Wednesday, May 25, 2011

वास्तु शास्त्र : वैदिक काल की मास्टर प्लानिंग

प्राचीन काल में ब्रह्मा नेविश्व की सृष्टि से पूर्व वासतु की सृष्टि की तथा लोकपालों की कल्पना की। ब्रह्मा ने जो मानसी सृष्टि की उसे मूर्त रूप देने हेतु विश्वकर्मा ने अपने चारों मानस पुत्र जय, विजय, सिद्धार्थ व अपराजित को आदेशित करते हुए कहा कि ‘मैंने देवताओं के भवन इत्यादि (यथा इन्द्र की अमरावती) की स्थापना अब तक की है। अब वेन पुत्र पृथु के निवास हेतु राजधानी का निर्माण मैं स्वयं करूंगा। तुम लोग समस्त भूलोक का अध्ययन करो सामान्य जन की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापनाएं करो’ विश्वकर्मा के इस संवाद से उच्चकोटि का चिंतन योजना व प्रबंधन का संकेत मिलता है एक तरफ नगर निवेशन व दूसरी तरफ आंतरिक रचनाओं में वास्तु पुरुष के देवत्व का आरोपण करते हुए भौतिक सृष्टि में दार्शनिक सौन्दर्य की समष्टि करते हुए उससे चारों पुरुषार्थ की अभिष्ट सिद्धि की कामना की गई थी वृहत्संहिता के अनुसार जिस भांति किसी गृह में वास्तु पुरुष की कल्पना करते हुए कार्य किया जाता है, उसी भांति नगर व ग्रामों में ऐसे ही वास्तुदेवता स्थित होते हैं व उस नगर ग्रामादि में ब्रह्मादि वर्णों को क्रमानुसार बावें समराङ्गण सूत्रधार के पुर निवेश प्रकरय में वर्णों के आधार पर बसावट करने के विस्तृत निर्देश दिए हैं।
अग्नि कोण में अग्नि कर्मी लोग, स्वर्णकार, लुहार इत्यादि को बसाना चाहिए, दक्षिण दिशा मे वैश्यों के सम्पन्न लोगों के, चक्रिको अर्थात् गाड़ी वाले नट या नर्तकों के घर स्थापित करने चाहिए। सौकारिक (सूकरोपनीकी), मेषीकार (गडरिया), बहेलिया, केवट व पुलिस इत्यादि को नैऋत्य कोण में बसाना चाहिए। रथों, शस्त्रों के बनाने वालों को पश्चिम दिशा में बसाना चाहिए। नौकरी व कलालों को वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। सन्यासियों को, विद्वानों को, प्याऊ व धर्मशाला को उत्तर दिशा में बसाना चाहिए। ईशान में घी, फल वालों बसाना चाहिए। आग्नेय दिशा में वे बसें जो सेनापति, सामन्त या सत्ताधारी व्यक्ति हों। धनिक व व्यवसायी दक्षिण, कोषाध्यक्ष, महामार्ग, दंडनायक व शिल्पियों को पश्चिम दिशा में व उत्तर दिशा में पुरोहित, ज्योतिष लेखक व विद्वान बसें।
क्या है वास्तुपुरुष? : वास्तु पुरुष की कल्पना भूखंड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिससे उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती है। देवताओं से युद्ध के समय एक राक्षस को देवताओं ने परास्त कर भूमि में गाड़ दिया व स्वयं उसके शरीर पर खड़े रहे। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा से प्रार्थना किए जाने पर इस असुर को पूजा का अधिकार मिला। ब्रह्मा ने वरदान दिया कि निर्माण तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष मंडल का सम्मान करते हुए निर्माण किए जाएं। इनमें वास्तु पुरुष के अतिरिक्त 45 अन्य देवता भी शामिल हैं। अतिरिक्त 45 देवताओं में 32 तो बाहरी और भूखंड की परिधि पर ही विराजमान हैं व शेष 13 भूखंड के अन्दर हैं।
पद वास्तु : वास्तु पुरुष का आविर्भाव इतिहास में कब हुआ इसका समय ज्ञात नहीं है परन्तु वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधान के साथ किया जाता था। क्रमश: यहीं से विकास कार्य शुरू हुआ व एक पदीय वास्तु (जिसमें वास्तुखंड के और विभाजन न किए जाएं) जिसे सकल कहते हैं, पेचक मंडल जिसमें एक वर्ग के चार बराबर विभाजन किए जाएं, वर्ग को नौ बराबर भागों में विभाजित किया जाए। उसे पौठ, फिर 16,64,81,100 भाग वाले वास्तु खंड का विकास हुआ। इसी क्रम में यह निश्चय भी किया गया कि चतु:शष्टिपद वास्तु या एकशीतिपद वास्तु या शतपद वास्तु मं क्रमश: किन वणों में बसाया जाए। समर्स य सूत्रधार के अनुसार मुख्य रूप से 64, 81, 100 पद वाले वास्तु का अधिक प्रचलन हुआ। उक्त ग्रंथ के अनुसार चतुषष्टिपद वास्तु का प्रयोग राजशिविर ग्राम या नगर की स्थापना के समय करना चाहिए। एकशीतिपद वास्तु (81 पद) का प्रयोग ब्राह्मणादि वर्णों के घर, इत्यादि में करना चाहिए। शतपद वास्तु का प्रयोग स्थापति (आर्किटेक्ट) को महलों, देवमंदिरों व बड़े सभागार इत्यादि में करना चाहिए।
पद विभाजन की स्वीकृति 11वीं शताब्दी तक वृत वास्तु, जो कि राजप्रसादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त वास्तु, जो कि राजप्रसादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त वास्तु व शतपद वृत्त वास्तु प्रचलन में बने रहे। त्रिकोण, षटकोण, अष्टकोण, सौलहकोण वृत्तायत व अद्र्धचंद्राकार वास्तु में भी वृत्त वास्तु के समान पद विभाजन तथा तदनुसार ही वास्तु पुरुष स्थापन का प्रावधान रखा गया है।
देवता : एकशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं, ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिरवी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य भ्रंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनिल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, वृहत, क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हैं। नेऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), कुसुमदंत, वरुण, असुर, शोष और राजपदमा तथा वायव्य कोण से प्रारम्भ करके तत अनन्त वासुकी, मल्लार, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नौवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में वैवस्वान, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजपदमा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में साविग, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रूद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है इनके मस्तक पर शिरकी स्थित है। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर स्थल और स्कंध पर स्थित हैं।
सत्य आदि पांच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहन्दात पाश्र्व पर हैं, वैवस्वान उदर पर हैं, सम उरू पर, गंधर्व ाजनु पर, भृंगराज जंघा पर और मृग स्थिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तु पुरुष के दाईं ओर स्थित हैं। बाएं स्तर पर पृथ्वी, अधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट मुख्य, अहिरोग व पाप यक्ष्मा, हाथ पर रूद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर कुसुमदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तु पुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं। हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पिता हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिका या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्री वृद्धि होती है, शांति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना येजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृहस्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बुरे परिणाम साथ-साथ मिलते रहते हैं।
वास्तु पुरुष के दोष : यह एक कठिन विद्या है, जिसमें भौतिक निर्माण कृत्य में कब कौन देवता क्रोधित हो जाए व क्या परिणाम देंगे, इनका ज्ञान आवश्यक है। कुछ सामानय गृह दोष व उनके परिणाम बताए जा रहे हैं, जो जनोपयोगी हैं। सामान्य जन इनका बिना किसी विशेषज्ञ की मदद से भी उपयोग कर सकते हैं। देवतागण यदि रुष्ट हों तो प्रत्येक देवता अपनी प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। इक्यासी व चौसठ पद वाली वास्तु में चारों दीवारों पर कुल बत्तीस द्वारों की कल्पना की गई है इनमें से प्रत्येक भाग (द्वार) पर विभिन्न फल प्राप्त होते हैं। पूर्वी दीवार पर अग्नि से अंतरिक्ष तक द्वार होवें तो क्रमश: अग्निभय कन्या जन्म, धन, राजा की प्रसन्नता, क्रोधीपन, झूंठ बोलना, क्रूरपन व चौर्यवृत्ति यह फल होते हैं। दक्षिण दीवार या पूर्व के अनिल से शुरू करके दक्षिणी दीवार या सीमा पर जो आठ देवता स्थित हैं, वे क्रम से हर द्वार पर अल्प पुत्रता, दासपन, नीचपन, भोजन, पान और पुत्रों की वृद्धि, कृतघ्न, धनहीनता, पुत्र और बल का नाश होता है।
इन नियमों का उल्लंघन जहां कहीं भी हुआ है, परिणाम अच्छे नहीं आए हैं। अक्टूबर 1995 में चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज आबू रोड के पदाधिकारियों के साथ मैंने पूरे औद्योगिक क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। दक्षिण दिशा में बढ़ाव एक ऐसी समस्या है जो कि पूरे औद्योगिक क्षेत्र में समान रूप से विद्यमान है इसका कारण रेलवे लाइन के समानान्तर प्लाट्स का आवंटन किया जाना है। दूसरे पहाड़ के दक्षिण दिशा (ढलान) में रीको द्वारा आवंटन किए जाने के कारण काफी प्लाटों में वास्तुपुरुष का सिर उठा हुआ है। फलत: काफी बड़ी संख्या में कारखाने बंद हो गए या घाटे में हैं। ऐसे कई सामान्य दोष देश के अन्य नगरों में भी देखे हैं।
वास्तु देवता: पूजा विधान : मत्स्य पुराण के अध्याय 251 के अनुसार अंधकार के वध के समय जो श्वेत बिन्दु भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर गिरे, उनसे भयंकर आकृति वाला पुरुष उत्पन्न हुआ। उसने अंधकगणों का रक्तपान किया तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई। त्रिलोकी का भक्षण करने को जब वह उद्यत हुआ, तो शंकर आदि समस्त देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया व पूजा करवाए जाने का वरदान दिया। हिन्दु संस्कृति में देव पूजा का विधान है। यह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है। साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है। वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा एवं चक्र भी बनाया जाता है, जो कि वास्तु चक्र के नाम से प्रसिद्ध है।
जिस स्थान पर गृह, प्रसाद, यज्ञमंडप या ग्राम नगर आदि की स्थापना करनी हो, उसके नैऋत्य कोण में वास्तु देव का निर्माण करना चाहिए। सामान्य विष्णु रूद्रादि यज्ञों में भी यज्ञमंडप में यथा स्थान नवग्रह, सर्वतोभद्र मण्डलों की स्थापना के साथ-साथ नैऋत्य कोण में वास्तु पीठ की स्थापना आवश्यक होती है। वास्तु शान्ति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तु योग कर्म में तो वास्तु पीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है। वास्तु देवता का मूल मंत्र इस प्रकार है:
वास्तोष्पते प्रति जानी हास्मान। त्स्वावेशो अनमीवो भवान:॥
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वशं नो। भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ (ऋग्वेद 7-54-1)
वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तोष्पति साक्षात परमात्मा का ही नामान्तर है, क्योंकि वे विश्व ब्रह्मा, इंद्र आदि अष्ट लोकपाल सहित 45 देवता अधिष्ठित होते हैं। कर्मकाण्ड ग्रंथों तथा गृह्यसूत्रों में इनकी उपासना एवं हवन आदि के अलग-अलग मंत्र निर्दिष्ट हैं। हयशीर्ष पांचशत्र, कपिल पांचरात्र, वास्तुराजवल्लभ आदि ग्रंथों के अनुसार प्राय: सभी वास्तु संबंधी कृत्यों में एकाशीति (18) तथा चतुषष्टि (64) कोषठात्मक चक्रयुक्त वास्तुवेदी के निर्माण करने की विधि है। इन दोनों में सामान्य अंतर है। 81 पद वाली वास्तु में उत्तर-दक्षिण और पूर्व पश्चिम से 10-10 रेखाएं खींची जाती हैं और चक्र रचना के समय 20 देवियों के नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार मंत्र से रेखाकरण क्रिया सम्पन्न की जाती है। 64 पद वाली वास्तु में 9-9 रेखाएं खींची जाती हैं। ये नौ रेखाएं नौ देवियों के प्रतिनिधि भूत हैं। रेखा खींचते समय वेदमंत्रों से इन देवियों को नमस्कार करना चाहिए। इनका नाम है लक्ष्मी, यशोवती, कान्ता, सुप्रिया, विमला, श्री, सुभगा, सुगति व इंद्रा। इसी प्रकार उत्तर-दक्षिण की रेखा देवियों के नाम इस प्रकार हैं- धान्या, प्राणा, विशाला, स्थ्रिा, भद्रा, स्वाहा, जया, निशा तथा विरजा।
वास्तुमंडल में 45 देवताओं का स्थान निर्धारण करने के पश्चात् मंडल के बाहर ईशान, आग्नेय, नैऋत्य तथा वायव्य कोणों में क्रमश: चरकी, बिदारी, पूतना, पापराक्षसी की प्रथा चार दिशाओं में स्कंद, अर्यभा, जृम्भक तथा पिन्निपिन्ध देवताओं की स्थापना करनी चाहिए। फिर दस दिक्पालों का आह्वान कर पूजा करनी चाहिए। वास्तुचक्र के उत्तर में वास्तु कलश की स्थापना कर उसमें वास्तु देवता की अग्न्युत्तारणपूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए तथा फिर विधिपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करके चक्रस्थ देवताओं को पायस बलि देकर उनसे कल्याण की कामना करनी चाहिए।

आद्राü प्रवेश

भारतीय मानक समयानुसार दिनांक 22 जून, 2011, बुधवार को सायँ: 16:06बजे सूर्य आद्रा नक्षत्र में प्रवेश करेंगे। इस समय पूर्वी क्षितिज पर तुला लग्न उदित हो रही होगी एवं चंद्रमा पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में और मीन राशि में रहेंगे।
तदनुसार वि. संवत् - 2068, आषाढ़ कृष्ण 7, बुधवार को आयुष्मान योग, बव करण में दिन चतुर्थ प्रहर में सूर्य आद्रा में प्रवेश करेंगे।
आद्रा प्रवेश के परिणाम (वर्तमान पंचांग पर आधारित) प्रवेश तिथि - सप्तमी : उत्तम पैदावार, सुख-शांति का वातावरण तथा उत्तम वर्षा हो।
प्रवेश वार - (बुधवार) : शिक्षा, अध्ययन-अध्यापन, वैदिक विद्याओं धर्म तथा कर्मकाण्ड से जु़डे लोगों का कल्याण हो।
प्रवेश समय - चंद क्षत्र : पूर्वाभाद्रपद - वातावरण आनंददायक रहे।
योग आयुष्मान : सत्तारूढ़ दल शासक वर्ग जनता की भलाई के कार्य करेंगे।
आद्राü प्रवेश लग्न : इस वर्ष 2011 में आद्राü प्रवेश के समय सूर्य चन्द्रमा परस्पर नवम-पंचम स्थिति में हैं। चंद्रमा कुंभ राशि में हैं और सूर्य मिथुन राशि में हैं। सूर्य चंद्र की यह स्थिति वर्षा की दृष्टि से बहुत उत्तम होती है। सूर्य दिन के अंतिम चौथे प्रहर में आद्राü नक्षत्र में आयेंगे। यह सुख-समृद्धि अच्छी पैदावार का लक्षण हैं।

आद्राü प्रवेश लग्न के स्वामी शुक्र अष्टम में हैं परंतु स्वगृही हैं तथा मंगल भी सूर्य से पिछली राशि में हैं, जो वर्षा की दृष्टि से उत्तम योग है।
निष्कर्ष: आद्राü प्रवेश कुण्डली के दिन चन्द्रमा कुंभ राशि में हैं और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में हैं। गुरू मेष राशि में हैं, जो बहुत भारी वर्षा के संकेत नहीं दे रहे हैं। जल राशियां विशेष्ा प्रभावशाली नहीं है जिसके कारण देश के कुछ भागों में गरज के साथ छींटे प़डेंगे तथा वर्षा भी होगी परन्तु उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में बहुत तेज वर्षा नहीं होगी इससे यह संकेत मिलता है कि आने वाले मौसम में बहुत शानदार वर्षा होगी। मंगल लगातार सूर्य से पीछे बने हुए हैं, जिसके कारण बादल गरजने की संभावना बराबर बनी रहेगी। पूरे वर्षा के मौसम में मंगल सूर्य से पीछे-पीछे ही चल रहे हैं अत: वे वर्षाकाल में अवरोध नहीं बनेंगे। इस वर्ष रोहिणी वास भी समुद्र में होने के कारण काफी अच्छी वर्षा के योग भी बन रहे हैं। आद्राü प्रवेश के समय कुर्मचक्र में जो नक्षत्र प्रभावित हो रहे हैं, वे मध्य भारत में ही अच्छी वर्षा कराना चाहते हैं भारत के रेगिस्तानी क्षेत्रों में भी वर्षा होगी और अन्य भू-भागों में भी अच्छी वर्षा होगी।
रोहिणी चक्र:

रोहिणी का वास : समुद्र में इस वर्ष रोहिणी का वास समुद्र में होने के कारण रोहिणी माली के घर में प्रवेश करेगी। माली का संकेतार्थ उस वर्ग से है, जो जायद रबी या जायद खरीफ फसल बोते हैं। इस का अर्थ यह है कि मार्च-अप्रैल में पकने वाली फसल के बाद वाली फसल जोकि कैश क्रोप कहलाती हैं तथा इसी तरह से बरसात के मौसम में उगने वाली फसलें, जिनमें फल, सब्जी इत्यादि बहुतायत से होते हैं। माली सामान्य किसान से हटकर अलग से होता है और फल-फूल-शाख में अधिक रूचि लेता है। यहाँ रोहिणी का संकेतार्थ हम लक्ष्मीजी से भी ले सकते हैं। लक्ष्मीजी माली के घर जाने का अर्थ यह है कि इन घरों में धन वृद्धि होगी या धन की आवक बढ़ेगी।

माली
वर्ग समूह से नये संदर्भ में हम उन सभी व्यवसाय करने वालों को ले सकते हैं, जिनको अत्यधिक वर्षा से लाभ हो रहा है। स़डक-नदी-नाले-बांध-पुल जब क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, तो उनसे जिन इंजीनियरों, ठेकेदारों या मजदूरों को लाभ होता है, उन्हें माली माना जा सकता है। इसी भांति बरसाती छाता, बरसाती कप़डे, स्कूल ड्रेस, नाव बनाने वाले, पुल बनाने वाले, मकानों में नुकसान होने के बाद काम करने वाला वर्ग, वाहनों इत्यादि की मरम्मत करने वाला वर्ग, इत्यादि सब माली की श्रेणी में आते हैं। ऎसे बहुत सारे और वर्ग हैं, जिन्हें अत्यधिक वर्षा के कारण लाभ पहुंचता है। देश का बहुत ब़डा मजदूर वर्ग इस श्रेणी में जाता है। इन सबको विशेष धन लाभ होगा।
सप्तऩाडी
चक्र : 7-8जून 2011 को चन्द्रमा अपनी ही ऩाडी मे रहेंगे, बुध अस्त रहेंगे और शनि हस्त नक्षत्र मे रहते हुए वक्री रहेंगे। जल नक्षत्रों में होने के कारण यह वर्षा देने मे सक्षम हैं और यह मानसून पूर्व वर्षा के संकेत हैं। पुन: 20 जून को चंद्रमा अपनी ही ऩाडी मे रहेंगे। बुध आद्राü नक्षत्र मे रहेंगे, शनि हस्त नक्षत्र में रहेंगे और सूर्य आद्राü नक्षत्र मे आने की तैयारी कर रहे होंगे। यह वर्षा के लक्षण हैं परन्तु खंड वर्षा होगी और सर्वत्र एक साथ नहीं होगी। आद्राü प्रवेश के दिन सूर्य आद्राü नक्षत्र में, बुध आद्राü में, चन्द्रमा पू.भा. में (नीरा ऩाडी में) तथा शनि हस्त में रहेंगे। यह वर्षा होने के संकेत हैं। इससे आगामी वर्षा का मौसम बिग़डने के संकेत हैं परन्तु रोहिणी का वास समुद्र में होने के कारण तथा सप्त ऩाडी चक्र जाग्रत रहने के कारण ऎसा नहीं होगा और वर्षा समय-समय पर होती रहेगी। इस मौसम में कुछ दिन ऎसे जाएंगे जब बहुत अधिक वर्षा होगी और कहीं-कहीं बाढ़ का असर देखने को मिलेगा। इस बार देश के कई क्षेत्रों मे जल प्लावन की स्थितियां बनेंगी। जुलाई के प्रथम दस दिन देशभर में भारी वर्षा के हैं।

1-7 से जुलाई तक अच्छी वर्षा होने के योग हैं। एक जुलाई को सूर्य और चंद्रमा आद्राü नक्षत्र में, बुध पुष्य नक्षत्र मे रहेंगे जो कि उनकी अपनी ही ऩाडी है और जल ऩाडी है तथा शनि हस्त नक्षत्र में रहकर वर्षा प्रदायक हैं।

4-7 जुलाई के बीच मे सूर्य आद्राü नक्षत्र मे और चंद्रमा आश्लेषा, बुध पुष्य नक्षत्र मे और शनि हस्त नक्षत्र में रहेगे और इस तरह से चंद्रमा दो दिन अपनी ही ऩाडी में रहेगे। चंद्रमा को दो दिन मिलेंगे 4 5 जुलाई परन्तु 5 जुलाई को शुक्र आद्राü नक्षत्र में आकर अपनी ही ऩाडी में जाएंगे और इस तरह से 5 जुलाई को देशभर मे भारी वर्षा के योग हैं। सूर्य 6जुलाई को दोपहर बाद पुनर्वसु नक्षत्र मे जाएंगे जिससे कि वे भी वर्षाकारक हो जाएंगे। चंद्रमा 7 जुलाई तक वर्षाकारक रहेंगे। इस समय देश के तटीय क्षेत्रों मे और बिहार जैसे राज्यों में बाढ़ जैसी स्थितियां रहेंगी। इस समय मुम्बई में भारी संकट चल रहा होगा। आंध्र प्रदेश के तटीय भागों मे जानमाल का नुकसान होने की संभावना है। रेगिस्तानी क्षेत्रों मे भी अच्छी वर्षा होगी। 11 जुलाई से चन्द्रमा यद्यपि चंडा ऩाडी में हैं परन्तु जल राशि में होने के कारण वर्षा कारक हैं। 11 से 13 जुलाई तक देश के कई भागों मे वर्षा होने की संभावना है। 15 जुलाई से 21 जुलाई के बीच में पुन: वर्षा होगी। इनमें से 16, 17, 18जुलाई को भारी वर्षा होने के संकेत हैं। इन दिनों शुक्र अस्त रहेंगे। शुक्र और चंद्रमा अपनी ही ऩाडी मे रहेंगे। इस समय कहीं-कहीं बिजली गिरने के संकेत हैं और पानी रूक-रूक कर बरसेगा। जुलाई के अंतिम दिनों में फिर भारी वर्षा होगी। इस अंक मे जून और जुलाई के वर्षा अनुमान दिए गए हैं। इससे अगले अंक में अगस्त और सितम्बर के वर्षा अनुमान दिए जाएंगे।

किस दशा का है इंतजार ?

मंगल की दशा उत्थान या पतन तय करती है। मंगल व्यक्ति को साधारण नहीं रहने देते हैं। मंगल के आगमन से पहले ही पराक्रम के लक्षण दिखने लगते हैं और स्वभाव में अग्नि का समावेश होने लगता है। मंगल या तो कर्ज से मुक्ति दिलाते हैं या अनन्त कर्ज में डाल देते हैं। यह काम यद्यपि बृहस्पति का है और उनके कर्ज निवारण में मंगल को भी श्रेय दिया जाता है। इसका कारण यह हो सकता है कि जीवन में किसी पराक्रम का प्रदर्शन करते समय यदि गणना में कोई गलती हो जाये, तो वह व्यक्ति परास्त हो जाता है। किसी कारखाने का घाटे में चला जाना, किसी सेना का हार जाना, कोई मुकदमा हार जाना या अपना भाग्य शत्रु को हस्तगत कर देना, व्यक्ति को दुर्भाग्य के घेरे में ले आता है। कल्पना कीजिए कि मंगल के पराक्रम के वशीभूत कोई व्यक्ति शत्रु पर आक्रमण तो कर दे, परन्तु कोई गलती हो जाये, तो फिर मृत्यु से ही साक्षात्कार होगा। एक गलती जिन्दगी भर के दु: में बदल जाती है।

स्व. पण्डित रामचन्द्र जी जोशी कहा करते थे कि उच्चा के मंगल वाला व्यक्ति झूठ बोलता है। ऎसा क्योंक् शायद इसलिए कि अब युद्ध क्षेत्र नहीं बचे, तलवारे भांजने का जमाना जा चुका है तथा मंगल देवता की कृपा से व्यक्ति शौर्य प्रदर्शन करेगा ही करेगा। नतीजतन वह वाग्विलास में शौर्य प्रदर्शन करेगा। एक उदाहरण प्रस्तुत करती हँू।

एक बच्चाा - मेरे दादाजी की चारपाई इतनी बढ़ी थी जैसे सारे गाँव की चारपाईयाँ मिलकर बनाई हो।
दूसरा बच्चाा - मेरे दादाजी इतने बढ़े थे कि बहुत सारी चारपाईयो को मिलाओं तब उन पर मुश्किल से सो पाते थे।
पहला बच्चाा - हट झूठे! फिर तेरे दादाजी कहाँ सोते थेक्
दूसरा बच्चाा - तेरे दादाजी की चारपाई
पर।

मुझे मेरे देवर के पुत्र का किस्सा याद आता है। बात उन दिनों की है जब मेरे पति वास्तु कर्म से बहुत अधिक हवाई यात्राएँ कर रहे थे। उसने अपनी क्लास टीचर के सामने क्लास में कहा कि मेरे ब़डे पापा तो हमेशा हवाई जहाज में ही रहते हैं।

यह बात साधारण नहीं है। गप्प हांकने की प्रवृत्ति आजकल बलवान मंगल देते हैं। यह जो उदाहरण है, यह केवल समझाने के लिए काम में लिया जाने चाहिए। उच्चा के या स्वराशि के मंगल शौर्य प्रदर्शन की इच्छा पैदा करते हैं और इस क्रम में झूठ या गप्प बोलना या आत्मशलांघा या घटनाओं के अविश्वसनीय वर्णन की प्रवृत्ति जाती है।

वृहतपाराशर होराशास्त्र में ग्रहों के व्यवहार का उल्लेख मिलता है। मंगल ग्रह अग्नि तत्व प्रधान हैं और जब इनकी दशा आती है, तो अग्नि का विभिन्न रूपों में दर्शन होता है। जीवन को वे किस तरह से प्रभावित करते हैं। जिसकी जन्मपत्रिका में मंगल बलवान होते हैं, वह व्यक्ति अग्नि प्रकृति होता है और जब मंगल की महादशा आती है, अग्नि विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। सभी ग्रह अपनी-अपनी दशा में अपने महाभूत संबंधी शरीर कांति को प्रकट करते हैं। जब अग्नि स्वभाव वाला पुरूष षुदा से पीç़डत, चंचल, वीर, कृश शरीर, विद्वान्, बहुत भोजन करने वाला, तीक्ष्ण, गौरवर्ण और अभिमानी होता है।
पाराशर ने कहा है -
क्षुधार्तश्चपल: शूर: कृश: प्राज्ञोùतिभक्षण:
तीक्ष्णो गौरतनुर्मानी वह्निप्रकृतिको नर:।।



इसी प्रकार वह्नितत्व के उदय होने पर शरीर में स्वर्ण जैसी कांति, दृष्टि में प्रसन्नता, सब कार्यो में सिद्धि, शत्रूओं पर विजय और धन का लाभ होता है।
स्वर्णदीçप्त: शुभा दृष्टि: सर्वकार्यार्थिसिद्धिता।
विजयो धनलाभश्च वह्निभार्या प्रजायते।।

मंगल भूमि के कारक हैं, भूमि दिलाते हैं, भूमि से संबंध कराते हैं और भूमि से संबंधित क्षेत्राधिकार दिलाते हैं। मंगल सेनापति हैं अत: अपनी दशा में व्यक्ति को संगठनों का प्रधान बनाते हैं और मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाते हैं। अपने आप ही नेतृत्व गुण आने लगते हैं। इस क्रम में यदि मंगल शुभ हुए तो नेतृत्व सहज विकास के कारण आता है और यदि मंगल अत्यन्त उग्र हुए, तो वह भला संस्थाओं पर या भूमि पर कब्जा कर लेते हैं। नेपोलियन बोनापार्ट का एक किस्सा प्रसिद्ध है - जब उसका राज्यारोहण हो रहा था, तो पादरी मुकूट थाली में रखकर सामने आया। नेपोलियन उठाकर वह मुकूट स्वयं अपने सिर पर रख लिया और बोला कि इसे मैंने अपने पराक्रम से पाया है। यह आचरण उग्र मंगल का परिणाम है। जो धावक कई बार अपरिमित पराक्रम का परिचय देते हैं, उनमें कहीं कहीं मंगल कुछ विशेष अंशों में होते हैं। यह लोग योजना से अधिक जोश में काम
रते हैं और कई बार अक्लपित परिस्थितियों का सृजन कर देते हैं।

जिनके मंगल उग्र हों अर्थात् अग्नि तत्व राशियों में हों, परोमच्चा या उच्चा में हों या वक्री हों या अस्त हों या राहु जैसे ग्रह के साथ हों, तो वे दुस्साहस के साथ क्रांतिकारी कदम उठाते हैं। नई जगह का अन्वेषण, गुप्त जंगलों या पह़ाडों में निर्भय होकर चले जाना, जंगलों का आग लगा देना, भरे समूह पर आक्रमण कर देना, हिंसक जानवरों से लोहा लेना, स्वयं या सं
गठन को दाँव पर लगा देना, कटु वचन बोलना इनका सहज स्वभाव है। ये पित्त से पीç़डत होते हैं और इनकी जटराग्नि सामान्य नहीं होती। ये लम्बे संकल्प लेते हैं और दिन-रात उसी चिन्तन में रहते हैं।

शारीरिक विकारों में रक्त विकार प्रमुख है। ऊँचा या नीचा ब्ल़ड प्रेशर, लीवर संबंधित समस्यायें, बैक्टीरिया से होने वाले अन्य रोग जैसे मोतिझरा इत्यादि इनको मिलते हैं। यद्यपि सूर्य और मंगल का परस्पर संबंध होना राजयोग की सृष्टि करता है या प्रशासनिक कार्य कराता है परन्तु यदि मंगल अस्त हो जाय तो शरीर के किसी किसी भाग में अग्निदाह मिलता है। मंगल लग्न पर दृष्टि डाले तो प्राय: करके आँख से ऊपर माथे पर चोट का नि
शान मिलता है। मंगल जिस भाव में मिलें, उस भाव से संबंधित संबंधी (रिश्तेदार) को पी़डा होती है।

अपनी महादशा में
ने पर मंगल दक्षिण दिशा में ले जाते हैं और अपने ही विषयों से लाभ कराते हैं। अगर अपने आप स्थान पर रहकर भी व्यक्ति व्यवसाय करे तो जन्मस्थान से दक्षिण के लोग - कर संबंध स्थापित करते हैं। मंगल को पुरूष ग्रह माना गया है इसलिए पौरूष का प्रदर्शन या पुरूषोचित्त कार्य या वीरोचित्त कार्य करने को मिलते हैं। मंगल के प्रत्यधि देवता कार्तिके माने गये हैं, जोकि देवताओं के सेनापति हैं। मंगल की प्रधानता वाले व्यक्ति का शरीर रक्तवर्ण हो जाता है। इन्हें तमोगुणी माना गया है अत: वीरोचित्त विलासिता इनके जीवन मे देखने को मिल जाती है। क्रूर रक्त नेत्र, चंचल, उदार ह्वदय, पित्त प्रकृति, क्रोधी, कृश और मध्यम देह मंगल की विशेषता है। समस्त अग्नि स्थानों के ये स्वामी हैं। जिन पर मंगल का असर है, वे आग्नेयास्थ चलाते हैं, फैक्ट्री-कारखानों में काम करते मिलेेगे, भट्टी या इस्मेलटर का कार्य करेंगे। गोला-बारूद बनाते या चलाते मिलेंगे। प्रशासन, पुलिस, संगठन, यूनियन या सुपरवाईजरी कार्यो में मंगल को खोजा जा सकता है।

नींबू जैसे कटु वृक्षों को मंगल उत्पन्न
रते हैं। मशीनों या लोहे से काम करने वालों पर मंगल का असर होता है। यदि मंगल बलवान हों, तो इन विषयों से लाभ होता है और यदि मंगल निर्बल हों, तो इन्हीं से नुकसान होता है।

मंगल बैक्टीरिया इत्यादि से उत्पन्न होने वाले रोगों को भी बढ़ावा देते हैं। चेचक इत्यादि से भी मंगल का संबंध जो़डा गया है। मंगल प्रधान व्यक्ति शारीरिक सुदृढ़ता वाले खेलों में अग्रणीय रहते हैं। कई खेलों में शारीरिक सौष्ठव की आवश्यकता प़डती है, उन सब में मंगल मुख्य भूमिका निभाते हैं।

मंगल को भूमि पुत्र कहा गया है और उनकी उत्पत्ति पृथ्वी से मानी गई है। संभवत: इसीलिए मंगल में जीवन के लक्षण खोजने के लिए बहुत अधिक चेष्टाएं होंगी। मंगल ग्रह का वातावरण भी कुछ इसी तरह का है। सूर्य के इन्फ्रारेड भाग का संबंध मंगल से है। जिस तरह से पंचमहाभूतों में से एक मंगल अग्नि प्रधान माने जाते हैं। ज्योतिष के पंचमहापुरूषों में से एक महापुरूष मंगल के कारण होते हैं, जिनकी जन्मपत्रिका में मंगल स्वराशि या उच्चा राशि में स्थित होकर केन्द्र स्थान में हों, तो यह योग रूचक योग कहलाता है। रूचक पुरूष कर्मो को लम्बा, परमउत्साही, नि:मन कांति, बलवान, सुन्दर, भकृटी, कृष्ण वर्ण, काले केश, संग्राम प्रिय, रक्तश्यामवर्ण, शत्रुजित, विवेकवान, चोरों का मुखिया, क्रूर स्वभाव, दुर्बल जंघा, ब्राrाण भक्त, हाथ में वीणा, व्रज, धनुषपात आदि गुण होते हैं। शस्त्र या अग्नि का घात उसको होता है।

लग्न चतुर्थ, पंचम, नवम्, दशम् या एकादश के स्वामी होने के अलावा मंगल तीसरे, छठे भाव के स्वामी होकर भी शुभफल करते हैं। मंगल तीन, :, दस और ग्यारह भावों में शुभफल प्रदान करते हैं। राशि से चौथे, आठवे, दसवे, ग्यारहवें स्थित मंगल शुभफल प्रदान करते हैं। मंगल और बृहस्पति का परस्पर दृष्टि संबंध वैवाहिक जीवन में समस्याएं उत्पन्न करता है। लग्न से बारहवें, पहले, चौथे, सांतवें और आठवे स्थान के मंगल मांगलिक दोष देते हैं, जोकि वैधवीय दोष का ही सुन्दर नाम है। विवाह करने से पूर्व मंगलिक वर या कन्याएं देखा जाना चाहिए। मंगल ग्रह अपनी महादशा या अन्तर्दशा में अपने श्रेष्ठ फल देते हैं। अन्य युति आदि का फल भी देते हैं परन्तु दिग्बल इत्यादि का फल अपनी ही दशा में देते हैं।

नक्षत्र मिलान ही काफी नहीं

आजकल वेबसाइट्स नक्षत्र मिलान के आधार पर कुण्डलियों का मिलान करके दे देती हैं। पुरानी पद्धतियों में भी नक्षत्र मेलापक सारिणियां पंचाङगें में छपी रहती हैं और उनमें गुण मिलते ही कई लोग विवाह के लिए हाँ कर देते हैं। आधुनिक काल में कुछ लोग एक मिनिट में ही कुण्डली मिलान करके जवाब दे देते हैं। विवाह नहीं हुआ बल्कि फास्टफूड हो गया। अभी हाल में एक व्यक्ति ने अपनी पुत्री की जन्मपत्रिका में नक्षत्र देखकर किसी ल़डके का प्रस्ताव करते हुए उसका नक्षत्र भी बताया। उस अधिकारी की इच्छा थी कि मैं टेलीफोन पर हां भर दूं क्योंकि 21 गुण मिल रहे थे। उन्होंने यह भी बताया कि प़डोसी पंडितजी से मिलान करवा लिया था। मैंने दो आधारों पर आपत्ति की।
1. जब किसी पंडितजी ने विवाह की स्वीकृति दे दी है तो मुझसे क्यों पूछ रहे हैंक्
2. विवाह जैसे महत्वपूर्ण कार्य में सबसे महत्वपूर्ण कार्य को आप बहुत कम समय और तवाो दे रहे हैं। आप क्यों अपनी पुत्री के भविष्य के साथ खिलव़ाड करते हैं
3. आप ज्योतिषी के पास नहीं आकर टेलीफोन से ही समस्या का समाधान चाहते हैं इससे शास्त्र के प्रति घटती हुई श्रद्धा का परिचय मिलता है। ज्योतिषी को स्पष्ट मना कर देना चाहिए। मैंने अधिकारी महोदय को नहीं बताया और वे नाराज हो गए। कुछ महीनों बाद वो आए और कहा - ""मेरी पुत्री और उसके पति में विवाद चल रहा है।"" मैंने जब उसकी पुत्री की कुण्डली देखी तो आश्चर्य हुआ। उसमें निम्न दोष थे:
. सप्तम भाव में मिथुन राशि थी और उसमें सूर्य थे।
. दशम भाव से शनि सप्तम भाव को देख रहे थे।
. एकादश भाव में स्थित केतु सप्तम को देख रहे थे।

यह एक निश्चित तलाक योग था और दुनिया की कोई ताकत इस कन्या को विवाह सुख नहीं दिला सकती है। एक छत के नीचे रहकर भी परदेशियों की तरह रहेंगे और वैवाहिक जीवन के जो भी दारूण दु: हो सकते हैं, वो इसके जीवन में आएंगे।
मैंने इस कन्या के पति की कुण्डली देखी, उसमें सप्तम भाव में वक्री शनि थे और कुण्डली के चतुर्थ भाव में मंगल थे। इससे भी वैवाहिक जीवन में परेशानियों का संकेत मिलता है। मैंने उन अधिकारी को इस मिलान के लिए दोषी ठहराया। उनका कहना था कि मैंने एक पंडितजी से कुण्डली दिखा तो ली थी, मैंने निष्कर्ष निकाला कि यह अंतर्दशा ढाई साल तक चलेगी अत: इस ढाई साल तक विवाह को बचा लिया जाए तब तो आगे चलेगा अन्यथा तलाक की संभावना अधिक है। सप्तम भाव के सूर्य परित्यक्त योग बनाते हैं और वर या कन्या को आक्षेप झेलने प़डते हैं।

बहुत सारे विदेशी जन्मपत्रिका मिलाकर विवाह करने लगे हैं परन्तु भारत में मेलापक पद्धति के कारण से हमारा परिवार और विवाह बचा हुआ है, इस बात के होते हुए भी मिलान पद्धति के प्रति श्रद्धा में कमी आई है।

इस संदर्भ में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है:
1. केवल नक्षत्र मिलान से कुण्डली मिला देना बहुत ब़डी गलती है।
2. आयु, स्वास्थ्य, शरीर सुख, आपसी प्रेम इत्यादि अष्टकूट और दशकूट मेलापक पद्धतियों में देखा जाता है परन्तु नक्षत्र मिलान के बाद भी जन्मपत्रिका में प़ड गए विशेष योग शून्य नहीं हो जाते। सप्तम भाव में बैठे वक्री ग्रह, चाहे कुछ भी हो जाए वैवाहिक परिस्थितियों को कठिन बनाते ही हैं।
3. चरित्र दोष के सारे योग देखने ही चाहिएं।
4. शनि और बुध की सप्तम भाव मे स्थिति व्यक्ति के जीवनसाथी की मानसिक नपुसंकता या स्नायविक दौर्बल्य की सूचना देती है।
5. सूर्य और केतु का सप्तम भाव से संबंध तलाक की संभावनाएं बढ़ाता है।
6. सूर्य, मंगल और केतु जैसे ग्रह सप्तम भाव में हों तो वैवाहिक जीवन में बहुत खराब परिस्थितियां ला देते हैं।
7. सप्तम भाव के राहु व्यक्ति के जीवनसाथी के स्वभाव में मायावी आचरण ला देते हैं।
8. सप्तम भाव का अतिबलवान होना शुभ परिणाम नहीं देता है।
9. सप्तम भाव का पापकर्तरि में होना जीवन में दुर्भाग्य लाता है। सप्तमेश का पापकर्तरि में होना भी वैवाहिक जीवन में दुर्भाग्य ला देता है।
10. ऩाडी दोष को अत्यन्त गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए। शास्त्रों में मिलता है कि यह ब्राrाणों में विशेष रूप से देखा जाना चाहिए। मेरा मानना है कि इसे सभी के मामलों में देखा जाना चाहिए। ऩाडी दोष की समानता तो नहीं करता परन्तु अमेरिका में रक्त का R.H. Factor मिलान करना इसी प्रक्रिया का एक अंग है। ऩाडी दोष वस्तुत: एक-दूसरे के शरीर को स्वीकार करने की प्रक्रिया का विश्लेषण है। कई बार इस दोष के होने पर व्यक्ति को पता भी नहीं चलता और वे अपनी दमित शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए अन्यत्र कहीं देखने लगते हैं। इस दोष के कारण मध्य जीवन में भटकाव देखने को मिलता है।
11. अष्टम भाव स्थित राहु, कमजोर बुध या दूषित मंगल तथा दूषित शुक्र व्यक्ति के मन में अपने अंगों के प्रति हीनभावना भर देते हैं। व्यक्ति अपने किसी भी अंग को लेकर अपने आप को हीन समझने लगता है। वह उसी से त्रस्त हो जाता है। इसके बाद शनि और बुध का परस्पर संबंध उसे अपने उज्ज्वल पक्षों के होते हुए भी निराशाजनक पक्षों के बारे मे ही सोचने को बाध्य कर देता है। इससे मनोवैज्ञानिक दुर्बलता आती है।
12. नपुसंकता जैसी कोई चीज आज नहीं बची है। अंग्रेजी दवाइयां या आयुर्वेद की बाजीकरण संबंधित दवाएं ज्योतिष के कुछ योगों का शमन करने में सक्षम हैं अत: ऎसे योगों के आधार पर विवाह का इनकार कर देना उचित नहीं है तथा इसी प्रकार किसी विवाह के इस आधार पर असफल होने पर विद्वान ज्योतिषी को उसका मनोबल बढ़ाकर उचित चिकित्सक के पास भेज देना चाहिए।
13. प्राय: मेरे पास बहुत सारे व्यक्ति हाथ दिखाते समय दो विवाह रेखाओं को लेकर चिंता करते हैं। भारतीय संविधान में स्पष्ट उल्लेख है कि व्यक्ति एक विवाह के होते हुए किसी अन्य से विवाह नहीं कर सकता है। यदि दूसरा विवाह करना है तो पहली पत्नी की या तो मृत्यु हो या उसे तलाक दे दिया जाए। यदि पहली पत्नी के होते हुए भी दूसरा विवाह कर लिया जाता है तो वह कानून की नजर में अमान्य होता है और निष्फल होता है। हस्त रेखाओं में पहली पत्नी की मृत्यु देखने के लिए विवाह रेखा का ह्वदय रेखा तक मु़डकर पहुंचना जरूरी है। यही रेखा तलाक भी करा सकती है। विवाह रेखा का टूटना, विवाह रेखा का द्विजिह्वाकार होना या विवाह रेखा अनियमित आकार की होकर, किसी पर्वत मे या अंगुली के पोरूए में ऊपर जाकर घुस जाए तो विवाह टूटना देखा जा सकता है। एक से अधिक विवाह रेखाओं का अर्थ यह हो सकता है कि विवाह के अतिरिक्त भी उस स्त्री या पुरूष के अन्य संबंध हों। इस ओर व्यक्ति को इशारा किया जा सकता है।
14. जन्मपत्रिका के सप्तम भाव में जितने ग्रह हों उतनी पत्नियां होती हैं, ऎसा शास्त्रों में लिखा मिल जाता है। आजकल यह पूर्ण सच नहीं हैं। एक नियमित विवाह के अतिरिक्त अन्य संबंध देखने को मिल सकते हैं। मैंने बहुत सारे मामलों में परीक्षण किया और यह पाया कि कॉलेज जीवन में साल-दो साल चला अफेयर विवाह में नहीं बदल पाता परन्तु सप्तम भाव मे स्थित ग्रह या सप्तमेश के साथ बैठा हुआ ग्रह, इस बात की सूचना दे देता है। यह बात इतनी व्यापक हो गई है कि अगर उस ग्रह की अन्तर्दशा निकल गई हो तो ज्योतिषी को बिना बताए निर्णय ले लेना चाहिए। मैं ऎसे सभी मामलों में यह निर्णय देता हूं कि जिसका विवाह किया जाना है उससे शत-प्रतिशत स्वीकृति आनी ही चाहिए। मां-बाप अगर किसी रिश्ते को थोप देंगे तो उसका दुष्परिणाम आगे चलकर सकता है। अब पिछले संबंध से निवृत्ति का उत्तरदायित्व व्यक्ति पर स्वयं पर जाता है। इन मामलों में जोर-जबर्दस्ती शुभ परिणाम नहीं देती।
15. डॉक्टर बी.वी. रमन छठे भाव मे मंगल की स्थिति को वैवाहिक जीवन में शुभ नहीं मानते थे। इससे तनाव देखने को मिलता है। छठे भाव में कोई भी पाप ग्रह वैवाहिक जीवन में तनाव बनाए रख सकता है।
16. बृहस्पति का सप्तम भाव मे होना वैवाहिक जीवन को टिकने नहीं देता। वही बृहस्पति अगर कहीं से सप्तम भाव या सप्तमेश को दृष्टिपात करें तो यह अमृत दृष्टि होती है और वैवाहिक जीवन को बचा लेती है।
17. अब तक के विश्लेषण में यह सामने आया कि सप्तम भाव में बृहस्पति, सूर्य, केतु, मंगल इत्यादि विवाह की असफलता में कारण बनते हैं। शनि विवाह को बचा ले जाते हैं। बृहस्पति की दृष्टि भी बचा ले जाती है। सप्तम भाव पर राहु की दृष्टि भी बंधन कारक होती है और तलाक नहीं होने देती।
18. सप्तम भाव का संबंध शनि से होने पर दम्पति की परस्पर उम्र मे कुछ अंतर मिलता है परन्तु ऎसे मामलों में जिसकी उम्र अधिक है उसके यह देखा जाना चाहिए कि लग्न पर मंगल का प्रभाव हो, इससे वो उम्र से भी कम दिखेगा और उसकी अधिक आयु मिलती है।
19. कुण्डली का मिलान करते समय जिस कूट के परिणाम कम आएं उससे संबंधित विषय वाले ग्रह का विशेष परीक्षण जन्मपत्रिका में किया ही जाना चाहिए। उस कूट की प्राप्ति के लिए उपाय अवश्य बताने चाहिएं।
20. मेरा यह मानना है कि किसी भी व्यक्ति को पंडितजी से दो मिनिट में ही मेलापक नहीं कराना चाहिए। पंडितजी को कम से कम दो घंटे तक अध्ययन करके तब मिलान का परिणाम देना चाहिए।
21. पंडितजी को मिलान कार्य के लिए 21 रूपए या 51 देना अपराध के समान है। आपके बच्चो का जीवन तय हो रहा है और आप इसको इतना हल्के रूप में ले रहे हैं। इस कार्य को व्यक्ति और ज्योतिषी दोनों को ही सम्मान देना चाहिए। बच्चाों का जीवन नरक करने का किसी को भी अधिकार नहीं है। वेबसाइट्स को भी केवल नक्षत्र मेलापक के आधार पर परिणाम दिखाकर शास्त्रों का उल्लंघन करने की आज्ञा नहीं होनी चाहिए।