भारतीय संस्कृति में रचे-बसे संस्कारों की वैज्ञानिकता की इस लेखमाला में हम हमारे संस्कारों के पीछे छिपे रहस्यों के उद्घाटन का प्रयास कर रहे हैं। हमारा ध्येय है कि हम हमारे संस्कारों के गर्भ में गर्भित उस मूलभूत पहलू या धारणा को जानें जिसके कारण उस संस्कार का जन्म हुआ है। अब तक हमने हमारी संस्कृति के कई संस्कारों पर अपने विचार रखे हैं और पाठकवृंद ने उन्हें मुक्तकंठ से सराहा है। इस बार हम संंस्कृति के एक अहम् संस्कार पर अपने विचार रख रहे हैं - ‘प्रभु को भोग’। लेखक ने अपने पूर्व के ऐसे ही लेखों में यह निवेदन कर दिया है कि संस्कारों की गर्भित पृष्ठभूमि के जागरण में किसी धर्म विशेष की प्रशंसा करना या किसी धर्म विशेष की उपेक्षा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा उद्देश्य है धर्म निरपेक्ष रहकर किसी संस्कार विशेष पर अपनी लघु मीमांसा प्रकट करना कि किसी संस्कार की जड़ें समाज के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में क्यों फैली हुई हैं? कोई तो ऐसा रहस्य है कि उस संस्कार को कई धर्म तनिक् परिष्कृत करके या उसका स्वरूप बदलकर, उसे स्वीकार कर अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लेते हैं।
प्रभु को भोग देना, प्रसाद चढ़ाना, प्रसादी करना, लंगर लगाना, खैरात करना, नैवेद्य समर्पित करना, भोजन-प्रसादी बनाना आदि सभी क्रियाएं एक ही संस्कार के विभिन्न रूप हैं।
ईश्वर को भोग लगाना या नैवेद्य अर्पित करने का आशय है कि हमें जो कुछ मिला है या हम जिसे भोगने वाले हैं, उस में से सबसे पहले उसको अर्पित कर दें जिसकी कृपा या रहम से हमने उस अन्न को पाया है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है, सर्वसम्पन्न है, सब पर दया करता है, सबका पालन करता है, वही सबका दाता है, वही सबको संरक्षण और जीवन देता है। मनुष्य उसका ही एक अंश है। शास्त्रों में स्वीकारोक्ति भी है कि ईश्वर अंश जीव अविनाशी अर्थात् मनुष्य ईश्वर का अंश है। परमात्मा की शक्ति और ज्ञान के कारण ही हम सब कुछ कर सकते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम धर्म के पवित्र और आदरणीय ग्रंथ ‘कुरआन शरीफ’ में भी प्रार्थना में यही कहा जाता है कि - ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानि रहीम’ अर्थात् शुरु करता हँू उस परम पावन पवित्र अल्लाह के नाम से-जो रहम दिल है, सबका कल्याण करता है और सब पर दया करता है।
यही कारण है कि मुस्लिम धर्म में भी अन्नदान (खैरात करना) को विशेष दर्जा प्राप्त है। भारतीय धार्मिक संस्कृति में अन्न के दान की पराकाष्ठा का वर्णन मिलता है। ‘अन्नदानं परमदानं विद्या दानमते परम’ अर्थात् अन्न का दान परम दान है, उससे बड़ा ज्ञान दान होता है। ज्ञान प्रत्येक के पास नहीं होता परंतु अन्न सभी के पास न्यूनाधिक होता है इसलिए अन्न का दान किया जा सकता है और व्यक्ति अन्नदान करके आत्मिक संतुष्टि का अनुभव करता है। यही परंपरा सिक्ख धर्म में भी देखने को मिलती है। सिक्ख धर्म ने तो भारतीय संस्कृति के कई संस्कारों को सर्वोच्चता प्रदान कर दी। देखें गुरुपूजा, गुरु भक्ति, गुरु श्रद्धा, गुरु सेवा, गुरु ज्ञान के प्रति अगाध श्रद्धा (गुरु ग्रंथ साहिब में परम विश्वास), गुरु आदेश को ही अपने जीवन का ध्येय मानना, गुरु आदेश से सदैव अन्नदान (लंगर) करते रहना आदि ऐसे उदाहरण हैं जो अद्वितीय हैं और जिन्हें पराकाष्ठा पर पहुंचाया है सिक्ख धर्म ने। हम देख सकते हैं कि शायद ही कोई गुरुद्वारा ऐसा होगा जहाँ नियमित कोई प्रसादी या लंगर नहीं चलता हो। अन्नदान का श्रेष्ठतम उदाहरण है ‘लंगर’। ‘लंगर’ शब्द से आशय गुरुद्वारे में भोजन स्वरूप वितरित किया जाने वाला प्रसाद जो ‘गुरु प्रसादी’ के रूप में होता है।
मैं यहां पाठकवंृद का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हँू कि अपने जीवन में किए गए कर्मों द्वारा हमें जो कुछ भी मिला वह परम पिता परमात्मा की देन है और उसमें से सर्वप्रथम ‘भोग स्वरूप’ हम ईश्वर को अर्पित कर इस सत्य को स्वीकारते हैं कि जो कुछ हमें मिला है, वह सब हे प्रभु, तेरी ही कृपा से मिला है और उस पर भोग का अधिकार भी तेरा ही है। जो लोग मंदिर-मस्जिदों और गुरुद्वारों या गिरजाघरों में बनने वाले ‘प्रभु के भोग’ को आराध्य को अर्पित करते हुए देखते हैं तो पाते हैं कि विशाल भंडारे में से तनिक मात्र ईश्वर के समक्ष रखा जाता है, उसे बाद में सादर उठाकर संपूर्ण भंडारे या खैरात सामग्री, प्रसाद या लंगर में मिला दिया जाता है और उस भंडारे का वितरण किया जाता है। यहां इस तथ्य पर भी हमारा ध्यान जाता है कि जो भोग हमने ईश्वर के समक्ष अर्पित किया न तो उसे व्यावहारिक रूप से ईश्वर ने खाया, न ही छुआ, केवल हमारा समर्पण था, हमारी आत्मिक संतुष्टि के लिए हमने ऐसा किया कि हे ईश्वर! इस सब पर सर्वप्रथम भोग का अधिकार तुम्हारा है।
यहां हमारी वृत्ति और अवधारणा बन जाती है कि ‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ अर्थात् मेरा इसमें कुछ भी नहीं है, जो कुछ है सो तेरा है, उसे तुझे अर्पित करके मैं संतुष्ट होना चाहता हँू और स्वयं में दिव्यता का आभास करता हँू। ऐसा जानकर भोजन, भोग, प्रसादी, लंगर, खैरात आदि के प्रति हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम श्रद्धा से उसके प्रति जुड़ जाते हैं, उस भोग के ग्रहण करने पर हमारा स्वाद, हमारा स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण आदि सब कुछ बदल जाते हैं। चाहे कोई व्यक्ति कुछ भी न ग्रहण करें परंतु ईश्वर को चढ़ाया हुआ भोग वह शत्रु के हाथ से पाकर भी स्वयं को धन्य महसूस करता है, जो भोजन प्रसादी हमें दूसरों के साथ मिलती है, हम उसे ग्रहण करने से पूर्व बांटकर लेते हैं। परस्पर प्रेम, भाई-चारा, सौहार्द्र और विश्वास बनता है, जात-पात, धर्म, आडंबर, सबसे ऊपर उठकर हम लंगर, प्रसाद, खैरात को ग्रहण करते हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो ऐसे ‘प्रभु को अर्पित भोग’ को ग्रहण करने पर उसमें दोष बताए। यही होती है ‘प्रसाद बुद्धि’। ‘प्रसाद बुद्धि’ से जीवन में हम हर प्रकार की वस्तु को ‘प्रसाद’ स्वरूप अपना लेते हैं। संतों का तो यहाँ तक कहना है सुख-दु:ख सब ईश्वर के प्रसाद हैं, इन्हें सहर्ष स्वीकार करते चलें।
भारतीय वैदिक संस्कृति की संस्कारजन्य परंपराओं पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि मनुष्य निम्न पांच प्रकार के ऋणों को जीवनभर चुकाता रहता है।
देवऋण : जिसने हमें दिया है, उसे हम सब कुछ दें।
पितृऋण : पूर्वजों की पारंपरिक रीतियों और पारिवारिक समृद्धि के लिए अर्पण करते रहें।
ऋषिऋण : धार्मिक आस्था और ज्ञान के प्रदायक गुरुजन, ऋषिगण के प्रति हमारा अर्पण।
मनुष्य ऋण : जो दैनिक जीवन में हमारे साथ रहते हैं, उनके सुखों के लिए अर्पण या त्याग।
भूत ऋण : ऐसे प्राणियों के प्रति हमारा त्याग या अर्पण जो हमारे लिए हितकर हैं, नि:स्वार्थ हैं, मौन-मूक हैं, पशु, पक्षी आदि।
हम पाते हैं कि हिन्दू धर्म में भोजन करने से पूर्व पांच ग्रास या निवाले अलग रखे जाते हैं, बाद में उन्हें गाय या पशु-पक्षियों आदि को दे दिया जाता है। मेरी मति के अनुरूप हमारी संस्कृति में पांच निवाले निकालने की यह परंपरा पंच महाभूतों के प्रति अपनी आस्था और विश्वास का प्रतीक भी हो सकता है कि हम जो कुछ भी ग्रहण कर रहे हैं, वह इन पंच महाभूतों की कृपा से है जो पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश हैं। महात्मा तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है : ‘क्षिति जल, पावक, गगन, समीरा।
पंचरचित अति अधम शरीरा।।’
अर्थात् हमारा शरीर पंचतत्वों से मिलकर बना है और इन पांच तत्वों से बना प्रसाद ही ग्रहण करके हम इस शरीर को प्रसन्न कर रहे हैं। इन पांचों तत्वों से ही हमारा शरीर बना है, फिर वही सत्य आ जाता है कि ‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ अर्थात् पंच-महाभूत निर्मित शरीर में पंच महाभूत की आहुति दे रहे हैं। ईश्वर इन्हीं पांचों तत्वों में समाया हुआ है, यही पांचों तत्व हमारे जीवन को चलाते हैं और ये तत्व हमें भोजन से मिलते हैं, वायु को छोड़कर। प्रभु को भोग देते समय हम यह कहते हैं :
प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा।
उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ब्रह्मणे स्वाहा।।
अर्थात् पांच प्रकार के प्राणों को हम अंगीकार करने की चेष्टा करते हैं, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस भोग में पंच महाभूतों से निर्मित पंच प्राणों की महाशक्तियों को समाविष्ट कर दें और उसे हम ग्रहण कर जीवन को सहजता से जीएं।
यहां मैं पाठकवृंद का ध्यान गीता के निम्न श्लोक की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा :
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापान समायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम।।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मैं ही सब प्राणियों के शरीर में रहने वाला प्राणी हँू और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर मैं चार प्रकार के अन्न को पचाता हँू।’ अर्थात् ईश्वर जगत के कण-कण में भोग स्वरूप व्याप्त है, उसे हम उसी का दिया हुआ अर्पित करके उसके प्रति अपनी आस्था को दर्शाते हैं।
उदाहरण : ब्रह्मार्पणं ब्रह्महवि: ब्रह्मग्नौ ब्रह्मणा हुतम।
ब्रह्मैव तेन गंतव्यं, ब्रह्मकर्म समाधिना।।
अर्थात् यज्ञ में हम जो अर्पित करते हैं, वह भी ब्रह्म ही है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मस्वरूप अग्नि में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्यफल भी ब्रह्म हैं। हमारा आशय है कि ‘प्रभु को भोग’ अर्पण करना समस्त चराचर जगत में अपना विश्वास और निष्ठा प्रकट करना है।
प्रभु को भोग देना, प्रसाद चढ़ाना, प्रसादी करना, लंगर लगाना, खैरात करना, नैवेद्य समर्पित करना, भोजन-प्रसादी बनाना आदि सभी क्रियाएं एक ही संस्कार के विभिन्न रूप हैं।
ईश्वर को भोग लगाना या नैवेद्य अर्पित करने का आशय है कि हमें जो कुछ मिला है या हम जिसे भोगने वाले हैं, उस में से सबसे पहले उसको अर्पित कर दें जिसकी कृपा या रहम से हमने उस अन्न को पाया है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है, सर्वसम्पन्न है, सब पर दया करता है, सबका पालन करता है, वही सबका दाता है, वही सबको संरक्षण और जीवन देता है। मनुष्य उसका ही एक अंश है। शास्त्रों में स्वीकारोक्ति भी है कि ईश्वर अंश जीव अविनाशी अर्थात् मनुष्य ईश्वर का अंश है। परमात्मा की शक्ति और ज्ञान के कारण ही हम सब कुछ कर सकते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम धर्म के पवित्र और आदरणीय ग्रंथ ‘कुरआन शरीफ’ में भी प्रार्थना में यही कहा जाता है कि - ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानि रहीम’ अर्थात् शुरु करता हँू उस परम पावन पवित्र अल्लाह के नाम से-जो रहम दिल है, सबका कल्याण करता है और सब पर दया करता है।
यही कारण है कि मुस्लिम धर्म में भी अन्नदान (खैरात करना) को विशेष दर्जा प्राप्त है। भारतीय धार्मिक संस्कृति में अन्न के दान की पराकाष्ठा का वर्णन मिलता है। ‘अन्नदानं परमदानं विद्या दानमते परम’ अर्थात् अन्न का दान परम दान है, उससे बड़ा ज्ञान दान होता है। ज्ञान प्रत्येक के पास नहीं होता परंतु अन्न सभी के पास न्यूनाधिक होता है इसलिए अन्न का दान किया जा सकता है और व्यक्ति अन्नदान करके आत्मिक संतुष्टि का अनुभव करता है। यही परंपरा सिक्ख धर्म में भी देखने को मिलती है। सिक्ख धर्म ने तो भारतीय संस्कृति के कई संस्कारों को सर्वोच्चता प्रदान कर दी। देखें गुरुपूजा, गुरु भक्ति, गुरु श्रद्धा, गुरु सेवा, गुरु ज्ञान के प्रति अगाध श्रद्धा (गुरु ग्रंथ साहिब में परम विश्वास), गुरु आदेश को ही अपने जीवन का ध्येय मानना, गुरु आदेश से सदैव अन्नदान (लंगर) करते रहना आदि ऐसे उदाहरण हैं जो अद्वितीय हैं और जिन्हें पराकाष्ठा पर पहुंचाया है सिक्ख धर्म ने। हम देख सकते हैं कि शायद ही कोई गुरुद्वारा ऐसा होगा जहाँ नियमित कोई प्रसादी या लंगर नहीं चलता हो। अन्नदान का श्रेष्ठतम उदाहरण है ‘लंगर’। ‘लंगर’ शब्द से आशय गुरुद्वारे में भोजन स्वरूप वितरित किया जाने वाला प्रसाद जो ‘गुरु प्रसादी’ के रूप में होता है।
मैं यहां पाठकवंृद का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हँू कि अपने जीवन में किए गए कर्मों द्वारा हमें जो कुछ भी मिला वह परम पिता परमात्मा की देन है और उसमें से सर्वप्रथम ‘भोग स्वरूप’ हम ईश्वर को अर्पित कर इस सत्य को स्वीकारते हैं कि जो कुछ हमें मिला है, वह सब हे प्रभु, तेरी ही कृपा से मिला है और उस पर भोग का अधिकार भी तेरा ही है। जो लोग मंदिर-मस्जिदों और गुरुद्वारों या गिरजाघरों में बनने वाले ‘प्रभु के भोग’ को आराध्य को अर्पित करते हुए देखते हैं तो पाते हैं कि विशाल भंडारे में से तनिक मात्र ईश्वर के समक्ष रखा जाता है, उसे बाद में सादर उठाकर संपूर्ण भंडारे या खैरात सामग्री, प्रसाद या लंगर में मिला दिया जाता है और उस भंडारे का वितरण किया जाता है। यहां इस तथ्य पर भी हमारा ध्यान जाता है कि जो भोग हमने ईश्वर के समक्ष अर्पित किया न तो उसे व्यावहारिक रूप से ईश्वर ने खाया, न ही छुआ, केवल हमारा समर्पण था, हमारी आत्मिक संतुष्टि के लिए हमने ऐसा किया कि हे ईश्वर! इस सब पर सर्वप्रथम भोग का अधिकार तुम्हारा है।
यहां हमारी वृत्ति और अवधारणा बन जाती है कि ‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ अर्थात् मेरा इसमें कुछ भी नहीं है, जो कुछ है सो तेरा है, उसे तुझे अर्पित करके मैं संतुष्ट होना चाहता हँू और स्वयं में दिव्यता का आभास करता हँू। ऐसा जानकर भोजन, भोग, प्रसादी, लंगर, खैरात आदि के प्रति हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम श्रद्धा से उसके प्रति जुड़ जाते हैं, उस भोग के ग्रहण करने पर हमारा स्वाद, हमारा स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण आदि सब कुछ बदल जाते हैं। चाहे कोई व्यक्ति कुछ भी न ग्रहण करें परंतु ईश्वर को चढ़ाया हुआ भोग वह शत्रु के हाथ से पाकर भी स्वयं को धन्य महसूस करता है, जो भोजन प्रसादी हमें दूसरों के साथ मिलती है, हम उसे ग्रहण करने से पूर्व बांटकर लेते हैं। परस्पर प्रेम, भाई-चारा, सौहार्द्र और विश्वास बनता है, जात-पात, धर्म, आडंबर, सबसे ऊपर उठकर हम लंगर, प्रसाद, खैरात को ग्रहण करते हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो ऐसे ‘प्रभु को अर्पित भोग’ को ग्रहण करने पर उसमें दोष बताए। यही होती है ‘प्रसाद बुद्धि’। ‘प्रसाद बुद्धि’ से जीवन में हम हर प्रकार की वस्तु को ‘प्रसाद’ स्वरूप अपना लेते हैं। संतों का तो यहाँ तक कहना है सुख-दु:ख सब ईश्वर के प्रसाद हैं, इन्हें सहर्ष स्वीकार करते चलें।
भारतीय वैदिक संस्कृति की संस्कारजन्य परंपराओं पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि मनुष्य निम्न पांच प्रकार के ऋणों को जीवनभर चुकाता रहता है।
देवऋण : जिसने हमें दिया है, उसे हम सब कुछ दें।
पितृऋण : पूर्वजों की पारंपरिक रीतियों और पारिवारिक समृद्धि के लिए अर्पण करते रहें।
ऋषिऋण : धार्मिक आस्था और ज्ञान के प्रदायक गुरुजन, ऋषिगण के प्रति हमारा अर्पण।
मनुष्य ऋण : जो दैनिक जीवन में हमारे साथ रहते हैं, उनके सुखों के लिए अर्पण या त्याग।
भूत ऋण : ऐसे प्राणियों के प्रति हमारा त्याग या अर्पण जो हमारे लिए हितकर हैं, नि:स्वार्थ हैं, मौन-मूक हैं, पशु, पक्षी आदि।
हम पाते हैं कि हिन्दू धर्म में भोजन करने से पूर्व पांच ग्रास या निवाले अलग रखे जाते हैं, बाद में उन्हें गाय या पशु-पक्षियों आदि को दे दिया जाता है। मेरी मति के अनुरूप हमारी संस्कृति में पांच निवाले निकालने की यह परंपरा पंच महाभूतों के प्रति अपनी आस्था और विश्वास का प्रतीक भी हो सकता है कि हम जो कुछ भी ग्रहण कर रहे हैं, वह इन पंच महाभूतों की कृपा से है जो पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश हैं। महात्मा तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है : ‘क्षिति जल, पावक, गगन, समीरा।
पंचरचित अति अधम शरीरा।।’
अर्थात् हमारा शरीर पंचतत्वों से मिलकर बना है और इन पांच तत्वों से बना प्रसाद ही ग्रहण करके हम इस शरीर को प्रसन्न कर रहे हैं। इन पांचों तत्वों से ही हमारा शरीर बना है, फिर वही सत्य आ जाता है कि ‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ अर्थात् पंच-महाभूत निर्मित शरीर में पंच महाभूत की आहुति दे रहे हैं। ईश्वर इन्हीं पांचों तत्वों में समाया हुआ है, यही पांचों तत्व हमारे जीवन को चलाते हैं और ये तत्व हमें भोजन से मिलते हैं, वायु को छोड़कर। प्रभु को भोग देते समय हम यह कहते हैं :
प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा।
उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ब्रह्मणे स्वाहा।।
अर्थात् पांच प्रकार के प्राणों को हम अंगीकार करने की चेष्टा करते हैं, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इस भोग में पंच महाभूतों से निर्मित पंच प्राणों की महाशक्तियों को समाविष्ट कर दें और उसे हम ग्रहण कर जीवन को सहजता से जीएं।
यहां मैं पाठकवृंद का ध्यान गीता के निम्न श्लोक की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा :
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापान समायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम।।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मैं ही सब प्राणियों के शरीर में रहने वाला प्राणी हँू और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर मैं चार प्रकार के अन्न को पचाता हँू।’ अर्थात् ईश्वर जगत के कण-कण में भोग स्वरूप व्याप्त है, उसे हम उसी का दिया हुआ अर्पित करके उसके प्रति अपनी आस्था को दर्शाते हैं।
उदाहरण : ब्रह्मार्पणं ब्रह्महवि: ब्रह्मग्नौ ब्रह्मणा हुतम।
ब्रह्मैव तेन गंतव्यं, ब्रह्मकर्म समाधिना।।
अर्थात् यज्ञ में हम जो अर्पित करते हैं, वह भी ब्रह्म ही है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मस्वरूप अग्नि में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्यफल भी ब्रह्म हैं। हमारा आशय है कि ‘प्रभु को भोग’ अर्पण करना समस्त चराचर जगत में अपना विश्वास और निष्ठा प्रकट करना है।
No comments:
Post a Comment