प्राचीन काल में ब्रह्मा नेविश्व की सृष्टि से पूर्व वासतु की सृष्टि की तथा लोकपालों की कल्पना की। ब्रह्मा ने जो मानसी सृष्टि की उसे मूर्त रूप देने हेतु विश्वकर्मा ने अपने चारों मानस पुत्र जय, विजय, सिद्धार्थ व अपराजित को आदेशित करते हुए कहा कि ‘मैंने देवताओं के भवन इत्यादि (यथा इन्द्र की अमरावती) की स्थापना अब तक की है। अब वेन पुत्र पृथु के निवास हेतु राजधानी का निर्माण मैं स्वयं करूंगा। तुम लोग समस्त भूलोक का अध्ययन करो सामान्य जन की आवश्यकताओं के अनुरूप स्थापनाएं करो’ विश्वकर्मा के इस संवाद से उच्चकोटि का चिंतन योजना व प्रबंधन का संकेत मिलता है एक तरफ नगर निवेशन व दूसरी तरफ आंतरिक रचनाओं में वास्तु पुरुष के देवत्व का आरोपण करते हुए भौतिक सृष्टि में दार्शनिक सौन्दर्य की समष्टि करते हुए उससे चारों पुरुषार्थ की अभिष्ट सिद्धि की कामना की गई थी वृहत्संहिता के अनुसार जिस भांति किसी गृह में वास्तु पुरुष की कल्पना करते हुए कार्य किया जाता है, उसी भांति नगर व ग्रामों में ऐसे ही वास्तुदेवता स्थित होते हैं व उस नगर ग्रामादि में ब्रह्मादि वर्णों को क्रमानुसार बावें समराङ्गण सूत्रधार के पुर निवेश प्रकरय में वर्णों के आधार पर बसावट करने के विस्तृत निर्देश दिए हैं।
अग्नि कोण में अग्नि कर्मी लोग, स्वर्णकार, लुहार इत्यादि को बसाना चाहिए, दक्षिण दिशा मे वैश्यों के सम्पन्न लोगों के, चक्रिको अर्थात् गाड़ी वाले नट या नर्तकों के घर स्थापित करने चाहिए। सौकारिक (सूकरोपनीकी), मेषीकार (गडरिया), बहेलिया, केवट व पुलिस इत्यादि को नैऋत्य कोण में बसाना चाहिए। रथों, शस्त्रों के बनाने वालों को पश्चिम दिशा में बसाना चाहिए। नौकरी व कलालों को वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। सन्यासियों को, विद्वानों को, प्याऊ व धर्मशाला को उत्तर दिशा में बसाना चाहिए। ईशान में घी, फल वालों बसाना चाहिए। आग्नेय दिशा में वे बसें जो सेनापति, सामन्त या सत्ताधारी व्यक्ति हों। धनिक व व्यवसायी दक्षिण, कोषाध्यक्ष, महामार्ग, दंडनायक व शिल्पियों को पश्चिम दिशा में व उत्तर दिशा में पुरोहित, ज्योतिष लेखक व विद्वान बसें।
क्या है वास्तुपुरुष? : वास्तु पुरुष की कल्पना भूखंड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिससे उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती है। देवताओं से युद्ध के समय एक राक्षस को देवताओं ने परास्त कर भूमि में गाड़ दिया व स्वयं उसके शरीर पर खड़े रहे। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा से प्रार्थना किए जाने पर इस असुर को पूजा का अधिकार मिला। ब्रह्मा ने वरदान दिया कि निर्माण तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष मंडल का सम्मान करते हुए निर्माण किए जाएं। इनमें वास्तु पुरुष के अतिरिक्त 45 अन्य देवता भी शामिल हैं। अतिरिक्त 45 देवताओं में 32 तो बाहरी और भूखंड की परिधि पर ही विराजमान हैं व शेष 13 भूखंड के अन्दर हैं।
पद वास्तु : वास्तु पुरुष का आविर्भाव इतिहास में कब हुआ इसका समय ज्ञात नहीं है परन्तु वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधान के साथ किया जाता था। क्रमश: यहीं से विकास कार्य शुरू हुआ व एक पदीय वास्तु (जिसमें वास्तुखंड के और विभाजन न किए जाएं) जिसे सकल कहते हैं, पेचक मंडल जिसमें एक वर्ग के चार बराबर विभाजन किए जाएं, वर्ग को नौ बराबर भागों में विभाजित किया जाए। उसे पौठ, फिर 16,64,81,100 भाग वाले वास्तु खंड का विकास हुआ। इसी क्रम में यह निश्चय भी किया गया कि चतु:शष्टिपद वास्तु या एकशीतिपद वास्तु या शतपद वास्तु मं क्रमश: किन वणों में बसाया जाए। समर्स य सूत्रधार के अनुसार मुख्य रूप से 64, 81, 100 पद वाले वास्तु का अधिक प्रचलन हुआ। उक्त ग्रंथ के अनुसार चतुषष्टिपद वास्तु का प्रयोग राजशिविर ग्राम या नगर की स्थापना के समय करना चाहिए। एकशीतिपद वास्तु (81 पद) का प्रयोग ब्राह्मणादि वर्णों के घर, इत्यादि में करना चाहिए। शतपद वास्तु का प्रयोग स्थापति (आर्किटेक्ट) को महलों, देवमंदिरों व बड़े सभागार इत्यादि में करना चाहिए।
पद विभाजन की स्वीकृति 11वीं शताब्दी तक वृत वास्तु, जो कि राजप्रसादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त वास्तु, जो कि राजप्रसादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त वास्तु व शतपद वृत्त वास्तु प्रचलन में बने रहे। त्रिकोण, षटकोण, अष्टकोण, सौलहकोण वृत्तायत व अद्र्धचंद्राकार वास्तु में भी वृत्त वास्तु के समान पद विभाजन तथा तदनुसार ही वास्तु पुरुष स्थापन का प्रावधान रखा गया है।
देवता : एकशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं, ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिरवी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य भ्रंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनिल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, वृहत, क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हैं। नेऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), कुसुमदंत, वरुण, असुर, शोष और राजपदमा तथा वायव्य कोण से प्रारम्भ करके तत अनन्त वासुकी, मल्लार, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नौवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में वैवस्वान, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजपदमा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में साविग, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रूद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है इनके मस्तक पर शिरकी स्थित है। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर स्थल और स्कंध पर स्थित हैं।
सत्य आदि पांच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहन्दात पाश्र्व पर हैं, वैवस्वान उदर पर हैं, सम उरू पर, गंधर्व ाजनु पर, भृंगराज जंघा पर और मृग स्थिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तु पुरुष के दाईं ओर स्थित हैं। बाएं स्तर पर पृथ्वी, अधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट मुख्य, अहिरोग व पाप यक्ष्मा, हाथ पर रूद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर कुसुमदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तु पुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं। हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पिता हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिका या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्री वृद्धि होती है, शांति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना येजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृहस्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बुरे परिणाम साथ-साथ मिलते रहते हैं।
वास्तु पुरुष के दोष : यह एक कठिन विद्या है, जिसमें भौतिक निर्माण कृत्य में कब कौन देवता क्रोधित हो जाए व क्या परिणाम देंगे, इनका ज्ञान आवश्यक है। कुछ सामानय गृह दोष व उनके परिणाम बताए जा रहे हैं, जो जनोपयोगी हैं। सामान्य जन इनका बिना किसी विशेषज्ञ की मदद से भी उपयोग कर सकते हैं। देवतागण यदि रुष्ट हों तो प्रत्येक देवता अपनी प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। इक्यासी व चौसठ पद वाली वास्तु में चारों दीवारों पर कुल बत्तीस द्वारों की कल्पना की गई है इनमें से प्रत्येक भाग (द्वार) पर विभिन्न फल प्राप्त होते हैं। पूर्वी दीवार पर अग्नि से अंतरिक्ष तक द्वार होवें तो क्रमश: अग्निभय कन्या जन्म, धन, राजा की प्रसन्नता, क्रोधीपन, झूंठ बोलना, क्रूरपन व चौर्यवृत्ति यह फल होते हैं। दक्षिण दीवार या पूर्व के अनिल से शुरू करके दक्षिणी दीवार या सीमा पर जो आठ देवता स्थित हैं, वे क्रम से हर द्वार पर अल्प पुत्रता, दासपन, नीचपन, भोजन, पान और पुत्रों की वृद्धि, कृतघ्न, धनहीनता, पुत्र और बल का नाश होता है।
इन नियमों का उल्लंघन जहां कहीं भी हुआ है, परिणाम अच्छे नहीं आए हैं। अक्टूबर 1995 में चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज आबू रोड के पदाधिकारियों के साथ मैंने पूरे औद्योगिक क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। दक्षिण दिशा में बढ़ाव एक ऐसी समस्या है जो कि पूरे औद्योगिक क्षेत्र में समान रूप से विद्यमान है इसका कारण रेलवे लाइन के समानान्तर प्लाट्स का आवंटन किया जाना है। दूसरे पहाड़ के दक्षिण दिशा (ढलान) में रीको द्वारा आवंटन किए जाने के कारण काफी प्लाटों में वास्तुपुरुष का सिर उठा हुआ है। फलत: काफी बड़ी संख्या में कारखाने बंद हो गए या घाटे में हैं। ऐसे कई सामान्य दोष देश के अन्य नगरों में भी देखे हैं।
वास्तु देवता: पूजा विधान : मत्स्य पुराण के अध्याय 251 के अनुसार अंधकार के वध के समय जो श्वेत बिन्दु भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर गिरे, उनसे भयंकर आकृति वाला पुरुष उत्पन्न हुआ। उसने अंधकगणों का रक्तपान किया तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई। त्रिलोकी का भक्षण करने को जब वह उद्यत हुआ, तो शंकर आदि समस्त देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया व पूजा करवाए जाने का वरदान दिया। हिन्दु संस्कृति में देव पूजा का विधान है। यह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है। साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है। वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा एवं चक्र भी बनाया जाता है, जो कि वास्तु चक्र के नाम से प्रसिद्ध है।
जिस स्थान पर गृह, प्रसाद, यज्ञमंडप या ग्राम नगर आदि की स्थापना करनी हो, उसके नैऋत्य कोण में वास्तु देव का निर्माण करना चाहिए। सामान्य विष्णु रूद्रादि यज्ञों में भी यज्ञमंडप में यथा स्थान नवग्रह, सर्वतोभद्र मण्डलों की स्थापना के साथ-साथ नैऋत्य कोण में वास्तु पीठ की स्थापना आवश्यक होती है। वास्तु शान्ति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तु योग कर्म में तो वास्तु पीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है। वास्तु देवता का मूल मंत्र इस प्रकार है:
वास्तोष्पते प्रति जानी हास्मान। त्स्वावेशो अनमीवो भवान:॥
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वशं नो। भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ (ऋग्वेद 7-54-1)
वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तोष्पति साक्षात परमात्मा का ही नामान्तर है, क्योंकि वे विश्व ब्रह्मा, इंद्र आदि अष्ट लोकपाल सहित 45 देवता अधिष्ठित होते हैं। कर्मकाण्ड ग्रंथों तथा गृह्यसूत्रों में इनकी उपासना एवं हवन आदि के अलग-अलग मंत्र निर्दिष्ट हैं। हयशीर्ष पांचशत्र, कपिल पांचरात्र, वास्तुराजवल्लभ आदि ग्रंथों के अनुसार प्राय: सभी वास्तु संबंधी कृत्यों में एकाशीति (18) तथा चतुषष्टि (64) कोषठात्मक चक्रयुक्त वास्तुवेदी के निर्माण करने की विधि है। इन दोनों में सामान्य अंतर है। 81 पद वाली वास्तु में उत्तर-दक्षिण और पूर्व पश्चिम से 10-10 रेखाएं खींची जाती हैं और चक्र रचना के समय 20 देवियों के नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार मंत्र से रेखाकरण क्रिया सम्पन्न की जाती है। 64 पद वाली वास्तु में 9-9 रेखाएं खींची जाती हैं। ये नौ रेखाएं नौ देवियों के प्रतिनिधि भूत हैं। रेखा खींचते समय वेदमंत्रों से इन देवियों को नमस्कार करना चाहिए। इनका नाम है लक्ष्मी, यशोवती, कान्ता, सुप्रिया, विमला, श्री, सुभगा, सुगति व इंद्रा। इसी प्रकार उत्तर-दक्षिण की रेखा देवियों के नाम इस प्रकार हैं- धान्या, प्राणा, विशाला, स्थ्रिा, भद्रा, स्वाहा, जया, निशा तथा विरजा।
वास्तुमंडल में 45 देवताओं का स्थान निर्धारण करने के पश्चात् मंडल के बाहर ईशान, आग्नेय, नैऋत्य तथा वायव्य कोणों में क्रमश: चरकी, बिदारी, पूतना, पापराक्षसी की प्रथा चार दिशाओं में स्कंद, अर्यभा, जृम्भक तथा पिन्निपिन्ध देवताओं की स्थापना करनी चाहिए। फिर दस दिक्पालों का आह्वान कर पूजा करनी चाहिए। वास्तुचक्र के उत्तर में वास्तु कलश की स्थापना कर उसमें वास्तु देवता की अग्न्युत्तारणपूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए तथा फिर विधिपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करके चक्रस्थ देवताओं को पायस बलि देकर उनसे कल्याण की कामना करनी चाहिए।
अग्नि कोण में अग्नि कर्मी लोग, स्वर्णकार, लुहार इत्यादि को बसाना चाहिए, दक्षिण दिशा मे वैश्यों के सम्पन्न लोगों के, चक्रिको अर्थात् गाड़ी वाले नट या नर्तकों के घर स्थापित करने चाहिए। सौकारिक (सूकरोपनीकी), मेषीकार (गडरिया), बहेलिया, केवट व पुलिस इत्यादि को नैऋत्य कोण में बसाना चाहिए। रथों, शस्त्रों के बनाने वालों को पश्चिम दिशा में बसाना चाहिए। नौकरी व कलालों को वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। सन्यासियों को, विद्वानों को, प्याऊ व धर्मशाला को उत्तर दिशा में बसाना चाहिए। ईशान में घी, फल वालों बसाना चाहिए। आग्नेय दिशा में वे बसें जो सेनापति, सामन्त या सत्ताधारी व्यक्ति हों। धनिक व व्यवसायी दक्षिण, कोषाध्यक्ष, महामार्ग, दंडनायक व शिल्पियों को पश्चिम दिशा में व उत्तर दिशा में पुरोहित, ज्योतिष लेखक व विद्वान बसें।
क्या है वास्तुपुरुष? : वास्तु पुरुष की कल्पना भूखंड में एक ऐसे औंधे मुंह पड़े पुरुष के रूप में की जाती है, जिससे उनका मुंह ईशान कोण व पैर नैऋत्य कोण की ओर होते हैं। उनकी भुजाएं व कंधे वायव्य कोण व अग्निकोण की ओर मुड़ी हुई रहती है। देवताओं से युद्ध के समय एक राक्षस को देवताओं ने परास्त कर भूमि में गाड़ दिया व स्वयं उसके शरीर पर खड़े रहे। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा से प्रार्थना किए जाने पर इस असुर को पूजा का अधिकार मिला। ब्रह्मा ने वरदान दिया कि निर्माण तभी सफल होंगे जब वास्तु पुरुष मंडल का सम्मान करते हुए निर्माण किए जाएं। इनमें वास्तु पुरुष के अतिरिक्त 45 अन्य देवता भी शामिल हैं। अतिरिक्त 45 देवताओं में 32 तो बाहरी और भूखंड की परिधि पर ही विराजमान हैं व शेष 13 भूखंड के अन्दर हैं।
पद वास्तु : वास्तु पुरुष का आविर्भाव इतिहास में कब हुआ इसका समय ज्ञात नहीं है परन्तु वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधान के साथ किया जाता था। क्रमश: यहीं से विकास कार्य शुरू हुआ व एक पदीय वास्तु (जिसमें वास्तुखंड के और विभाजन न किए जाएं) जिसे सकल कहते हैं, पेचक मंडल जिसमें एक वर्ग के चार बराबर विभाजन किए जाएं, वर्ग को नौ बराबर भागों में विभाजित किया जाए। उसे पौठ, फिर 16,64,81,100 भाग वाले वास्तु खंड का विकास हुआ। इसी क्रम में यह निश्चय भी किया गया कि चतु:शष्टिपद वास्तु या एकशीतिपद वास्तु या शतपद वास्तु मं क्रमश: किन वणों में बसाया जाए। समर्स य सूत्रधार के अनुसार मुख्य रूप से 64, 81, 100 पद वाले वास्तु का अधिक प्रचलन हुआ। उक्त ग्रंथ के अनुसार चतुषष्टिपद वास्तु का प्रयोग राजशिविर ग्राम या नगर की स्थापना के समय करना चाहिए। एकशीतिपद वास्तु (81 पद) का प्रयोग ब्राह्मणादि वर्णों के घर, इत्यादि में करना चाहिए। शतपद वास्तु का प्रयोग स्थापति (आर्किटेक्ट) को महलों, देवमंदिरों व बड़े सभागार इत्यादि में करना चाहिए।
पद विभाजन की स्वीकृति 11वीं शताब्दी तक वृत वास्तु, जो कि राजप्रसादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त वास्तु, जो कि राजप्रसादों हेतु प्रयुक्त की जाती थी, में भी दी गई है। वृत्त वास्तु में मुख्यत: चतुषष्टि वृत्त वास्तु व शतपद वृत्त वास्तु प्रचलन में बने रहे। त्रिकोण, षटकोण, अष्टकोण, सौलहकोण वृत्तायत व अद्र्धचंद्राकार वास्तु में भी वृत्त वास्तु के समान पद विभाजन तथा तदनुसार ही वास्तु पुरुष स्थापन का प्रावधान रखा गया है।
देवता : एकशीतिपद वास्तु में जो कि सर्वाधिक प्रचलन में है, 45 देवता विराजमान रहते हैं। मध्य में 13 व बाहर 32 देवता निवास करते हैं, ईशान कोण से क्रमानुसार नीचे के भाग में शिरवी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य भ्रंश व अंतरिक्ष तथा अग्निकोण में अनिल विराजमान हैं। नीचे के भाग में पूषा, वितथ, वृहत, क्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज और मृग विराजमान हैं। नेऋत्य कोण से प्रारंभ करके क्रमानुसार दौवारिक (सुग्रीव), कुसुमदंत, वरुण, असुर, शोष और राजपदमा तथा वायव्य कोण से प्रारम्भ करके तत अनन्त वासुकी, मल्लार, सोम, भुजंग, अदिति व दिति आदि विराजमान हैं। बीच के नौवें पद में ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ब्रह्मा की पूर्व दिशा में अर्यमा, उसके बाद सविता दक्षिण में वैवस्वान, इंद्र, पश्चिम में मित्र फिर राजपदमा तथा उत्तर में शोष व आपवत्स नामक देवता ब्रह्मा को चारों ओर से घेरे हुए हैं। आप ब्रह्मा के ईशान कोण में, अग्नि कोण में साविग, नैऋत्य कोण में जय व वायव्य कोण में रूद्र विराजमान हैं। इन वास्तु पुरुष का मुख नीचे को व मस्तक ईशान कोण में है इनके मस्तक पर शिरकी स्थित है। मुख पर आप, स्तन पर अर्यमा, छाती पर आपवत्स हैं। पर्जन्य आदि बाहर के चार देवता पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र और सूर्य क्रम से नेत्र, कर्ण, उर स्थल और स्कंध पर स्थित हैं।
सत्य आदि पांच देवता भुजा पर स्थित हैं। सविता और सावित्र हाथ पर विराज रहे हैं। वितथ और बृहन्दात पाश्र्व पर हैं, वैवस्वान उदर पर हैं, सम उरू पर, गंधर्व ाजनु पर, भृंगराज जंघा पर और मृग स्थिक के ऊपर हैं। ये समस्त देवता वास्तु पुरुष के दाईं ओर स्थित हैं। बाएं स्तर पर पृथ्वी, अधर नेत्र पर दिति, कर्ण पर अदिति, छाती पर भुजंग, स्कंध पर सोम, भुज पर भल्लाट मुख्य, अहिरोग व पाप यक्ष्मा, हाथ पर रूद्र व राजयक्ष्मा, पाश्र्व पर शोष असुर, उरू पर वरुण, जानु पर कुसुमदंत, जंघा पर सुग्रीव और स्फिक पर दौवारिक हैं। वास्तु पुरुष के लिंग पर इंद्र व जयंत स्थित हैं। हृदय पर ब्रह्मा व पैरों पर पिता हैं। वराहमिहिर ने यह वर्णन परमशायिका या इक्यासी पद वाले वास्तु में किया है। इसी भांति मंडूक या चौसठ पद वास्तु का विवरण किया गया है। ये सभी देवता अपने-अपने विषय में गृहस्वामी को समृद्धि देते हैं। इन्हें संतुष्ट रखने में श्री वृद्धि होती है, शांति मिलती है। इन देवताओं की उपेक्षा होने से वे अपने स्वभाव के अनुसार पीड़ा देते हैं। बिना येजना के निर्माणादि कार्य होने से कुछ देवताओं की तो तुष्टि हो जाती है, जबकि कुछ देवता उपेक्षित ही रहते हैं। इसका फल यह मिलता है कि गृहस्वामी को कुछ विषयों में अच्छे परिणाम तथा कुछ विषयों में बुरे परिणाम साथ-साथ मिलते रहते हैं।
वास्तु पुरुष के दोष : यह एक कठिन विद्या है, जिसमें भौतिक निर्माण कृत्य में कब कौन देवता क्रोधित हो जाए व क्या परिणाम देंगे, इनका ज्ञान आवश्यक है। कुछ सामानय गृह दोष व उनके परिणाम बताए जा रहे हैं, जो जनोपयोगी हैं। सामान्य जन इनका बिना किसी विशेषज्ञ की मदद से भी उपयोग कर सकते हैं। देवतागण यदि रुष्ट हों तो प्रत्येक देवता अपनी प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। इक्यासी व चौसठ पद वाली वास्तु में चारों दीवारों पर कुल बत्तीस द्वारों की कल्पना की गई है इनमें से प्रत्येक भाग (द्वार) पर विभिन्न फल प्राप्त होते हैं। पूर्वी दीवार पर अग्नि से अंतरिक्ष तक द्वार होवें तो क्रमश: अग्निभय कन्या जन्म, धन, राजा की प्रसन्नता, क्रोधीपन, झूंठ बोलना, क्रूरपन व चौर्यवृत्ति यह फल होते हैं। दक्षिण दीवार या पूर्व के अनिल से शुरू करके दक्षिणी दीवार या सीमा पर जो आठ देवता स्थित हैं, वे क्रम से हर द्वार पर अल्प पुत्रता, दासपन, नीचपन, भोजन, पान और पुत्रों की वृद्धि, कृतघ्न, धनहीनता, पुत्र और बल का नाश होता है।
इन नियमों का उल्लंघन जहां कहीं भी हुआ है, परिणाम अच्छे नहीं आए हैं। अक्टूबर 1995 में चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज आबू रोड के पदाधिकारियों के साथ मैंने पूरे औद्योगिक क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। दक्षिण दिशा में बढ़ाव एक ऐसी समस्या है जो कि पूरे औद्योगिक क्षेत्र में समान रूप से विद्यमान है इसका कारण रेलवे लाइन के समानान्तर प्लाट्स का आवंटन किया जाना है। दूसरे पहाड़ के दक्षिण दिशा (ढलान) में रीको द्वारा आवंटन किए जाने के कारण काफी प्लाटों में वास्तुपुरुष का सिर उठा हुआ है। फलत: काफी बड़ी संख्या में कारखाने बंद हो गए या घाटे में हैं। ऐसे कई सामान्य दोष देश के अन्य नगरों में भी देखे हैं।
वास्तु देवता: पूजा विधान : मत्स्य पुराण के अध्याय 251 के अनुसार अंधकार के वध के समय जो श्वेत बिन्दु भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर गिरे, उनसे भयंकर आकृति वाला पुरुष उत्पन्न हुआ। उसने अंधकगणों का रक्तपान किया तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई। त्रिलोकी का भक्षण करने को जब वह उद्यत हुआ, तो शंकर आदि समस्त देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया व पूजा करवाए जाने का वरदान दिया। हिन्दु संस्कृति में देव पूजा का विधान है। यह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है। साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है। वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा एवं चक्र भी बनाया जाता है, जो कि वास्तु चक्र के नाम से प्रसिद्ध है।
जिस स्थान पर गृह, प्रसाद, यज्ञमंडप या ग्राम नगर आदि की स्थापना करनी हो, उसके नैऋत्य कोण में वास्तु देव का निर्माण करना चाहिए। सामान्य विष्णु रूद्रादि यज्ञों में भी यज्ञमंडप में यथा स्थान नवग्रह, सर्वतोभद्र मण्डलों की स्थापना के साथ-साथ नैऋत्य कोण में वास्तु पीठ की स्थापना आवश्यक होती है। वास्तु शान्ति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तु योग कर्म में तो वास्तु पीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है। वास्तु देवता का मूल मंत्र इस प्रकार है:
वास्तोष्पते प्रति जानी हास्मान। त्स्वावेशो अनमीवो भवान:॥
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वशं नो। भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥ (ऋग्वेद 7-54-1)
वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तोष्पति साक्षात परमात्मा का ही नामान्तर है, क्योंकि वे विश्व ब्रह्मा, इंद्र आदि अष्ट लोकपाल सहित 45 देवता अधिष्ठित होते हैं। कर्मकाण्ड ग्रंथों तथा गृह्यसूत्रों में इनकी उपासना एवं हवन आदि के अलग-अलग मंत्र निर्दिष्ट हैं। हयशीर्ष पांचशत्र, कपिल पांचरात्र, वास्तुराजवल्लभ आदि ग्रंथों के अनुसार प्राय: सभी वास्तु संबंधी कृत्यों में एकाशीति (18) तथा चतुषष्टि (64) कोषठात्मक चक्रयुक्त वास्तुवेदी के निर्माण करने की विधि है। इन दोनों में सामान्य अंतर है। 81 पद वाली वास्तु में उत्तर-दक्षिण और पूर्व पश्चिम से 10-10 रेखाएं खींची जाती हैं और चक्र रचना के समय 20 देवियों के नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार मंत्र से रेखाकरण क्रिया सम्पन्न की जाती है। 64 पद वाली वास्तु में 9-9 रेखाएं खींची जाती हैं। ये नौ रेखाएं नौ देवियों के प्रतिनिधि भूत हैं। रेखा खींचते समय वेदमंत्रों से इन देवियों को नमस्कार करना चाहिए। इनका नाम है लक्ष्मी, यशोवती, कान्ता, सुप्रिया, विमला, श्री, सुभगा, सुगति व इंद्रा। इसी प्रकार उत्तर-दक्षिण की रेखा देवियों के नाम इस प्रकार हैं- धान्या, प्राणा, विशाला, स्थ्रिा, भद्रा, स्वाहा, जया, निशा तथा विरजा।
वास्तुमंडल में 45 देवताओं का स्थान निर्धारण करने के पश्चात् मंडल के बाहर ईशान, आग्नेय, नैऋत्य तथा वायव्य कोणों में क्रमश: चरकी, बिदारी, पूतना, पापराक्षसी की प्रथा चार दिशाओं में स्कंद, अर्यभा, जृम्भक तथा पिन्निपिन्ध देवताओं की स्थापना करनी चाहिए। फिर दस दिक्पालों का आह्वान कर पूजा करनी चाहिए। वास्तुचक्र के उत्तर में वास्तु कलश की स्थापना कर उसमें वास्तु देवता की अग्न्युत्तारणपूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए तथा फिर विधिपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करके चक्रस्थ देवताओं को पायस बलि देकर उनसे कल्याण की कामना करनी चाहिए।