प्राचीनकाल से अर्थ है सैक़डों वर्ष पूर्व। वराहमिहिर सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व समाज में जो सौन्दर्य-प्रसाधन प्रचलन में थे वराह मिहिर ने उनको लेकर अपने ग्रंथ वृहत्संहिता में कुछ चर्चा की है। आज बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां रासायनिक सौन्दर्य प्रसाधनों पर आ गई हैं परंतु आयुर्वेद से संबंधित कुछ कंपनियां उनके फामूर्लो पर आधारित कुछ उत्पाद बना रही हंै। हमें कम से कम उन कुछ बातों का ज्ञान अवश्य करना चाहिए।
केश काला करने के उपाय : राजदरबारों में कुछ वस्तुओं का प्रयोग खुलकर होता है। सिरके में कोदो के चावल को लोहे के पात्र में काफी उबालकर, उसमें लोहे का चूरा मिलाकर बारीक पीसा जाता था फिर सिरके से सिर के बालों को इकट्ठा करके उपरोक्त लेप लगाकर हरे पत्तों से सिर को ढक दिया जाता था। कुछ घंटे तक यह लेप लगा रहे तो बाल काले हो जाते हैं। बाद में सिरके आदि की गंध को खत्म करने के लिए सुगंधित द्रव्य लगाए जाते हैं। सिर स्नान के लिए : दाल-चीनी, कूठ, रेणुका, नलिका, स्पृक्का, बोल, तगर, नेत्रवाला, नाग-केसर और गंध पत्र, इनको समान भाग लेकर पीसकर सिर में लगाने से बाल अच्छे हो जाते हैं और सिर को आराम मिलता है। सुंगधित तेल : मंजीठ, समुद्रफेन, शूक्ति, दाल-चीनी, कूठ, बोल इन सबको बराबर मात्रा में चूर्ण करके, तिल के तेल में डालकर धूप में तपाएं तो इस तेल में चम्पे के फूलों की गंध आ जाती है। गंध चतुष्टय : गंध पत्र, सिंह्क, नेत्र वाला, तगर इन सबको बराबर भाग में लेकर मिलाने से कामोद्दीपक गंध उत्पन्न हो जाती है। इस गंध में दवदग्धक मिलाकर गुगुल और हिंगलू का धूप देने से मौलसरी पुष्प के समान सुगंधित द्रव्य बन जाता है। इसमें कूठ मिलाने से नीलकमल की, सफेद चंदन मिलाने से चम्पे के फूलों की तथा जायफल, दाल-चीनी और धनिया मिलाने से अतिमुक्तक पुष्प की गंध आ जाती है। यह सब गंध बहुत भीनी-भीनी होती हैं और मादक होती है। हजारों वर्ष तक यह फार्मूले काम में लाए जाते रहे हैं परंतु अब सब-कुछ केमिकल पर आधारित है। धूप : गूगल, नेत्र वाला, लाख, मौथा, नख और खाण्ड इनको बराबर लेकर धूप बनाएं तथा बालछ़ड, नेत्रवाला, सिह्ल, नख और चंदन को बराबर लेकर मिलाकर दूसरी धूप बनाएं। ये दो प्रकार की धूप बन जाती है। इसी तरह से हर्र, शंख, नख, बोल, नेत्रवाला, गु़ड, कूठ, शैलक तथा मौथा इन नव वस्तुओं को एक पाद से नव पाद तक अर्थात् पहली चीज एक ग्राम तो आखिरी चीज नौ ग्राम लें तो एक प्रकार की धूप बनती है। अगर इसी सामग्री को एक से चार के अनुपात में लें तो तीसरी प्रकार की धूप बनती है। इस प्रकार धूप बनाने के करीब आठ-दस फार्मूले काम में आते थे। वस्त्र सुगंधित करने के लिए : दाल-चीनी, खस, गंध पत्र इन सबके तीन भाग, इन सब का कुल का आधा भाग इलायची मिलाकर चूर्ण बनाते हैं फिर उसमें कपूर या कस्तूरी का बोध (चूर्ण बनाने की प्रक्रिया) करने से वस्त्रों को सुगंधित करने वाला शानदार द्रव्य बनता है। सुगंधित द्रव्य : मोथा, नेत्रवाला, शैलेय, कचूर, खस, नागकेसर के फूल, व्याघ्रनख, स्पृक्का (लता), अगरू, दमनक, नख, तगर, धनिया, कपूर, चोरक, श्वेत चंदन इन सोलह पदार्थो से अनुपात बदल-बदल कर 96तरह के सुंगधित द्रव्य तैयार होते हैं। इनमें से धनिया, कपूर का अनुपात अगर बिग़ड जाए तो यह अन्य द्रव्यों का नाश कर देते हैं। कुछ और वस्तुओं में मिलाकर कुल मिलाकर 1,74, 720 प्रकार के सुंगधित द्रव्य बनते हैं। मुखवास : हमने बाजार में बहुत सारे एक-एक रूपये के पाउच बिकते देखें हैं जिनमें सुगंधित सुपारी इत्यादि होती है। सस्ते केमिकल्स व सेकरिन का प्रयोग इनमें किया जाता है। प्राचीनकाल में सब कुछ आयुर्वेद के फार्मूलों के तहत होता था। उनमें से कुछ की चर्चा हम करेंगे - जायफल, कस्तूरी, कपूर, आम का रस और शहद के साथ ऊपर वाले फार्मूले में से कोई से भी चार वस्तुएं लेकर जो मुखवास बनता है वह पारिजात पुष्प जैसी गंध देता है। इन्हीं में यदि राल और धूप वाली वस्तुएं मिलाकर नेत्रवाला और दाल-चीनी मिला दी जाए तो स्नान करने के लिए बहुत सारे चूर्ण तैयार हो सकते हैं। केसर गंध : लोध, खस, तगर, अगरू, मुस्ता, गंधपत्र, प्रियड, धन (परिपेलव), हरीतकी इन नौ द्रव्यों को लेकर ऊपर बताए गए द्रव्य मिलाए जाएं फिर इसमें चंदन, सांैफ, कटूका, गूगुल और गु़ड का धूप मिलाएं तो अलग-अलग अनुपात से मिलाने पर कुल मिलाकर 84 प्रकार के गंध बनते हैं। जिनमें बकुल के फूल के समान गंध आती है। दंत काष्ठ : (दातुन) हऱड के चूर्ण को गोमूत्र में भिगोएं फिर ऊपर बताए हुए किसी भी गंधोत्व में डाले। इलायची, दाल-चीनी, गंधपत्र, सौवीर, शहद, कालीमिर्च, नागकेसर और कूठ इन सब को समान मात्रा में लेकर गंध जल बनाएं, फिर उस गंध जल में कुछ समय के लिए उन दंत काष्ठों को भिगाोए। इसके बाद जायफल चार भाग, गंधपत्र दो भाग, इलायची एक भाग और कपूर तीन भाग लेकर एक जगह इकट्ठा करके बारीक चूर्ण बनाएं। इस चूर्ण से उन दंत काष्ठों को मसल कर धूप में सुखाकर रखें। यह औषधियुक्त प्राचीन दातुन थी जो सारे दंत रोगों को दूर करती थी और मुख की दुर्गध को नष्ट करती थी। आजकल सब चीज रेडिमेड है। कई बार सुनने में आता है कि टूथपेस्ट में हड्डी का चूरा काम में आता है, कई बार सुनने में आता है कि जिलेटिन का भी प्रयोग होता है। जिलेटिन की ज्यादा आलोचना कैप्सूल में काम लेने के कारण हुई है। प्राचीन फार्मूलों में मेहनत बहुत अधिक होती थी परंतु आरोग्य मिलता था। पान : पान काम को जगाता है, शरीर की शोभा बढ़ाता है, सौभाग्य करता है, मुख को सुंगधित करता है, बल को बढ़ाता है और कफ से उत्पन्न रोगों का नाश करता है। कंठ शुद्धि के लिए पान श्रेष्ठ है। इसमें चूना ना कम हो और ना ही अधिक हो। अधिक सुपारी वाला पान राग का नाश करता है। अधिक चूना हो तो दुर्गन्ध करता है और अधिक पत्ते हो तो सुगंध करता है। यदि रात में पान खाना हो तो पत्ता अधिक होना चाहिए। यदि दिन में खाना हो तो सुपारी अधिक होनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के पत्ते विभिन्न औषधियों का काम करते हैं। स्नान जल : नूरजहाँ ने गुलाब के इत्र का आविष्कार किया था। प्राचीन महारानियो को ये सुविधा थी और स्नान जल के लिए पुष्पसार निकालने की विधियां उन्होंने आविष्कार कर ली थीं। नूरजहाँ हजारों गुलाब के फूलों को गरम पानी में उबालकर उसकी वाष्प को संघनित करके अर्क-ए-गुलाब एकत्रित करके उससे स्त्रान करती थी। इससे उसके सौन्दर्य की वृद्धि होती थी। इसी प्रकार पुष्प स्त्रान के माध्यम से सैक़डों औषधियों का प्रयोग करके राजा-महाजाओं के लिए स्त्रान द्रव्य तैयार किए जाते थें, जिनमें मूल औषधियों के अतिरिक्त सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। यह बातें सामान्यजन को ना तो पता थीं और ना ही सब उनको उपलब्ध था। आधुनिक सौन्दर्यü-प्रसाधन : आजकल जो सौन्दर्य प्रसाधन प्रचलन में हैं उनमें खीरा, कक़डी, घीया, पपीता, चंदन, कपूर, पिपरमेंट इत्यादि का प्रयोग बहुतायत से किया जा रहा है। घृत के स्थान पर अब मक्खन या क्रीम का प्रयोग करके अधिकांश सौन्दर्य सामग्री बनाई जा रही है। सबसे खराब बात यह है कि हम प्राकृतिक ज़डी-बूटियों को छो़डकर कृत्रिम रसायनों पर जा रहे हैं जिससे त्वचा स्निग्ध नहीं रहती है तथा एलर्जी से रोग होते हैं। क्या आpर्य की बात है कि पृथ्वी का सबसे ब़डा माइश्चराइजर पानी है, पर 1000 रू. प्रति किलो वाले माइश्चराइजर का मार्केट हजारों करो़ड रूपये का है।
केश काला करने के उपाय : राजदरबारों में कुछ वस्तुओं का प्रयोग खुलकर होता है। सिरके में कोदो के चावल को लोहे के पात्र में काफी उबालकर, उसमें लोहे का चूरा मिलाकर बारीक पीसा जाता था फिर सिरके से सिर के बालों को इकट्ठा करके उपरोक्त लेप लगाकर हरे पत्तों से सिर को ढक दिया जाता था। कुछ घंटे तक यह लेप लगा रहे तो बाल काले हो जाते हैं। बाद में सिरके आदि की गंध को खत्म करने के लिए सुगंधित द्रव्य लगाए जाते हैं। सिर स्नान के लिए : दाल-चीनी, कूठ, रेणुका, नलिका, स्पृक्का, बोल, तगर, नेत्रवाला, नाग-केसर और गंध पत्र, इनको समान भाग लेकर पीसकर सिर में लगाने से बाल अच्छे हो जाते हैं और सिर को आराम मिलता है। सुंगधित तेल : मंजीठ, समुद्रफेन, शूक्ति, दाल-चीनी, कूठ, बोल इन सबको बराबर मात्रा में चूर्ण करके, तिल के तेल में डालकर धूप में तपाएं तो इस तेल में चम्पे के फूलों की गंध आ जाती है। गंध चतुष्टय : गंध पत्र, सिंह्क, नेत्र वाला, तगर इन सबको बराबर भाग में लेकर मिलाने से कामोद्दीपक गंध उत्पन्न हो जाती है। इस गंध में दवदग्धक मिलाकर गुगुल और हिंगलू का धूप देने से मौलसरी पुष्प के समान सुगंधित द्रव्य बन जाता है। इसमें कूठ मिलाने से नीलकमल की, सफेद चंदन मिलाने से चम्पे के फूलों की तथा जायफल, दाल-चीनी और धनिया मिलाने से अतिमुक्तक पुष्प की गंध आ जाती है। यह सब गंध बहुत भीनी-भीनी होती हैं और मादक होती है। हजारों वर्ष तक यह फार्मूले काम में लाए जाते रहे हैं परंतु अब सब-कुछ केमिकल पर आधारित है। धूप : गूगल, नेत्र वाला, लाख, मौथा, नख और खाण्ड इनको बराबर लेकर धूप बनाएं तथा बालछ़ड, नेत्रवाला, सिह्ल, नख और चंदन को बराबर लेकर मिलाकर दूसरी धूप बनाएं। ये दो प्रकार की धूप बन जाती है। इसी तरह से हर्र, शंख, नख, बोल, नेत्रवाला, गु़ड, कूठ, शैलक तथा मौथा इन नव वस्तुओं को एक पाद से नव पाद तक अर्थात् पहली चीज एक ग्राम तो आखिरी चीज नौ ग्राम लें तो एक प्रकार की धूप बनती है। अगर इसी सामग्री को एक से चार के अनुपात में लें तो तीसरी प्रकार की धूप बनती है। इस प्रकार धूप बनाने के करीब आठ-दस फार्मूले काम में आते थे। वस्त्र सुगंधित करने के लिए : दाल-चीनी, खस, गंध पत्र इन सबके तीन भाग, इन सब का कुल का आधा भाग इलायची मिलाकर चूर्ण बनाते हैं फिर उसमें कपूर या कस्तूरी का बोध (चूर्ण बनाने की प्रक्रिया) करने से वस्त्रों को सुगंधित करने वाला शानदार द्रव्य बनता है। सुगंधित द्रव्य : मोथा, नेत्रवाला, शैलेय, कचूर, खस, नागकेसर के फूल, व्याघ्रनख, स्पृक्का (लता), अगरू, दमनक, नख, तगर, धनिया, कपूर, चोरक, श्वेत चंदन इन सोलह पदार्थो से अनुपात बदल-बदल कर 96तरह के सुंगधित द्रव्य तैयार होते हैं। इनमें से धनिया, कपूर का अनुपात अगर बिग़ड जाए तो यह अन्य द्रव्यों का नाश कर देते हैं। कुछ और वस्तुओं में मिलाकर कुल मिलाकर 1,74, 720 प्रकार के सुंगधित द्रव्य बनते हैं। मुखवास : हमने बाजार में बहुत सारे एक-एक रूपये के पाउच बिकते देखें हैं जिनमें सुगंधित सुपारी इत्यादि होती है। सस्ते केमिकल्स व सेकरिन का प्रयोग इनमें किया जाता है। प्राचीनकाल में सब कुछ आयुर्वेद के फार्मूलों के तहत होता था। उनमें से कुछ की चर्चा हम करेंगे - जायफल, कस्तूरी, कपूर, आम का रस और शहद के साथ ऊपर वाले फार्मूले में से कोई से भी चार वस्तुएं लेकर जो मुखवास बनता है वह पारिजात पुष्प जैसी गंध देता है। इन्हीं में यदि राल और धूप वाली वस्तुएं मिलाकर नेत्रवाला और दाल-चीनी मिला दी जाए तो स्नान करने के लिए बहुत सारे चूर्ण तैयार हो सकते हैं। केसर गंध : लोध, खस, तगर, अगरू, मुस्ता, गंधपत्र, प्रियड, धन (परिपेलव), हरीतकी इन नौ द्रव्यों को लेकर ऊपर बताए गए द्रव्य मिलाए जाएं फिर इसमें चंदन, सांैफ, कटूका, गूगुल और गु़ड का धूप मिलाएं तो अलग-अलग अनुपात से मिलाने पर कुल मिलाकर 84 प्रकार के गंध बनते हैं। जिनमें बकुल के फूल के समान गंध आती है। दंत काष्ठ : (दातुन) हऱड के चूर्ण को गोमूत्र में भिगोएं फिर ऊपर बताए हुए किसी भी गंधोत्व में डाले। इलायची, दाल-चीनी, गंधपत्र, सौवीर, शहद, कालीमिर्च, नागकेसर और कूठ इन सब को समान मात्रा में लेकर गंध जल बनाएं, फिर उस गंध जल में कुछ समय के लिए उन दंत काष्ठों को भिगाोए। इसके बाद जायफल चार भाग, गंधपत्र दो भाग, इलायची एक भाग और कपूर तीन भाग लेकर एक जगह इकट्ठा करके बारीक चूर्ण बनाएं। इस चूर्ण से उन दंत काष्ठों को मसल कर धूप में सुखाकर रखें। यह औषधियुक्त प्राचीन दातुन थी जो सारे दंत रोगों को दूर करती थी और मुख की दुर्गध को नष्ट करती थी। आजकल सब चीज रेडिमेड है। कई बार सुनने में आता है कि टूथपेस्ट में हड्डी का चूरा काम में आता है, कई बार सुनने में आता है कि जिलेटिन का भी प्रयोग होता है। जिलेटिन की ज्यादा आलोचना कैप्सूल में काम लेने के कारण हुई है। प्राचीन फार्मूलों में मेहनत बहुत अधिक होती थी परंतु आरोग्य मिलता था। पान : पान काम को जगाता है, शरीर की शोभा बढ़ाता है, सौभाग्य करता है, मुख को सुंगधित करता है, बल को बढ़ाता है और कफ से उत्पन्न रोगों का नाश करता है। कंठ शुद्धि के लिए पान श्रेष्ठ है। इसमें चूना ना कम हो और ना ही अधिक हो। अधिक सुपारी वाला पान राग का नाश करता है। अधिक चूना हो तो दुर्गन्ध करता है और अधिक पत्ते हो तो सुगंध करता है। यदि रात में पान खाना हो तो पत्ता अधिक होना चाहिए। यदि दिन में खाना हो तो सुपारी अधिक होनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के पत्ते विभिन्न औषधियों का काम करते हैं। स्नान जल : नूरजहाँ ने गुलाब के इत्र का आविष्कार किया था। प्राचीन महारानियो को ये सुविधा थी और स्नान जल के लिए पुष्पसार निकालने की विधियां उन्होंने आविष्कार कर ली थीं। नूरजहाँ हजारों गुलाब के फूलों को गरम पानी में उबालकर उसकी वाष्प को संघनित करके अर्क-ए-गुलाब एकत्रित करके उससे स्त्रान करती थी। इससे उसके सौन्दर्य की वृद्धि होती थी। इसी प्रकार पुष्प स्त्रान के माध्यम से सैक़डों औषधियों का प्रयोग करके राजा-महाजाओं के लिए स्त्रान द्रव्य तैयार किए जाते थें, जिनमें मूल औषधियों के अतिरिक्त सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। यह बातें सामान्यजन को ना तो पता थीं और ना ही सब उनको उपलब्ध था। आधुनिक सौन्दर्यü-प्रसाधन : आजकल जो सौन्दर्य प्रसाधन प्रचलन में हैं उनमें खीरा, कक़डी, घीया, पपीता, चंदन, कपूर, पिपरमेंट इत्यादि का प्रयोग बहुतायत से किया जा रहा है। घृत के स्थान पर अब मक्खन या क्रीम का प्रयोग करके अधिकांश सौन्दर्य सामग्री बनाई जा रही है। सबसे खराब बात यह है कि हम प्राकृतिक ज़डी-बूटियों को छो़डकर कृत्रिम रसायनों पर जा रहे हैं जिससे त्वचा स्निग्ध नहीं रहती है तथा एलर्जी से रोग होते हैं। क्या आpर्य की बात है कि पृथ्वी का सबसे ब़डा माइश्चराइजर पानी है, पर 1000 रू. प्रति किलो वाले माइश्चराइजर का मार्केट हजारों करो़ड रूपये का है।