भारतीय ज्योतिष पर प्राय: आक्षेप है कि खगोल शास्त्र को पूरी तरह प्रयोग में नहीं लिया गया है या भारतीय ज्योतिष में खगोल शास्त्र का सही विवरण नहीं है। कुछ लोगों ने दबी जबान यह भी कहा है कि खगोल शास्त्र का उपयोग ढंग से भारतीय ज्योतिष मे नहीं किया गया है, यह पूरा सच नहीं है। भारतीय ऋषियों ने खगोल शास्त्र को जितना अधिक प्रयोग में लिया है उतना तो पाश्चात्य वैज्ञानिक आज तक भी नहीं ले पाए हैं। भारतीय कथाओं मे इतने ग्रह-नक्षत्र और आकाशीय पिण्डों का नाम है, जितना कहीं भी नहीं है बल्कि यूनानी कथानकों से कहीं बहुत ज्यादा भारतीय कथानक उपलब्ध हैं और हर दृश्य या अदृश्य छवि के बारे मे स्वतंत्र कथाएं मिलती हैं। काल निर्णय जितना अच्छा भारतीय ज्योतिष ग्रंथों मे है उतना कहीं भी नहीं। हर दूरी का या आकार का मान निकालने की कोशिश भारतीय खगोल शाçस्त्रयों ने की परन्तु उनमे अनुसंधान कार्य आगे चलकर बहुत कम हुआ है।
क्या भारतीय ज्योतिष सौरमण्डल तक सीमित हैक् - नहीं।
भारतीय ग्रंथों मे जगह-जगह उल्लेख है कि हमारा सौरमण्डल अंतिम नहीं है। गर्ग संहिता या ब्रrावैवर्तपुराण में इस बात के उल्लेख हैं कि हमारे ब्रrााण्ड जैसे करो़डों ब्रrााण्ड विरजा नदी में लुढ़के प़डे हैं। हमारे ब्रrााण्ड के ब्रrाा, विष्णु, महेश को गोलोक मे स्थित भगवान कृष्ण की प्रतिनिधि शतचन्द्रानना ने जब यह बात बताई तो इससे प्रकट होता है कि विरजा नदी से तात्पर्य किसी महामंदाकिनी से है, जिसमें करो़डों मंदाकिनियां हैं। इस उल्लेख से यह पता चलता है कि
1. हमारे सूर्य अंतिम नहीं हैं।
2. हमारे ब्रrाा, विष्णु, महेश अपने ही ब्रrााण्ड के हैं तथा अन्य ब्रrााण्डों के भी ब्रrाा, विष्णु, महेश हो सकते हैं।
3. जो दिख रहा है वह अंतिम सत्य नहीं है बल्कि उनके पीछे अंतिम सत्ता कोई और है और उन्होंने इन दृश्यमान ग्रह-नक्षत्रों को माध्यम बनाकर जगत का संचालन किया हुआ है।
4. जब कभी ईश्वर को अवतार लेना हुआ, वह बीच की समस्त इकाइयों का उल्लंघन करके पृथ्वी या अन्य कहीं अवतार ले सकते हैं।
5. भारतीय वैज्ञानिकों ने यह माना हुआ था कि समस्त जगत शून्य मे पुंजीभूत हो सकता है तथा शून्य से पुन: समस्त जगत की सृष्टि हो सकती है। इस तथ्य को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने मान लिया था और ग्रह और नक्षत्रों के तापमान का आंकलन करने के जितने भी फॉर्मूले हैं उनमे इन पिण्डों का आकार व आयतन इस बात का निर्धारण करता है कि उनका तापमान क्या होगाक् यह गणित न्यूटन, आइंस्टीन या प्लांक से पहले ही भारतीय ऋषियों ने कर ली थी।
6. कालगणना की भारतीय पद्धतियां बहुत श्रेष्ठ हैं। युगों की कालगणना एक ऎसा प्रयास है जिससे उनका कालजयी दृष्टिकोण मालूम प़डता है। उदाहरण के तौर पर सतयुग का मान ऋषियों ने 17 लाख 28हजार वर्ष, त्रेता युग का मान 12 लाख 96हजार वर्ष, द्वापर युग का मान 8लाख 64 हजार वर्ष और कलियुग का मान 4 लाख 32 हजार वर्ष माना है। इन सबका योग करने पर एक महायुग माना गया है। एक महायुग का मान सारी संधियां और संध्यांश सहित 43 लाख 20 हजार वर्ष माना गया है।
7. सूर्य सिद्धांत के रचनाकार ने दिव्य वर्ष की गणना भी करके बताई है कि 12 हजार दिव्य वर्षो का एक महायुग होता है। 360 मानुष सौर वर्षो का एक दिव्य वर्ष माना गया है। महायुग एक के बाद एक आएंगे। सृष्टि और प्रलय आते रहेंगे परन्तु ऋषियों की गणना यहां समाप्त नहीं होती है। 71 महायुगों का एक मनवन्तर होता है और ब्रrाा के एक दिन, जिसे कल्प भी कहते हैं में 14 मनवन्तर होते हैं। ब्रrाा का अहोरात्र एक हजार महायुग के बराबर होता है। एक कल्प के बराबर दिन और एक कल्प के बराबर ब्रrाा की रात्रि। ब्रrाा की परम आयु 100 वर्ष मानी गई है। उसमें से 50 वर्ष बीत चुके हैं और 51वें वर्ष का यह प्रथम कल्प है। इस गणना पर भी मतभेद है। भास्कराचार्य तो कहते हैं कि ब्रrााजी की आधी आयु बीत चुकी है और आचार्य वटेश्वर का मानना है कि साढे़ आठ वर्ष ही बीते हैं। ज्यादातर ऋषि मानते हैं कि वर्तमान कल्प मे यह सातवां मनवन्तर है जिसका नाम वैवस्वत् है। भास्कराचार्य मानते हैं कि सातवें मनु में 27 युग समाप्त हो गए और 28वां युग चल रहा है। इतनी अधिक गणनाएं आज से हजारों वर्ष पहले की जा चुकी थीं। अगर इन सबको सत्य माना जाए तो 2012 में सृष्टि समाप्त हो जाएगी, ऎसी कल्पनाएं सिर्फ अफवाह से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं।
शक
बहुत सारे लोग शक कैलेण्डर को भारत सरकार द्वारा स्वीकृत किए जाने पर नाक भौंह सिको़डते हैं परन्तु शक धारणा प्राचीनकाल से ही भारत में चली आ रही है। किस युग मे, किस-किस के नाम से शक प्रचलित थे उसका उल्लेख हम करते हैं- सतयुग मे ब्रrाशक, त्रेता में वामन शक, उसके बाद सहस्त्रार्जुन, फिर राम, फिर रावणहंत्र शक, द्वापर मे युधिष्ठिर, कलियुग मे विक्रम और शालिवाहन।
कलियुग मे भी छह शक कारक बताए गए हैं। कलियुग के प्रारंभ मे युधिष्ठिर, फिर विक्रम, फिर शालिवाहन, फिर विजय, उसके बाद नागार्जुन तथा अंत में कल्कि नामक शक होगा। युधिष्ठिर शक 3044, उसके 18हजार वर्ष बाद बादवाला शक, इसके बादवाला शक और दस हजार वर्ष बाद, इसके बाद अगला शक चार लाख वर्ष बाद तथा इनके बीतने के बाद 821 वर्ष और बीतने पर अंतिम शक होगा। 4 लाख 32 हजार वर्ष के कलियुग के इन छह शकों का वर्ष निर्धारण इस प्रकार पहले ही किया जा चुका है। युधिष्ठिर का जन्म हस्तिनापुर मे, उ”ौन मे विक्रम का, शालेर मोलेर पर्वत पर शालिवाहन का, चित्रकूट मे विजय का, रोहिताश में नागार्जुन का और भृगुकच्छ मे कलि का जन्म होगा। इसके पश्चात् सतयुग आएगा और सारे राजा सूर्य के वशीभूत होंगे। यह गणना अद्भुत है और इससे भूमण्डल या सौरमण्डल की आयु के अनुमान लनाने मे मदद मिलती है।
नक्षत्र मण्डलों मे नक्षत्रों की संख्या
कृत्तिका मे छह तारे, रोहिणी मे पांच, मृगशिरा मे तीन, आद्राü मे एक, पुनर्वसु में दो योगतारा, पुष्य मे तीन, आश्लेषा मे छह, मघा मे चार। इस तरह से प्रत्येक नक्षत्र मण्डल के प्रमुख ताराओं का ज्ञान और उनके स्वरूप का वर्णन ऋषियों ने कर दिया है। किस नक्षत्र मे क्या काम किया जाए और क्या काम नहीं किया जाएक् यह भी तय कर दिया है, जब ऋषियों को दूर स्थित नक्षत्र मण्डलों के प्रमुख ताराओं का ज्ञान था तो यह मानने का पर्याप्त आधार है कि उन्हें खगोल शास्त्र का बहुत अच्छा ज्ञान था। मूल नक्षत्र मे बारह ताराओं का ज्ञान उनको था तो शतभिषा शततारका कहा गया और उसमें 100 नक्षत्रों का ज्ञान ऋषियों को रहा है। रेवती नक्षत्र मे कुल मिलाकर 32 तारा माने गए हैं। इस तरह से तारे व योग ताराओं का ज्ञान ऋषियों को होने से वे उनके आधार पर भविष्य फल और कथन करने में समर्थ हुए और खगोल शास्त्र के माध्यम से ज्योतिष को समृद्ध करने मे भी सफल हुए।
रोहिणी का शकट
भेद ग्रह लाघव नामक ग्रंथ मे रोहिणी के शकट भेद की गणित दी गई है। वृषभ राशि के सत्रहवें अंश पर जिस ग्रह का दक्षिण शर पचास अंगुल से अधिक होता है वह ग्रह रोहिणी का शकट भेद करता है। शकट को अंग्रेजी में ष्टश्ne कहते हैं और उसमें से शनि या मंगल या चंद्रमा भेद करें तो जनसमुदाय की हानि होती है।
राजा दशरथ ने शनिदेव से वरदान लिया था उसमें यह शामिल था वह रोहिणी का शकट भेद नहीं करेंगे। ग्रह लाघव में यह भी वर्णन है कि पुनर्वसु नक्षत्र से आठवें नक्षत्र मे जब राहु होते हैं तो चन्द्रमा, रोहिणी का शकट भेद करेंगे। शनि और मंगल तो अगले युग तक भी शकट भेद नहीं कर पाएंगे। गणित के आधार पर कुछ कथानक गढ़े गए होंगे, ऎसा माना जा सकता है। इतनी सटीक गणनाएं बिना अच्छे खगोल शास्त्र के ज्ञान के बगैर किए जाना संभव नहीं है।
भारतीय ऋषि अपनी समस्त गणनाएं कोणीय दूरी के आधार पर करते रहे हैं। अनायास ही इस धारणा को बल मिलता रहा है कि खगोल का अन्तिम सिरा गोल है और वह कोई चौकोर जैसी इकाई नहीं है। प्राय: हर कण के चारों ओर एक कक्षा है और उस कक्षा मे भ्रमण करने वाली कोई न छोटी ब़डी इकाई है। भारतीय ऋषियों ने नक्षत्र और ग्रहों के बीच मे व्यक्तिगत दूरी को नापने का कोई भी प्रयास नहीं किया क्योंकि उसके आधार पर बनाया गया कोई भी नियम सार्वभौम सत्य सिद्ध नहीं हो सकता था। यही कारण था कि भारतीय ज्योतिष के बनाए गए नियम हमेशा-हमेशा के लिए हैं।
जिओसेन्ट्रिक एवं हीलियो सेन्ट्रिक ज्योतिष
पृथ्वी पर स्थित किसी बिन्दु पर से की गई गणना, अर्थात् पृथ्वी पर स्थित किसी कण को ब्रrााण्ड का केन्द्र बिन्दु मानते हुए जो ज्योतिष की जाती है वह जिओसेन्ट्रिक हैं तथा सूर्य को ब्रrााण्ड का केन्द्र मानते हुए जो ज्योतिष की जाती है वह हीलियो सेन्ट्रिक है। वस्तुत: बाह्य ब्रrााण्ड से चन्द्रमा और पृथ्वी अलग नहीं दिखते और पृथ्वी से बहुत नजदीक होने के कारण पृथ्वी की बाह्य परिधि पर स्थित एक तिल के समान चन्द्रमा दिखते हैं, चन्द्र लग्न का यही आधार है। अत: यह ज्योतिष ल्यूनो सेन्ट्रिक कहलाई जा सकती है। चन्द्र लग्न को जन्म लग्न से थो़डा सा कम ही महत्व मिलता है और उसके आधार पर बहुत सारे योग गढ़े गए हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रrााण्ड हमारे सौरमण्डल तक ही स्थित है। यह तीनों ही अखिल विश्व के सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र मानकर निर्णय का आधार रहे हैं और तीनों को ही महत्व प्रदान करने की दृष्टि से सुदर्शन चक्र की रचना की है जिसमें जन्म, सूर्य और चन्द्र लग्न को सम्मिलित रूप से देखा जाता है।
बाह्य प्रभाव चन्द्रमा से फिल्टर होते हैं
वस्तुत: भारतीय ज्योतिष में खगोल से आने वाले सारे कॉस्मिक प्रभाव चन्द्रमा और चन्द्रमा की कक्षा से फिल्टर होकर ही आते हैं। इनके चुम्बकीय प्रभाव इतने शक्तिशाली हैं कि बाह्य अंतरिक्ष की कोई भी ऊर्जा चन्द्रमा से होकर ही पृथ्वी पर आती है। इसी भांति बाह्य अंतरिक्ष की तमाम कॉस्मिक ऊर्जा सूर्य के कारण अपनी कोणीय दूरी बदल लेती है। किरणों के विचलन को न्यूटन और आइंस्टीन ने भी माना है। इस तथ्य को भारतीय ऋषियों ने सूर्य लग्न और चन्द्र लग्न को प्रधानता देते हुए प्रकट किया है। उन्होंने गणितीय नियमों का उल्लेख न करते हुए इन लग्नों के प्रभाव को रेखांकित कर दिया। हमारे पास यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि उन्हें खगोल शास्त्र का ज्ञान बहुत अधिक था।
वैदिक ज्योतिष नक्षत्रों के आधार पर
नक्षत्र मण्डल मे स्थित प्रत्येक नक्षत्र हमारे सौरमण्डल की किसी भी इकाई से ब़डे हैं। कोणीय दूरी के आधार पर पृथ्वी से चन्द्रमा की परिधि को छूते हुए जो भी स्पर्शज्या (चन्द्रमा के दो छोरों से) अनंत आसमान में विस्तार दिए जाने पर जिन नक्षत्रों को अपनी सीमा में ले लेती हैं, वे उस नक्षत्र मण्डल के अन्तर्गत माने गए हैं। यह भी कहा जा सकता है कि एक नक्षत्र मण्डल के समन्वित प्रभाव चन्द्रमा के माध्यम से फिल्टर होकर पृथ्वी पर आते हैं तो एक तरफ तो ऋषियों ने उस नक्षत्र मण्डल में चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर दशाक्रम का निर्धारण किया तो दूसरी ओर हर नक्षत्र में चन्द्रमा के गुणावगुण विशिष्ट हो गए हैं। ऋषियों की बुद्धि की बलिहारी है कि यह रहस्य आज तक खुल नहीं पाया है कि शुक्र के नक्षत्र मे 20 वर्ष का कर्मफल तथा उससे अगले नक्षत्र मे छह वर्ष का कर्मफल तथा उससे अगले नक्षत्र में सात वर्ष का कर्मफल मिलने के पीछे सही तर्क क्या हैक् राहु और केतु एक दूसरे से 180 अंश पर हैं, उनकी गति समान है फिर भी राहु के दशा वर्ष 18और केतु के दशा वर्ष सात क्यों हैंक् खगोल शास्त्र के अद्भुत ज्ञान के बिना ऋषिगण यह व्यवस्था दे नहीं सकते थे और इसकी सत्यता का आधार यह है कि दैनिक भविष्य कथन में यह दशाकाल खरे उतरते हैं।
भारतीय ज्योतिष से बाहर के नक्षत्र
सबसे आधुनिक सुपरनोवा मृगशीर्ष नक्षत्र मण्डल में है जिसे ब्रrा ह्वदय का नाम दिया गया है। इसे नंगी आंखों से थो़डा बहुत पहचाना जा सकता है। इस नक्षत्र मण्डल की प्रकाश वर्षो मे दूरी वृषभ या मिथुन राशि के तारों की अपेक्षा बहुत अधिक है परन्तु इसमें महाविस्फोट चल रहा है। ऋषियों ने इनको पहचान लिया था परन्तु इनके बारे में अधिक विवरण नहीं दिया। चित्रा तारा या लुब्धक तारा या अभिजित तारे को लेकर ऋषियों का ज्ञान अत्यन्त स्पष्ट था। इनके बारे में अभी बहुत कुछ कहा जाना बाकी है।
इस लेख का उद्देश्य केवल यह है कि हमें अपने ऋषियों के दिए हुए खगोल ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिष को शुद्ध वैज्ञानिक धरातल पर उतारना होगा। नई पीढ़ी ज्ञान समृद्ध है और यह कार्य कर सकती है।
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क्या भारतीय ज्योतिष सौरमण्डल तक सीमित हैक् - नहीं।
भारतीय ग्रंथों मे जगह-जगह उल्लेख है कि हमारा सौरमण्डल अंतिम नहीं है। गर्ग संहिता या ब्रrावैवर्तपुराण में इस बात के उल्लेख हैं कि हमारे ब्रrााण्ड जैसे करो़डों ब्रrााण्ड विरजा नदी में लुढ़के प़डे हैं। हमारे ब्रrााण्ड के ब्रrाा, विष्णु, महेश को गोलोक मे स्थित भगवान कृष्ण की प्रतिनिधि शतचन्द्रानना ने जब यह बात बताई तो इससे प्रकट होता है कि विरजा नदी से तात्पर्य किसी महामंदाकिनी से है, जिसमें करो़डों मंदाकिनियां हैं। इस उल्लेख से यह पता चलता है कि
1. हमारे सूर्य अंतिम नहीं हैं।
2. हमारे ब्रrाा, विष्णु, महेश अपने ही ब्रrााण्ड के हैं तथा अन्य ब्रrााण्डों के भी ब्रrाा, विष्णु, महेश हो सकते हैं।
3. जो दिख रहा है वह अंतिम सत्य नहीं है बल्कि उनके पीछे अंतिम सत्ता कोई और है और उन्होंने इन दृश्यमान ग्रह-नक्षत्रों को माध्यम बनाकर जगत का संचालन किया हुआ है।
4. जब कभी ईश्वर को अवतार लेना हुआ, वह बीच की समस्त इकाइयों का उल्लंघन करके पृथ्वी या अन्य कहीं अवतार ले सकते हैं।
5. भारतीय वैज्ञानिकों ने यह माना हुआ था कि समस्त जगत शून्य मे पुंजीभूत हो सकता है तथा शून्य से पुन: समस्त जगत की सृष्टि हो सकती है। इस तथ्य को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने मान लिया था और ग्रह और नक्षत्रों के तापमान का आंकलन करने के जितने भी फॉर्मूले हैं उनमे इन पिण्डों का आकार व आयतन इस बात का निर्धारण करता है कि उनका तापमान क्या होगाक् यह गणित न्यूटन, आइंस्टीन या प्लांक से पहले ही भारतीय ऋषियों ने कर ली थी।
6. कालगणना की भारतीय पद्धतियां बहुत श्रेष्ठ हैं। युगों की कालगणना एक ऎसा प्रयास है जिससे उनका कालजयी दृष्टिकोण मालूम प़डता है। उदाहरण के तौर पर सतयुग का मान ऋषियों ने 17 लाख 28हजार वर्ष, त्रेता युग का मान 12 लाख 96हजार वर्ष, द्वापर युग का मान 8लाख 64 हजार वर्ष और कलियुग का मान 4 लाख 32 हजार वर्ष माना है। इन सबका योग करने पर एक महायुग माना गया है। एक महायुग का मान सारी संधियां और संध्यांश सहित 43 लाख 20 हजार वर्ष माना गया है।
7. सूर्य सिद्धांत के रचनाकार ने दिव्य वर्ष की गणना भी करके बताई है कि 12 हजार दिव्य वर्षो का एक महायुग होता है। 360 मानुष सौर वर्षो का एक दिव्य वर्ष माना गया है। महायुग एक के बाद एक आएंगे। सृष्टि और प्रलय आते रहेंगे परन्तु ऋषियों की गणना यहां समाप्त नहीं होती है। 71 महायुगों का एक मनवन्तर होता है और ब्रrाा के एक दिन, जिसे कल्प भी कहते हैं में 14 मनवन्तर होते हैं। ब्रrाा का अहोरात्र एक हजार महायुग के बराबर होता है। एक कल्प के बराबर दिन और एक कल्प के बराबर ब्रrाा की रात्रि। ब्रrाा की परम आयु 100 वर्ष मानी गई है। उसमें से 50 वर्ष बीत चुके हैं और 51वें वर्ष का यह प्रथम कल्प है। इस गणना पर भी मतभेद है। भास्कराचार्य तो कहते हैं कि ब्रrााजी की आधी आयु बीत चुकी है और आचार्य वटेश्वर का मानना है कि साढे़ आठ वर्ष ही बीते हैं। ज्यादातर ऋषि मानते हैं कि वर्तमान कल्प मे यह सातवां मनवन्तर है जिसका नाम वैवस्वत् है। भास्कराचार्य मानते हैं कि सातवें मनु में 27 युग समाप्त हो गए और 28वां युग चल रहा है। इतनी अधिक गणनाएं आज से हजारों वर्ष पहले की जा चुकी थीं। अगर इन सबको सत्य माना जाए तो 2012 में सृष्टि समाप्त हो जाएगी, ऎसी कल्पनाएं सिर्फ अफवाह से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं।
शक
बहुत सारे लोग शक कैलेण्डर को भारत सरकार द्वारा स्वीकृत किए जाने पर नाक भौंह सिको़डते हैं परन्तु शक धारणा प्राचीनकाल से ही भारत में चली आ रही है। किस युग मे, किस-किस के नाम से शक प्रचलित थे उसका उल्लेख हम करते हैं- सतयुग मे ब्रrाशक, त्रेता में वामन शक, उसके बाद सहस्त्रार्जुन, फिर राम, फिर रावणहंत्र शक, द्वापर मे युधिष्ठिर, कलियुग मे विक्रम और शालिवाहन।
कलियुग मे भी छह शक कारक बताए गए हैं। कलियुग के प्रारंभ मे युधिष्ठिर, फिर विक्रम, फिर शालिवाहन, फिर विजय, उसके बाद नागार्जुन तथा अंत में कल्कि नामक शक होगा। युधिष्ठिर शक 3044, उसके 18हजार वर्ष बाद बादवाला शक, इसके बादवाला शक और दस हजार वर्ष बाद, इसके बाद अगला शक चार लाख वर्ष बाद तथा इनके बीतने के बाद 821 वर्ष और बीतने पर अंतिम शक होगा। 4 लाख 32 हजार वर्ष के कलियुग के इन छह शकों का वर्ष निर्धारण इस प्रकार पहले ही किया जा चुका है। युधिष्ठिर का जन्म हस्तिनापुर मे, उ”ौन मे विक्रम का, शालेर मोलेर पर्वत पर शालिवाहन का, चित्रकूट मे विजय का, रोहिताश में नागार्जुन का और भृगुकच्छ मे कलि का जन्म होगा। इसके पश्चात् सतयुग आएगा और सारे राजा सूर्य के वशीभूत होंगे। यह गणना अद्भुत है और इससे भूमण्डल या सौरमण्डल की आयु के अनुमान लनाने मे मदद मिलती है।
नक्षत्र मण्डलों मे नक्षत्रों की संख्या
कृत्तिका मे छह तारे, रोहिणी मे पांच, मृगशिरा मे तीन, आद्राü मे एक, पुनर्वसु में दो योगतारा, पुष्य मे तीन, आश्लेषा मे छह, मघा मे चार। इस तरह से प्रत्येक नक्षत्र मण्डल के प्रमुख ताराओं का ज्ञान और उनके स्वरूप का वर्णन ऋषियों ने कर दिया है। किस नक्षत्र मे क्या काम किया जाए और क्या काम नहीं किया जाएक् यह भी तय कर दिया है, जब ऋषियों को दूर स्थित नक्षत्र मण्डलों के प्रमुख ताराओं का ज्ञान था तो यह मानने का पर्याप्त आधार है कि उन्हें खगोल शास्त्र का बहुत अच्छा ज्ञान था। मूल नक्षत्र मे बारह ताराओं का ज्ञान उनको था तो शतभिषा शततारका कहा गया और उसमें 100 नक्षत्रों का ज्ञान ऋषियों को रहा है। रेवती नक्षत्र मे कुल मिलाकर 32 तारा माने गए हैं। इस तरह से तारे व योग ताराओं का ज्ञान ऋषियों को होने से वे उनके आधार पर भविष्य फल और कथन करने में समर्थ हुए और खगोल शास्त्र के माध्यम से ज्योतिष को समृद्ध करने मे भी सफल हुए।
रोहिणी का शकट
भेद ग्रह लाघव नामक ग्रंथ मे रोहिणी के शकट भेद की गणित दी गई है। वृषभ राशि के सत्रहवें अंश पर जिस ग्रह का दक्षिण शर पचास अंगुल से अधिक होता है वह ग्रह रोहिणी का शकट भेद करता है। शकट को अंग्रेजी में ष्टश्ne कहते हैं और उसमें से शनि या मंगल या चंद्रमा भेद करें तो जनसमुदाय की हानि होती है।
राजा दशरथ ने शनिदेव से वरदान लिया था उसमें यह शामिल था वह रोहिणी का शकट भेद नहीं करेंगे। ग्रह लाघव में यह भी वर्णन है कि पुनर्वसु नक्षत्र से आठवें नक्षत्र मे जब राहु होते हैं तो चन्द्रमा, रोहिणी का शकट भेद करेंगे। शनि और मंगल तो अगले युग तक भी शकट भेद नहीं कर पाएंगे। गणित के आधार पर कुछ कथानक गढ़े गए होंगे, ऎसा माना जा सकता है। इतनी सटीक गणनाएं बिना अच्छे खगोल शास्त्र के ज्ञान के बगैर किए जाना संभव नहीं है।
भारतीय ऋषि अपनी समस्त गणनाएं कोणीय दूरी के आधार पर करते रहे हैं। अनायास ही इस धारणा को बल मिलता रहा है कि खगोल का अन्तिम सिरा गोल है और वह कोई चौकोर जैसी इकाई नहीं है। प्राय: हर कण के चारों ओर एक कक्षा है और उस कक्षा मे भ्रमण करने वाली कोई न छोटी ब़डी इकाई है। भारतीय ऋषियों ने नक्षत्र और ग्रहों के बीच मे व्यक्तिगत दूरी को नापने का कोई भी प्रयास नहीं किया क्योंकि उसके आधार पर बनाया गया कोई भी नियम सार्वभौम सत्य सिद्ध नहीं हो सकता था। यही कारण था कि भारतीय ज्योतिष के बनाए गए नियम हमेशा-हमेशा के लिए हैं।
जिओसेन्ट्रिक एवं हीलियो सेन्ट्रिक ज्योतिष
पृथ्वी पर स्थित किसी बिन्दु पर से की गई गणना, अर्थात् पृथ्वी पर स्थित किसी कण को ब्रrााण्ड का केन्द्र बिन्दु मानते हुए जो ज्योतिष की जाती है वह जिओसेन्ट्रिक हैं तथा सूर्य को ब्रrााण्ड का केन्द्र मानते हुए जो ज्योतिष की जाती है वह हीलियो सेन्ट्रिक है। वस्तुत: बाह्य ब्रrााण्ड से चन्द्रमा और पृथ्वी अलग नहीं दिखते और पृथ्वी से बहुत नजदीक होने के कारण पृथ्वी की बाह्य परिधि पर स्थित एक तिल के समान चन्द्रमा दिखते हैं, चन्द्र लग्न का यही आधार है। अत: यह ज्योतिष ल्यूनो सेन्ट्रिक कहलाई जा सकती है। चन्द्र लग्न को जन्म लग्न से थो़डा सा कम ही महत्व मिलता है और उसके आधार पर बहुत सारे योग गढ़े गए हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रrााण्ड हमारे सौरमण्डल तक ही स्थित है। यह तीनों ही अखिल विश्व के सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र मानकर निर्णय का आधार रहे हैं और तीनों को ही महत्व प्रदान करने की दृष्टि से सुदर्शन चक्र की रचना की है जिसमें जन्म, सूर्य और चन्द्र लग्न को सम्मिलित रूप से देखा जाता है।
बाह्य प्रभाव चन्द्रमा से फिल्टर होते हैं
वस्तुत: भारतीय ज्योतिष में खगोल से आने वाले सारे कॉस्मिक प्रभाव चन्द्रमा और चन्द्रमा की कक्षा से फिल्टर होकर ही आते हैं। इनके चुम्बकीय प्रभाव इतने शक्तिशाली हैं कि बाह्य अंतरिक्ष की कोई भी ऊर्जा चन्द्रमा से होकर ही पृथ्वी पर आती है। इसी भांति बाह्य अंतरिक्ष की तमाम कॉस्मिक ऊर्जा सूर्य के कारण अपनी कोणीय दूरी बदल लेती है। किरणों के विचलन को न्यूटन और आइंस्टीन ने भी माना है। इस तथ्य को भारतीय ऋषियों ने सूर्य लग्न और चन्द्र लग्न को प्रधानता देते हुए प्रकट किया है। उन्होंने गणितीय नियमों का उल्लेख न करते हुए इन लग्नों के प्रभाव को रेखांकित कर दिया। हमारे पास यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि उन्हें खगोल शास्त्र का ज्ञान बहुत अधिक था।
वैदिक ज्योतिष नक्षत्रों के आधार पर
नक्षत्र मण्डल मे स्थित प्रत्येक नक्षत्र हमारे सौरमण्डल की किसी भी इकाई से ब़डे हैं। कोणीय दूरी के आधार पर पृथ्वी से चन्द्रमा की परिधि को छूते हुए जो भी स्पर्शज्या (चन्द्रमा के दो छोरों से) अनंत आसमान में विस्तार दिए जाने पर जिन नक्षत्रों को अपनी सीमा में ले लेती हैं, वे उस नक्षत्र मण्डल के अन्तर्गत माने गए हैं। यह भी कहा जा सकता है कि एक नक्षत्र मण्डल के समन्वित प्रभाव चन्द्रमा के माध्यम से फिल्टर होकर पृथ्वी पर आते हैं तो एक तरफ तो ऋषियों ने उस नक्षत्र मण्डल में चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर दशाक्रम का निर्धारण किया तो दूसरी ओर हर नक्षत्र में चन्द्रमा के गुणावगुण विशिष्ट हो गए हैं। ऋषियों की बुद्धि की बलिहारी है कि यह रहस्य आज तक खुल नहीं पाया है कि शुक्र के नक्षत्र मे 20 वर्ष का कर्मफल तथा उससे अगले नक्षत्र मे छह वर्ष का कर्मफल तथा उससे अगले नक्षत्र में सात वर्ष का कर्मफल मिलने के पीछे सही तर्क क्या हैक् राहु और केतु एक दूसरे से 180 अंश पर हैं, उनकी गति समान है फिर भी राहु के दशा वर्ष 18और केतु के दशा वर्ष सात क्यों हैंक् खगोल शास्त्र के अद्भुत ज्ञान के बिना ऋषिगण यह व्यवस्था दे नहीं सकते थे और इसकी सत्यता का आधार यह है कि दैनिक भविष्य कथन में यह दशाकाल खरे उतरते हैं।
भारतीय ज्योतिष से बाहर के नक्षत्र
सबसे आधुनिक सुपरनोवा मृगशीर्ष नक्षत्र मण्डल में है जिसे ब्रrा ह्वदय का नाम दिया गया है। इसे नंगी आंखों से थो़डा बहुत पहचाना जा सकता है। इस नक्षत्र मण्डल की प्रकाश वर्षो मे दूरी वृषभ या मिथुन राशि के तारों की अपेक्षा बहुत अधिक है परन्तु इसमें महाविस्फोट चल रहा है। ऋषियों ने इनको पहचान लिया था परन्तु इनके बारे में अधिक विवरण नहीं दिया। चित्रा तारा या लुब्धक तारा या अभिजित तारे को लेकर ऋषियों का ज्ञान अत्यन्त स्पष्ट था। इनके बारे में अभी बहुत कुछ कहा जाना बाकी है।
इस लेख का उद्देश्य केवल यह है कि हमें अपने ऋषियों के दिए हुए खगोल ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिष को शुद्ध वैज्ञानिक धरातल पर उतारना होगा। नई पीढ़ी ज्ञान समृद्ध है और यह कार्य कर सकती है।
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