुखपुच्छविभक्ताङ्गं भुजङ्गमाकारमुपदिशन्त्यन्ये।
कथयन्त्यमूर्तमपरे तमोमयं सैंहिकेयाख्यम्॥
वराहमिहिर ने उक्त सब मतों की विवेचना की है और इनमें दोष भी निकाले हैं। उनके अनुसार यदि राहु मूर्तिमान, राशि में चलने वाले, सिर वाले और बिम्ब वाले होते तो निश्चित गति वाले होकर, कक्षा में स्थित रवि-चन्द्र को कैसे ग्रसते? उनका मानना है कि यदि राहु की गति भी स्थिर होती और सूर्य-चन्द्र की गति भी स्थिर होती और दोनों का कक्षापथ भी एक ही होता तो राहु इनको कभी भी नहीं ग्रस सकते थे अर्थात् या तो इनकी गतियों में अंतर हों या दोनों के कक्षापथों में अंतर या दो कक्षापथ एक-दूसरे से कहीं सम्पर्क करते हों, तब ग्रहण संभव था।
परन्तु यदि राहु अनिश्चित गति वाले होते तो उनका गणित से ज्ञान कैसे हो सकता था और उनके बारे में कोई भविष्यवाणी कैसे की जा सकती थी? इसी प्रकार यदि मुंह और पूंछ में विभक्त हैं तो अपने से तीसरी, चौथी या पांचवीं राशि पर स्थित सूर्य-चन्द्र को क्यों नहीं ग्रसते हैं? यदि सर्पाकार होते तो मुंह या पूंछ से छह राशि के अंतर पर स्थित सूर्य-चन्द्र को ग्रहण करते समय बीच के मार्ग को भी ग्रहणग्रस्त कर देते। यदि दो राहु होते तो चन्द्र के उदय या अस्त के समय ग्रहण में, सूर्य को भी ग्रसित कर लेते। यदि राहु की गति निश्चित होती तो सूर्य और चन्द्र दोनों का ग्रहण एक साथ कर सकते थे।
हम सभी तर्कों न देते हुए केवल यह कह रहे हैं कि बहुत सारी गणनाएं ऋषियों ने की थीं और तब राहु और केतु के निश्चित आचरण का ज्ञान कर पाए थे इसलिए राहु से प्राप्त दशाफल भी अनिश्चित नहीं है और अन्य ग्रहों की भांति ही उनका निश्चित आचरण है। यद्यपि सूर्य और चन्द्रमा से शत्रुता के पौराणिक आख्यान के पीछे जो खगोलशास्त्रीय नियम हैं उसमें वे इन दोनों से बलवान होकर इन दोनों का कुछ समय के लिए ग्रहण कर लेते हैं। इसी कारण से राष्ट्र के बारे में अधिक भविष्यवाणियां राहु को लेकर की जा सकी हैं। जैसे एक ही मास में ही सूर्य-चन्द्र दोनों का ग्रहण हो तो सेनाओं में हलचल मच जाने से या शस्त्र प्रहार से राजाओं का नाश होता है। हम कई राष्ट्रों में चलने वाली सैनिक गतिविधियों की चर्चाओं को इस सन्दर्भ में देख सकते हैं कि जून-जुलाई के महीने में ये ग्रहण पडऩे ही वाले हैं और यह अंक भी जून में आप को उपलब्ध होगा। 1 जून, 2011 व 1 जुलाई, 2011 को खण्डग्रास सूर्यग्रहण पड़ेंगे और 15 जून, 2011 को अद्र्धरात्रि में खण्डग्रास चन्द्रग्रहण पड़ेगा। यह भारत में दिखाई देगा।
पौराणिक संदर्भ में राहु : राहु को चोरी से अमृत पान का दोषी पाया गया और भगवान विष्णु ने उन्हें दण्डित कर दिया। इस कारण से केतु का भी जन्म हुआ और दोनों को अमृतत्व प्राप्त हुआ। ज्योतिष में यह एक पहेली ही है कि अमृत पीने वाले राहु का संबंध विष से जोड़ा गया है। संसार के समस्त प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न विष पर राहु का अधिकार है। राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से भी अधिक माना गया है। क्यों? पुन: एक पौराणिक संदर्भ खोजते हैं। द्वादश आदित्य में सबसे आधुनिक सूर्य हैं और यही विष्णु हैं। सबसे कनिष्ठ होते हुए भी यह विष्णु सबसे प्रधान हैं। हमारे इस विष्णु या इस सूर्य को इसीलिए राहु ने ग्रहण के लिए लक्ष्य किया है। नैसर्गिक बल की गणना में सूर्य से भी अधिक राहु का नैसर्गिक बल माना गया है और यही मात्र ग्रह या छाया ग्रह हैं जोकि सूर्य को सता लेते हैं। यदि किसी का जन्म पूर्ण सूर्यग्रहण के समय हुआ है, जब राहु और सूर्य के भोगांश समान हैं और चन्द्रमा का शर इतना कम है कि ग्रहण पडऩा लाजिमी है। शर से तात्पर्य सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथ की कोणीय दूरी में न्यूनता तथा चन्द्रमा द्वारा सूर्य को कक्षापथ में भ्रमण के समय आच्छादित कर लेना है। सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथ के कटान बिन्दु पर अगर उत्तरी गोल में यह कटान है तो राहु कहलायेंगे। दोनों कक्षापथों में करोड़ों किलोमीटर का अन्तर होने के बाद भी राहु क्षेत्र से आने वाली सूर्यकिरणें व्यक्ति के जीवन को असामान्य बना देती हैं। गर्भाधान के उस एक क्षण मात्र में पीडि़त सूर्य की किरणें व्यक्ति के जीवन को हमेशा के लिए अंधकार में धकेल देती हैं। सूर्य पीडि़त हैं, का अर्थ है कि व्यक्ति के राज्य, पिता, यश-प्रतिष्ठा, आत्मबल और धार्मिक निष्ठाओं में भारी समस्याएँ देखने को मिलेंगी।
ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता के उल्लेख इतने महत्वपूर्ण हैं जिनमें यह बताया गया है कि हमारा ब्रह्माण्ड या हमारा सौर मण्डल ही अन्तिम नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि और भी अनगिनत ब्रह्माण्ड हैं और उनके अपने-अपने स्वतंत्र ब्रह्मा,विष्णु,महेश हैं। क्या खगोलशास्त्र के उन दार्शनिक नियमों के आधार पर जो कि ज्योतिष नियमों की पृष्ठभूमि बने हैं, हम यह कह सकते हैं कि असंख्य सौरमण्डलों के अपने-अपने सूर्य और अपने-अपने राहु-केतु भी हैं? जैसे - भूमध्यरेखा का अनन्त विस्तार ब्रह्माण्ड में यदि बाह्य सीमाओं की ओर किया जाये तो हम खगोलीय विषुवत वृत्त के अन्त में जा पहुंचेंगे। यदि सौरकक्षा का अनन्त विस्तार हम ब्रह्माण्ड की बाह्य सीमाओं तक कर दें तो क्या वे ऐसे ही दो ग्रहों के कटान बिन्दु पर, किसी और बड़े राहु का परिचय देंगी? भारत की ज्योतिष में और विश्व की अन्य ज्योतिष पद्धतियों में इस दार्शनिक तत्व का विवेचन आज तक भी नहीं किया गया है। संभवत: हमने राहु की सीमाएँ यहीं तक मान ली हैं और राहु अधिकतम हमारे देवलोक में हैं और ब्रह्मा की सभा के अधिकारी हैं। हमारे कई पौराणिक आख्यानों में सूर्य और ब्रह्मा को एक ही दार्शनिक धरातल पर देखा गया है और कहीं-कहीं तो इन्हें एक-दूसरे का पर्याय माना गया है। जब हम यह कहते हैं कि ब्रह्मा अपनी आयु के सौ दिव्य वर्ष में से पचास वर्ष पूरे कर चुके हैं तथा सूर्य अपनी आयु के पाँच अरब वर्ष पूरे कर चुके हैं तो इन दोनों बातों में एक गणितीय तालमेल दिखता है। हम शब्दान्तर से यह भी कह सकते हैं कि ब्रह्मा की सभा का अर्थ हमारे सौरमण्डल में आने वाले सभी ग्रह, उपग्रह तथा छुद्र ग्रह हैं तथा इन्हीं सब का समीकरण यक्ष, किन्नर, गंधर्व, विद्याधर, अप्सराओं तथा अन्य सभी देवगण से किया गया है।
लेख के केन्द्रीय विषय राहु इन्हीं में से एक हैं तथा अब तक प्राप्त भारतीय खगोल और ज्योतिष के ज्ञान के आधार पर यह केवल हमारे सौरमण्डल के ही सदस्य हैं अत: इन राहु का असर हमारे सूर्य या हमारे लौकिक विष्णु पर तो होता है परन्तु गौलोक में वास करने वाली अनन्त सत्ता श्रीकृष्ण पर उनका कोई असर नहीं होता क्योंकि वे हमारे ब्रह्मलोक से भी ऊपर हैं। गीता में उल्लेख है कि ब्रह्मलोक तक जो भी जाता है, वह सब पुनरावृत्ति है तथा ब्रह्मलोक में जाने के बाद भी उसका पुन: जन्म हो सकता है। ब्रह्मलोक से ऊपर जाने के बाद उसका पुन: जन्म नहीं होता। इसका अर्थ यह भी है कि प्रस्तुत लेख के विषय, राहु यदि सूर्य को या हमारी जन्मपत्रिका को प्रभावित कर दें तो वे पुनर्जन्म के कारण बनते हैं।
ज्योतिष मंथन में ही पिछले अंकों में यह उल्लेख आ चुका है कि सर्प या विष से राहु का समीकरण है तथा ये सर्प इतने महत्वपूर्ण हैं कि शिव और विष्णु दोनों के साथ हैं। संसार की हर दृश्य गति वर्तुलाकार है या सर्पाकृति है या दीर्घवृत में है। जिस दिन यह गतियाँ सम्पूर्ण वृत्त में बदल जायेंगी, वह दिन प्रलय का होगा और जगत या माया और ईश्वर के एकीकरण का होगा। (संपादकीय लेख पृष्ठ-6, अंक मई, 2011) यहाँ केवल इतना लिखना पर्याप्त है कि राहु अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और किसी भी ईश्वर या देवता से अलग उनके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। भगवान शिव के गले में सर्प हैं तो भगवान विष्णु सर्पशैय्या पर हैं। भगवान कृष्ण भी कालियदमन करके नाग को उसका अतीत याद दिलाते हैं। भारतीय कथाएँ किसी भी कथानक को अपूर्ण नहीं छोड़तीं। सर्प भी भगवान विष्णु और शिव के समानान्तर सत्ता नहीं हो जाएं अत: सर्प के शत्रु गरुड़ की भी सृष्टि की गई है।
हमारे जीवन में राहुदशा: राहु को मिथुन में उच्च राशि में माना गया है और केतु को धनु राशि में उच्च का माना गया है। कई ग्रंथकारों ने जिनमें उत्तरकालामृत के रचनाकार भी शामिल हैं, राहु को वृषभ में और केतु को वृश्चिक राशि में उच्च राशि का माना है। कन्या और मीन को राहु-केतु की स्वराशि माना है। राहु-केतु के बारे में एक सामान्य कथन है या तो ये जिस राशि में स्थित होते हैं, उस राशि स्वामी के अनुरूप फल देते हैं या ये जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का फल देते हैं। इनकी मूलत्रिकोण राशि कुंभ है तथा जैमिनि ने अपने चर कारकत्व के सिद्धान्त में यह कहा है कि यदि दो ग्रहों में परस्पर युद्ध हो जाये तथा वे किसी चर कारक के लिए प्रतिद्वन्द्वी हों तो राहु को चर कारकों में स्थान मिल जाता है अत: राशि स्वामित्व के आधार पर किसी फल कथन की अपेक्षा लग्न पर आधारित राहु के फल बताया जाना समीचीन होगा।
लग्न में स्थित राहु आपके व्यक्तित्व, शारीरिक सौष्ठव, आत्मा की शुद्धि और मनोबल पर प्रभाव डालते हैं। लग्नस्थ राहु संतान और जीवनसाथी से असंतोष बताते हैं और यदि नवम भाव में अनुकूल राशि नहीं हुई तो कभी-कभी धर्म विरुद्ध आचरण की भी प्रेरणा देते हैं। यह सब राहु महादशा में आयेगा।
यदि द्वितीय भाव में राहु हुए तो वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, धनु और कुंभ में तो अनुकूल परिणाम दे सकते हैं और परिवार को एक बनाये रखने में रुचि लेते हैं अन्यथा परिवार नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। पैत्तृक सम्पत्तियों को लेकर झगड़े होते हैं और परिवारों के विभाजन हो जाते हैं।
यदि तीसरे भाव में राहु हों तो अनुकूल होने पर उच्च कोटि का वैवाहिक जीवन, सहोदरों से सहयोग तथा बड़े भागीदारी व्यवसाय देखने को मिलते हैं तथा राहु अशुभ सिद्ध होने पर इन सब विषयों में नकारात्मक परिणाम देते हैं। तीसरे भाव के राहु दुस्साहसी हैं और लौकिक जीवन में सफलता लाते हैं। सबकुछ नैतिक नियमों पर आधारित हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता।
चतुर्थ भाव के राहु माता से संबंधित पीड़ा देते हैं। भूमि-भवन में विवाद मिलते हैं, जन्म स्थान से दूर कहीं आजीविका होती है परन्तु जन्म स्थान से जुड़े रहते हैं और चाहे ख्याति हो, चाहे कुख्याति, खूब ही मिलती है।
पंचम भाव के राहु अपनी महादशा में संतान संंबंधी पीड़ा देते हैं, संतान जन्म में बाधा उत्पन्न करते हैं, अचानक धन प्राप्ति कराते हैं, राजयोग तथा राजभंग, दोनों ही देते हैं। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति में साधनों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देता।
छठे भाव के राहु शत्रुहंता होते हैं और अपनी महादशा में रोग, रिपु, ऋण तो देते ही हैं, व्यक्ति अद्म्य साहस का परिचय भी दे देता है। यहाँ स्थित राहु महान षडय़ंत्रकारी सिद्ध होते हैं।
सप्तम भाव स्थित राहु दाम्पत्य जीवन में एक तरफ उच्च कोटि के फल देते हैं, दूसरी तरफ जीवनसाथी को संदिग्ध बना देते हैं। सप्तम भाव में स्थित कोई भी वक्री ग्रह शुभ फल नहीं देते परन्तु राहु तो षडय़ंत्र और विश्वासघात के चरम हैं। सप्तमस्थ राहु न तो संन्यास लेने देते हैं और गृहस्थ संन्यासी बनाने की चेष्टा करते हैं। यौवनकाल स्वच्छंद आचरण में बीतता है और लौकिक सफलताएँ तूफानी गति से आती हैं और उत्थान-पतन धूप-छाँव की तरह चलता रहता है।
अष्टमस्थ राहु अपनी महादशा में कष्ट, पतन, स्वास्थ्य हानि और अपमान देते हैं। यदि केन्द्र-त्रिकोणाधिपति के साथ राहु हुए या अपनी उच्चादि राशियों में हुए तो दु:ख के साथ सुख भी देते हैं। अष्टम में स्थित राहु शोध कार्यों के लिए और तंत्र-मंत्र के लिए वरदान हंै। अष्टमस्थ राहु का व्यक्ति जीवन में अकेला ही चलता है।
नवम भाव में स्थित राहु व्यक्ति को विधर्मी बना सकते हैं। विधर्मी का अर्थ है - नियम तोडऩे वाला। ऐसा व्यक्ति कभी भी धर्म मार्ग छोड़ सकता है और गुरुद्रोही भी हो सकता है। अत्यंत शुभ प्रभाव ही ऐसे राहु को श्रेष्ठ फल के लिए प्रेरित कर सकते हैं। नवमस्थ राहु की कलियुग में बहुत पूछ है और वे निन्दित नहीं रहे हैं।
दशम भाव में स्थित राहु अपनी महादशा में बहुत उन्नति देते हैं और लौकिक सफलताएँ भी। विवादित व्यक्तित्व हो सकता है परन्तु उनमें नेतृत्व क्षमता होती है और अपने महान पराक्रम से वह व्यक्ति केवल जीतने के लिए काम करता है। साधनों की पवित्रता उसके लिए कोई महत्व नहीं रखती तथा वह सफलता के लिए हर मार्ग अपना सकता है। वे श्रेष्ठ कूटनीतिकार होते हैं।
एकादश भाव में स्थित राहु लाभ कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। एकादश भाव में वैसे भी पाप ग्रह प्रसन्न होते हैं। यदि यहाँ राहु किसी से युत हों, किसी ग्रह से दृष्ट हों तो बहुत बड़ा परिणाम दे सकते हैं। जितने पाप ग्रह यहाँ मिलेंगे, उतना ही बड़े भाई-बहिन के लिए घातक सिद्ध होंगे। यहाँ पैसा तो आयेगा परन्तु किसी अनिष्ट की कीमत पर। सम्पूर्ण दशा काल एक जैसा नहीं रहता और अच्छे-बुरे परिणाम आते रहते हैं।
द्वादश भाव में स्थित राहु परदेस गमन कराते हैं, संसर्ग सुख की प्रेरणा देते हैं तथा खर्चा बहुत कराते हैं, कानूनी समस्याएँ कराते हैं और उन सब कामों की प्रेरणा देते हैं, जिनको करने के बाद व्यक्ति का कम से कम पुनर्जन्म जरूरी हो जाये। द्वादशस्थ राहु मोक्ष मार्ग में बाधक हैं जबकि द्वादशस्थ केतु व्यक्ति को धार्मिक बनाते हैं और मोक्षमार्गी होने की प्रेरणा देते हैं।
राहु पर अन्य विचार : राहु यदि छठे, आठवें और बारहवें हों और इन्हीं भावों के स्वामियों से युत या दृष्ट हों तो अपनी दशा में भारी शारीरिक कष्ट देते हैं। यह मारक सिद्ध होते हैं परन्तु जब यह केन्द्र तथा त्रिकोण के स्वामी के साथ स्थित हों तो थोड़ा सा सुख देते हैं परन्तु रोग, घाव, राजकीय कोप तथा बंधन आदि देते हैं।
राहु-केतु के लिए धनु तथा मीन तटस्थ राशियाँ हैं तथा सिंह तथा कर्क शत्रु राशि हैं। यदि केन्द्र स्थान में राहु योगकारक ग्रहों के साथ हों तो अत्यंत शक्तिशाली शुभ परिणाम देते हैं परन्तु दूसरे तथा सातवें भाव के स्वामी के साथ स्थित हों तो कष्टकारक सिद्ध होते हैं। शुभ राहु तीर्थयात्रा कराते हैं, गंगा स्नान कराते हैं, ज्ञान तथा प्रभाव देते हैं।
राहु चाण्डाल जातियों के स्वामी हैं। इनका स्थान वल्मीक है, जहाँ दीमक रहती है। राहु की धातु सीसा है। शरीर में जो भी ग्र्रंथि भाग हैं या नलिकाकार हैं, जैसे - आँतें या लौकिक जगत में जो भी वस्तुएँ ग्रंथि की आकृति की हैं, जैसे कि अदरक या लहसुन, उन सब पर राहु का अधिकार है। धूम सदृश नीला शरीर, वनवासी, भयानक, वात प्रकृति और बुद्धिमान, यह सब राहु से प्रभावित व्यक्ति के लक्षण हैं।
राहु की गति : राहु कक्षापथ में अन्य ग्रहों से विपरीत दिशा में गमन करते हैं। सदा ही वक्री रहते हैं परन्तु गणनाओं से स्पष्ट होता है कि राहु कभी-कभी मार्गी गति भी चलते हैं। राहु चूंकि वक्री रहते हैं और कोई एक वक्री ग्रह भी राहु पर दृष्टि कर ले तो यह अत्यन्त शक्तिशाली हो जाते हैं। उत्तराकालामृत के रचनाकार ने दो वक्री ग्रहों के संबंध को एक अत्यन्त शक्तिशाली स्थिति माना है और बहुत बड़े परिणाम इससे आते हैं। इस योग का अर्थ यह है कि कोई वक्री ग्रह किसी अन्य वक्री ग्रह की दृष्टि प्राप्त करे तो वह अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है।
होराग्रंथों में इस बात की विवेचना बिल्कुल भी नहीं मिलती है कि समान गति 3 कला 11 विकला होते हुए भी राहु और केतु दशा वर्ष अलग-अलग क्यों हैं? होराग्रंथों में इस संबंध में कोई भी विश्लेषण नहीं मिलता और आधुनिक भारत का कोई भी महान ज्योतिषी इसका जवाब देने में सक्षम भी नहीं है।
कालसर्प योग : वृहत्पाराशर होराशास्त्र के अन्तिम भाग में पूर्वजन्म शापद्योतनाध्याय में पंचम भाव से राहु-मंगल जैसे ग्रहों के संबंध के कारण संतान हानि के योग बताये गये हैं। इसी को आधुनिक ज्योतिषियों ने कालसर्प योग में परिवर्तित कर दिया है। पाराशर, जैमिनि, कल्याण वर्मा, कालिदास, किसी भी ग्रंथकार ने कालसर्प योग का नाम भी नहीं लिया परन्तु कई ज्योतिषी इन्हीं ग्रंथों से ज्योतिष सीख-सीख कर कालसर्प योग की माला पढ़ रहे हैं। अकाल मृत्यु का भय बताकर धंधा अच्छा हो सकता है। इस तरह से कलियुग में शनि के साथ-साथ राहु का भी अनन्त विस्तार हो गया है।
वराहमिहिर कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने राहु को ऐसा वर दिया था कि ग्रहण समय में लोगों के द्वारा दिये हुए हुतांश से तेरी तृप्ति होती रहेगी। इस कारण चन्द्र की दक्षिणोत्तरा गति उत्पन्न करने वाले राहु का पूजा-पाठ ग्रहण के समय करना चाहिए। 1 जून से 1 जुलाई, 2011 तक पडऩे वाले तीन ग्रहणों के समय, राहु का पाठ करने का श्रेष्ठ समय भी उपलब्ध है।
कई लोग शनि या राहु को गाली देकर बात करते हैं, यह अनुचित है। ये कुछ भी नहीं करते, आपके किए हुए कर्मों का तद्नुसार ही फल देते हैं। क्या आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्र भारत के अधिकांश प्रधानमंत्री राहु के कारण ही इतना ऊंचा राजयोग पा सके हैं। राहु के कारण ही इंदिरा गांधी सफल रहीं और उन्हीं के कारण राजीव गांधी का राज्यारोहण हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी को भी राहु ने बहुत कुछ दिया। उनकी दशांश कुण्डली में तुला में राहु बैठे हैं जिसकी दशा में उन्हें राजयोग मिला। आप सूर्य भगवान की पूजा करें और राहु की उपेक्षा करें तो यह चल नहीं सकता क्योंकि नवग्रह मण्डल में राहु को महत्वपूर्ण स्थान दिया हुआ है। सभी ग्रहों से समान कृपा प्राप्त होने पर ही हम अपने विंशोत्तरी दशा के अनुसार जीवन वर्ष प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को सफलता से भोग सकते हैं।
राहु बहुत बड़े-बड़े योग बनाते हैं और बड़े-बड़े योग भंग कर देते हैं। पाराशर राहु की प्रशंसा में कहते हैं कि यदि केन्द्राधिपति से युत होकर वे केन्द्र में स्थित हो जाएं तो महान राजयोगकारक होते हैं और अपनी दशा में शुभ फल देते हैं।
उत्तर कालामृत में भी राहु की विशेष प्रशंसा की गई है:
यद्यद्दुर्भगतौ यदीशसहितावेतौ तम:खेचरौ
स्यातां तत्फलदायिनौ बलयुतौकेन्द्रत्रिकोणेश्वरा:।
क्षेमं ते ददति प्रसक्तरहिताश्चेदन्यथा ते युता:
तौ दुष्टावपि योगत: शुभकरौ सम्बन्धमात्रेण तौ॥
ज्योतिष में राहु और केतु को छाया ग्रह की संज्ञा दी गई है। इस श्लोक में तम:खेचरौ शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है कि न केवल वे तम हैं बल्कि पाप ग्रह भी हैं। ये उस ग्रह की भांति फल देते हैं जिस भाव में बैठे हों, उसके स्वामी हों या जिस भाव के स्वामियों के साथ राहु या केतु बैठे हों उसके समान फल देते हैं अर्थात् यदि राहु या केतु छठे भाव के स्वामी के साथ बैठे हों तो छठे भाव का फल करेंगे। यदि योगकारक ग्रह के साथ बैठे हों तो शुभ फल करेंगे। उत्तर कालामृत के रचनाकार केन्द्र-त्रिकोण के स्वामी के साथ राहु और केतु की युति को सदा शुभ नहीं मानते परन्तु पाराशर मानते हैं।
तौ धर्मे यदि कर्मणि स्थितियुजौ व्यत्यासतो वा स्थितौ
योगं तौ कुरुयस्त्रिकोणपतिना योगाऽिप सौख्यप्रद:।
सौख्यं योगकृतोर्दशास्वपि भवेच्चैतद्युजां श्रेयसां
सम्बन्धादथ योगिनोऽशुभकृतां भुक्ताशुभं योगजम्॥
इस श्लोक के अनुसार यदि राहु या केतु नवम स्थान में हों और दशमेश से युत हों या दशम स्थान में हों और नवमेश से युत हों या नवम भाव में राहु या केतु हों और नवमेश, दशम भाव में हों या राहु-केतु दशम भाव में हों और दशमेश, नवम भाव में तो यह शानदार योग बनता है। राहु-केतु का योग त्रिकोण के स्वामी से भी हो जाए तो भी शुभ फल देता है। उच्चकोटि के भावों में पड़ें तो उच्चकोटि का फल मिलता है तथा खराब भावों में पड़ें तो शुभ फलों में न्यूनता आ जाती है। यदि अशुभ ग्रह योगकारक हो और राहु से संबंध हो जाए तो अशुभ फल भी मिलते हैं। इसका अर्थ यह है यदि राहु योगकारक होते हुए भी ऐसे ग्रह से युत हों जो अष्टमेश भी हो तो योग का शुभ फल काफी कुछ नष्ट हो जाता है।
राहु, बुध के प्रभाव में हों तो बुध, राहु के दोषों को दूर कर देते हैं। राहु, बृहस्पति के साथ हों तो या तो गुरु चाण्डाल योग बनाएंगे और ऐसे व्यक्ति के जीवन में घात बहुत मिलेगा या शिष्यों से विद्रोह मिलेगा परन्तु इस योग में यदि बृहस्पति अत्यन्त शक्तिशाली हों तो गुरु चाण्डाल योग अत्यन्त क्षीण हो जाएगा और गुरु, राहु के दोष अर्थात् चाण्डाल के दोष को काफी हद तक कम कर देंगे। बृहस्पति के बलवान होने से शिष्य, गुरु का पतन नहीं करा पाते और गुरु, शिष्यों को या अधीनस्थों को या दुष्टजनों को समझाने में सफल हो जाते हैं।
वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में राहु-चार अध्याय में राहु के बारे में कुछ कल्पनाओं को स्थान दिया है। वराहमिहिर की प्रवृत्ति रही है कि वो अपने से पहले के प्रचलित सिद्धांत या मान्यताओं की चर्चा करते हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख मैं यहां कर रही हूं-
1. राहु नामक राक्षस ने मस्तक कट जाने पर भी अमृत पी लेने के कारण ग्रहत्व प्राप्त किया।
2. काला होने के कारण ब्रह्माजी ने चूंकि वर प्रदान कर दिया था, अत: पर्वकाल से किसी अन्य समय में राहु, चंद्रमा और सूर्य की तरह दिखाई नहीं देते।
3. राहु मुख और पुच्छ में विभक्त हैं और वे सर्प जैसे आकार के हैं। कोई-कोई कहते हैं कि राहु का कोई भी आकार नहीं होता है, वे केवल अंधकारमय हैं।
मुखपुच्छविभक्ताङ्गं भुजङ्गमाकारमुपदिशन्त्यन्ये।
कथयन्त्यमूर्तमपरे तमोमयं सैंहिकेयाख्यम्॥
वराहमिहिर ने उक्त सब मतों की विवेचना की है और इनमें दोष भी निकाले हैं। उनके अनुसार यदि राहु मूर्तिमान, राशि में चलने वाले, सिर वाले और बिम्ब वाले होते तो निश्चित गति वाले होकर, कक्षा में स्थित रवि-चन्द्र को कैसे ग्रसते? उनका मानना है कि यदि राहु की गति भी स्थिर होती और सूर्य-चन्द्र की गति भी स्थिर होती और दोनों का कक्षापथ भी एक ही होता तो राहु इनको कभी भी नहीं ग्रस सकते थे अर्थात् या तो इनकी गतियों में अंतर हों या दोनों के कक्षापथों में अंतर या दो कक्षापथ एक-दूसरे से कहीं सम्पर्क करते हों, तब ग्रहण संभव था।
परन्तु यदि राहु अनिश्चित गति वाले होते तो उनका गणित से ज्ञान कैसे हो सकता था और उनके बारे में कोई भविष्यवाणी कैसे की जा सकती थी? इसी प्रकार यदि मुंह और पूंछ में विभक्त हैं तो अपने से तीसरी, चौथी या पांचवीं राशि पर स्थित सूर्य-चन्द्र को क्यों नहीं ग्रसते हैं? यदि सर्पाकार होते तो मुंह या पूंछ से छह राशि के अंतर पर स्थित सूर्य-चन्द्र को ग्रहण करते समय बीच के मार्ग को भी ग्रहणग्रस्त कर देते। यदि दो राहु होते तो चन्द्र के उदय या अस्त के समय ग्रहण में, सूर्य को भी ग्रसित कर लेते। यदि राहु की गति निश्चित होती तो सूर्य और चन्द्र दोनों का ग्रहण एक साथ कर सकते थे।
हम सभी तर्कों न देते हुए केवल यह कह रहे हैं कि बहुत सारी गणनाएं ऋषियों ने की थीं और तब राहु और केतु के निश्चित आचरण का ज्ञान कर पाए थे इसलिए राहु से प्राप्त दशाफल भी अनिश्चित नहीं है और अन्य ग्रहों की भांति ही उनका निश्चित आचरण है। यद्यपि सूर्य और चन्द्रमा से शत्रुता के पौराणिक आख्यान के पीछे जो खगोलशास्त्रीय नियम हैं उसमें वे इन दोनों से बलवान होकर इन दोनों का कुछ समय के लिए ग्रहण कर लेते हैं। इसी कारण से राष्ट्र के बारे में अधिक भविष्यवाणियां राहु को लेकर की जा सकी हैं। जैसे एक ही मास में ही सूर्य-चन्द्र दोनों का ग्रहण हो तो सेनाओं में हलचल मच जाने से या शस्त्र प्रहार से राजाओं का नाश होता है। हम कई राष्ट्रों में चलने वाली सैनिक गतिविधियों की चर्चाओं को इस सन्दर्भ में देख सकते हैं कि जून-जुलाई के महीने में ये ग्रहण पडऩे ही वाले हैं और यह अंक भी जून में आप को उपलब्ध होगा। 1 जून, 2011 व 1 जुलाई, 2011 को खण्डग्रास सूर्यग्रहण पड़ेंगे और 15 जून, 2011 को अद्र्धरात्रि में खण्डग्रास चन्द्रग्रहण पड़ेगा। यह भारत में दिखाई देगा।
पौराणिक संदर्भ में राहु : राहु को चोरी से अमृत पान का दोषी पाया गया और भगवान विष्णु ने उन्हें दण्डित कर दिया। इस कारण से केतु का भी जन्म हुआ और दोनों को अमृतत्व प्राप्त हुआ। ज्योतिष में यह एक पहेली ही है कि अमृत पीने वाले राहु का संबंध विष से जोड़ा गया है। संसार के समस्त प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न विष पर राहु का अधिकार है। राहु का नैसर्गिक बल सूर्य से भी अधिक माना गया है। क्यों? पुन: एक पौराणिक संदर्भ खोजते हैं। द्वादश आदित्य में सबसे आधुनिक सूर्य हैं और यही विष्णु हैं। सबसे कनिष्ठ होते हुए भी यह विष्णु सबसे प्रधान हैं। हमारे इस विष्णु या इस सूर्य को इसीलिए राहु ने ग्रहण के लिए लक्ष्य किया है। नैसर्गिक बल की गणना में सूर्य से भी अधिक राहु का नैसर्गिक बल माना गया है और यही मात्र ग्रह या छाया ग्रह हैं जोकि सूर्य को सता लेते हैं। यदि किसी का जन्म पूर्ण सूर्यग्रहण के समय हुआ है, जब राहु और सूर्य के भोगांश समान हैं और चन्द्रमा का शर इतना कम है कि ग्रहण पडऩा लाजिमी है। शर से तात्पर्य सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथ की कोणीय दूरी में न्यूनता तथा चन्द्रमा द्वारा सूर्य को कक्षापथ में भ्रमण के समय आच्छादित कर लेना है। सूर्य और चन्द्रमा के कक्षापथ के कटान बिन्दु पर अगर उत्तरी गोल में यह कटान है तो राहु कहलायेंगे। दोनों कक्षापथों में करोड़ों किलोमीटर का अन्तर होने के बाद भी राहु क्षेत्र से आने वाली सूर्यकिरणें व्यक्ति के जीवन को असामान्य बना देती हैं। गर्भाधान के उस एक क्षण मात्र में पीडि़त सूर्य की किरणें व्यक्ति के जीवन को हमेशा के लिए अंधकार में धकेल देती हैं। सूर्य पीडि़त हैं, का अर्थ है कि व्यक्ति के राज्य, पिता, यश-प्रतिष्ठा, आत्मबल और धार्मिक निष्ठाओं में भारी समस्याएँ देखने को मिलेंगी।
ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता के उल्लेख इतने महत्वपूर्ण हैं जिनमें यह बताया गया है कि हमारा ब्रह्माण्ड या हमारा सौर मण्डल ही अन्तिम नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि और भी अनगिनत ब्रह्माण्ड हैं और उनके अपने-अपने स्वतंत्र ब्रह्मा,विष्णु,महेश हैं। क्या खगोलशास्त्र के उन दार्शनिक नियमों के आधार पर जो कि ज्योतिष नियमों की पृष्ठभूमि बने हैं, हम यह कह सकते हैं कि असंख्य सौरमण्डलों के अपने-अपने सूर्य और अपने-अपने राहु-केतु भी हैं? जैसे - भूमध्यरेखा का अनन्त विस्तार ब्रह्माण्ड में यदि बाह्य सीमाओं की ओर किया जाये तो हम खगोलीय विषुवत वृत्त के अन्त में जा पहुंचेंगे। यदि सौरकक्षा का अनन्त विस्तार हम ब्रह्माण्ड की बाह्य सीमाओं तक कर दें तो क्या वे ऐसे ही दो ग्रहों के कटान बिन्दु पर, किसी और बड़े राहु का परिचय देंगी? भारत की ज्योतिष में और विश्व की अन्य ज्योतिष पद्धतियों में इस दार्शनिक तत्व का विवेचन आज तक भी नहीं किया गया है। संभवत: हमने राहु की सीमाएँ यहीं तक मान ली हैं और राहु अधिकतम हमारे देवलोक में हैं और ब्रह्मा की सभा के अधिकारी हैं। हमारे कई पौराणिक आख्यानों में सूर्य और ब्रह्मा को एक ही दार्शनिक धरातल पर देखा गया है और कहीं-कहीं तो इन्हें एक-दूसरे का पर्याय माना गया है। जब हम यह कहते हैं कि ब्रह्मा अपनी आयु के सौ दिव्य वर्ष में से पचास वर्ष पूरे कर चुके हैं तथा सूर्य अपनी आयु के पाँच अरब वर्ष पूरे कर चुके हैं तो इन दोनों बातों में एक गणितीय तालमेल दिखता है। हम शब्दान्तर से यह भी कह सकते हैं कि ब्रह्मा की सभा का अर्थ हमारे सौरमण्डल में आने वाले सभी ग्रह, उपग्रह तथा छुद्र ग्रह हैं तथा इन्हीं सब का समीकरण यक्ष, किन्नर, गंधर्व, विद्याधर, अप्सराओं तथा अन्य सभी देवगण से किया गया है।
लेख के केन्द्रीय विषय राहु इन्हीं में से एक हैं तथा अब तक प्राप्त भारतीय खगोल और ज्योतिष के ज्ञान के आधार पर यह केवल हमारे सौरमण्डल के ही सदस्य हैं अत: इन राहु का असर हमारे सूर्य या हमारे लौकिक विष्णु पर तो होता है परन्तु गौलोक में वास करने वाली अनन्त सत्ता श्रीकृष्ण पर उनका कोई असर नहीं होता क्योंकि वे हमारे ब्रह्मलोक से भी ऊपर हैं। गीता में उल्लेख है कि ब्रह्मलोक तक जो भी जाता है, वह सब पुनरावृत्ति है तथा ब्रह्मलोक में जाने के बाद भी उसका पुन: जन्म हो सकता है। ब्रह्मलोक से ऊपर जाने के बाद उसका पुन: जन्म नहीं होता। इसका अर्थ यह भी है कि प्रस्तुत लेख के विषय, राहु यदि सूर्य को या हमारी जन्मपत्रिका को प्रभावित कर दें तो वे पुनर्जन्म के कारण बनते हैं।
ज्योतिष मंथन में ही पिछले अंकों में यह उल्लेख आ चुका है कि सर्प या विष से राहु का समीकरण है तथा ये सर्प इतने महत्वपूर्ण हैं कि शिव और विष्णु दोनों के साथ हैं। संसार की हर दृश्य गति वर्तुलाकार है या सर्पाकृति है या दीर्घवृत में है। जिस दिन यह गतियाँ सम्पूर्ण वृत्त में बदल जायेंगी, वह दिन प्रलय का होगा और जगत या माया और ईश्वर के एकीकरण का होगा। (संपादकीय लेख पृष्ठ-6, अंक मई, 2011) यहाँ केवल इतना लिखना पर्याप्त है कि राहु अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और किसी भी ईश्वर या देवता से अलग उनके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। भगवान शिव के गले में सर्प हैं तो भगवान विष्णु सर्पशैय्या पर हैं। भगवान कृष्ण भी कालियदमन करके नाग को उसका अतीत याद दिलाते हैं। भारतीय कथाएँ किसी भी कथानक को अपूर्ण नहीं छोड़तीं। सर्प भी भगवान विष्णु और शिव के समानान्तर सत्ता नहीं हो जाएं अत: सर्प के शत्रु गरुड़ की भी सृष्टि की गई है।
हमारे जीवन में राहुदशा: राहु को मिथुन में उच्च राशि में माना गया है और केतु को धनु राशि में उच्च का माना गया है। कई ग्रंथकारों ने जिनमें उत्तरकालामृत के रचनाकार भी शामिल हैं, राहु को वृषभ में और केतु को वृश्चिक राशि में उच्च राशि का माना है। कन्या और मीन को राहु-केतु की स्वराशि माना है। राहु-केतु के बारे में एक सामान्य कथन है या तो ये जिस राशि में स्थित होते हैं, उस राशि स्वामी के अनुरूप फल देते हैं या ये जिस ग्रह के साथ होते हैं, उस ग्रह का फल देते हैं। इनकी मूलत्रिकोण राशि कुंभ है तथा जैमिनि ने अपने चर कारकत्व के सिद्धान्त में यह कहा है कि यदि दो ग्रहों में परस्पर युद्ध हो जाये तथा वे किसी चर कारक के लिए प्रतिद्वन्द्वी हों तो राहु को चर कारकों में स्थान मिल जाता है अत: राशि स्वामित्व के आधार पर किसी फल कथन की अपेक्षा लग्न पर आधारित राहु के फल बताया जाना समीचीन होगा।
लग्न में स्थित राहु आपके व्यक्तित्व, शारीरिक सौष्ठव, आत्मा की शुद्धि और मनोबल पर प्रभाव डालते हैं। लग्नस्थ राहु संतान और जीवनसाथी से असंतोष बताते हैं और यदि नवम भाव में अनुकूल राशि नहीं हुई तो कभी-कभी धर्म विरुद्ध आचरण की भी प्रेरणा देते हैं। यह सब राहु महादशा में आयेगा।
यदि द्वितीय भाव में राहु हुए तो वृषभ, मिथुन, कन्या, तुला, धनु और कुंभ में तो अनुकूल परिणाम दे सकते हैं और परिवार को एक बनाये रखने में रुचि लेते हैं अन्यथा परिवार नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। पैत्तृक सम्पत्तियों को लेकर झगड़े होते हैं और परिवारों के विभाजन हो जाते हैं।
यदि तीसरे भाव में राहु हों तो अनुकूल होने पर उच्च कोटि का वैवाहिक जीवन, सहोदरों से सहयोग तथा बड़े भागीदारी व्यवसाय देखने को मिलते हैं तथा राहु अशुभ सिद्ध होने पर इन सब विषयों में नकारात्मक परिणाम देते हैं। तीसरे भाव के राहु दुस्साहसी हैं और लौकिक जीवन में सफलता लाते हैं। सबकुछ नैतिक नियमों पर आधारित हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता।
चतुर्थ भाव के राहु माता से संबंधित पीड़ा देते हैं। भूमि-भवन में विवाद मिलते हैं, जन्म स्थान से दूर कहीं आजीविका होती है परन्तु जन्म स्थान से जुड़े रहते हैं और चाहे ख्याति हो, चाहे कुख्याति, खूब ही मिलती है।
पंचम भाव के राहु अपनी महादशा में संतान संंबंधी पीड़ा देते हैं, संतान जन्म में बाधा उत्पन्न करते हैं, अचानक धन प्राप्ति कराते हैं, राजयोग तथा राजभंग, दोनों ही देते हैं। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति में साधनों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देता।
छठे भाव के राहु शत्रुहंता होते हैं और अपनी महादशा में रोग, रिपु, ऋण तो देते ही हैं, व्यक्ति अद्म्य साहस का परिचय भी दे देता है। यहाँ स्थित राहु महान षडय़ंत्रकारी सिद्ध होते हैं।
सप्तम भाव स्थित राहु दाम्पत्य जीवन में एक तरफ उच्च कोटि के फल देते हैं, दूसरी तरफ जीवनसाथी को संदिग्ध बना देते हैं। सप्तम भाव में स्थित कोई भी वक्री ग्रह शुभ फल नहीं देते परन्तु राहु तो षडय़ंत्र और विश्वासघात के चरम हैं। सप्तमस्थ राहु न तो संन्यास लेने देते हैं और गृहस्थ संन्यासी बनाने की चेष्टा करते हैं। यौवनकाल स्वच्छंद आचरण में बीतता है और लौकिक सफलताएँ तूफानी गति से आती हैं और उत्थान-पतन धूप-छाँव की तरह चलता रहता है।
अष्टमस्थ राहु अपनी महादशा में कष्ट, पतन, स्वास्थ्य हानि और अपमान देते हैं। यदि केन्द्र-त्रिकोणाधिपति के साथ राहु हुए या अपनी उच्चादि राशियों में हुए तो दु:ख के साथ सुख भी देते हैं। अष्टम में स्थित राहु शोध कार्यों के लिए और तंत्र-मंत्र के लिए वरदान हंै। अष्टमस्थ राहु का व्यक्ति जीवन में अकेला ही चलता है।
नवम भाव में स्थित राहु व्यक्ति को विधर्मी बना सकते हैं। विधर्मी का अर्थ है - नियम तोडऩे वाला। ऐसा व्यक्ति कभी भी धर्म मार्ग छोड़ सकता है और गुरुद्रोही भी हो सकता है। अत्यंत शुभ प्रभाव ही ऐसे राहु को श्रेष्ठ फल के लिए प्रेरित कर सकते हैं। नवमस्थ राहु की कलियुग में बहुत पूछ है और वे निन्दित नहीं रहे हैं।
दशम भाव में स्थित राहु अपनी महादशा में बहुत उन्नति देते हैं और लौकिक सफलताएँ भी। विवादित व्यक्तित्व हो सकता है परन्तु उनमें नेतृत्व क्षमता होती है और अपने महान पराक्रम से वह व्यक्ति केवल जीतने के लिए काम करता है। साधनों की पवित्रता उसके लिए कोई महत्व नहीं रखती तथा वह सफलता के लिए हर मार्ग अपना सकता है। वे श्रेष्ठ कूटनीतिकार होते हैं।
एकादश भाव में स्थित राहु लाभ कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। एकादश भाव में वैसे भी पाप ग्रह प्रसन्न होते हैं। यदि यहाँ राहु किसी से युत हों, किसी ग्रह से दृष्ट हों तो बहुत बड़ा परिणाम दे सकते हैं। जितने पाप ग्रह यहाँ मिलेंगे, उतना ही बड़े भाई-बहिन के लिए घातक सिद्ध होंगे। यहाँ पैसा तो आयेगा परन्तु किसी अनिष्ट की कीमत पर। सम्पूर्ण दशा काल एक जैसा नहीं रहता और अच्छे-बुरे परिणाम आते रहते हैं।
द्वादश भाव में स्थित राहु परदेस गमन कराते हैं, संसर्ग सुख की प्रेरणा देते हैं तथा खर्चा बहुत कराते हैं, कानूनी समस्याएँ कराते हैं और उन सब कामों की प्रेरणा देते हैं, जिनको करने के बाद व्यक्ति का कम से कम पुनर्जन्म जरूरी हो जाये। द्वादशस्थ राहु मोक्ष मार्ग में बाधक हैं जबकि द्वादशस्थ केतु व्यक्ति को धार्मिक बनाते हैं और मोक्षमार्गी होने की प्रेरणा देते हैं।
राहु पर अन्य विचार : राहु यदि छठे, आठवें और बारहवें हों और इन्हीं भावों के स्वामियों से युत या दृष्ट हों तो अपनी दशा में भारी शारीरिक कष्ट देते हैं। यह मारक सिद्ध होते हैं परन्तु जब यह केन्द्र तथा त्रिकोण के स्वामी के साथ स्थित हों तो थोड़ा सा सुख देते हैं परन्तु रोग, घाव, राजकीय कोप तथा बंधन आदि देते हैं।
राहु-केतु के लिए धनु तथा मीन तटस्थ राशियाँ हैं तथा सिंह तथा कर्क शत्रु राशि हैं। यदि केन्द्र स्थान में राहु योगकारक ग्रहों के साथ हों तो अत्यंत शक्तिशाली शुभ परिणाम देते हैं परन्तु दूसरे तथा सातवें भाव के स्वामी के साथ स्थित हों तो कष्टकारक सिद्ध होते हैं। शुभ राहु तीर्थयात्रा कराते हैं, गंगा स्नान कराते हैं, ज्ञान तथा प्रभाव देते हैं।
राहु चाण्डाल जातियों के स्वामी हैं। इनका स्थान वल्मीक है, जहाँ दीमक रहती है। राहु की धातु सीसा है। शरीर में जो भी ग्र्रंथि भाग हैं या नलिकाकार हैं, जैसे - आँतें या लौकिक जगत में जो भी वस्तुएँ ग्रंथि की आकृति की हैं, जैसे कि अदरक या लहसुन, उन सब पर राहु का अधिकार है। धूम सदृश नीला शरीर, वनवासी, भयानक, वात प्रकृति और बुद्धिमान, यह सब राहु से प्रभावित व्यक्ति के लक्षण हैं।
राहु की गति : राहु कक्षापथ में अन्य ग्रहों से विपरीत दिशा में गमन करते हैं। सदा ही वक्री रहते हैं परन्तु गणनाओं से स्पष्ट होता है कि राहु कभी-कभी मार्गी गति भी चलते हैं। राहु चूंकि वक्री रहते हैं और कोई एक वक्री ग्रह भी राहु पर दृष्टि कर ले तो यह अत्यन्त शक्तिशाली हो जाते हैं। उत्तराकालामृत के रचनाकार ने दो वक्री ग्रहों के संबंध को एक अत्यन्त शक्तिशाली स्थिति माना है और बहुत बड़े परिणाम इससे आते हैं। इस योग का अर्थ यह है कि कोई वक्री ग्रह किसी अन्य वक्री ग्रह की दृष्टि प्राप्त करे तो वह अत्यन्त शक्तिशाली हो जाता है।
होराग्रंथों में इस बात की विवेचना बिल्कुल भी नहीं मिलती है कि समान गति 3 कला 11 विकला होते हुए भी राहु और केतु दशा वर्ष अलग-अलग क्यों हैं? होराग्रंथों में इस संबंध में कोई भी विश्लेषण नहीं मिलता और आधुनिक भारत का कोई भी महान ज्योतिषी इसका जवाब देने में सक्षम भी नहीं है।
कालसर्प योग : वृहत्पाराशर होराशास्त्र के अन्तिम भाग में पूर्वजन्म शापद्योतनाध्याय में पंचम भाव से राहु-मंगल जैसे ग्रहों के संबंध के कारण संतान हानि के योग बताये गये हैं। इसी को आधुनिक ज्योतिषियों ने कालसर्प योग में परिवर्तित कर दिया है। पाराशर, जैमिनि, कल्याण वर्मा, कालिदास, किसी भी ग्रंथकार ने कालसर्प योग का नाम भी नहीं लिया परन्तु कई ज्योतिषी इन्हीं ग्रंथों से ज्योतिष सीख-सीख कर कालसर्प योग की माला पढ़ रहे हैं। अकाल मृत्यु का भय बताकर धंधा अच्छा हो सकता है। इस तरह से कलियुग में शनि के साथ-साथ राहु का भी अनन्त विस्तार हो गया है।
वराहमिहिर कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने राहु को ऐसा वर दिया था कि ग्रहण समय में लोगों के द्वारा दिये हुए हुतांश से तेरी तृप्ति होती रहेगी। इस कारण चन्द्र की दक्षिणोत्तरा गति उत्पन्न करने वाले राहु का पूजा-पाठ ग्रहण के समय करना चाहिए। 1 जून से 1 जुलाई, 2011 तक पडऩे वाले तीन ग्रहणों के समय, राहु का पाठ करने का श्रेष्ठ समय भी उपलब्ध है।
कृपया बताये दशाये कैसे कम करती जैसे राहु की महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा हो सूर्य की प्रन्तार्दशा हो तो इस अवधि में राहु अपने अनुसार फल देगा या शुक्र या फिर सूर्य का फल मिलेगा.
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