Monday, December 27, 2010

Grahon Ke Shubhphal

Smt Padma Sharma

वर्ष 2011 के लिए भविष्यवाणियां

1. भारत की कुण्डली में इस समय सूर्य महादशा चल रही है। यह सितम्बर 2015 तक चलेगी। इस महादशा में भारत का प्रभुत्व बढ़ेगा, सकल राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ेगा और रीयल एस्टेट और वाहन उद्योग फलेगा-फूलेगा।

2.
इस समय भारत राहु अन्तर्दशा में चल रहा है जो कि सितम्बर 2011 तक है। राहु स्वयं भी कृत्तिका नक्षत्र मे स्थित हैं जो कि सूर्य का नक्षत्र है। इस अन्तर्दशा में शासक गणों मे भारी गतिरोध, वैमनस्य, प्रतिहिंसा और संदेह का वातावरण रहेगा। शासक वर्ग से जु़डे मंत्री और अधिकारियों की ब़डे पैमाने पर गिरफ्तारियां और कानूनी कार्यवाहियां होंगी। सूर्य स्वयं आश्लेषा नक्षत्र के हैं और वर्ष के प्रारंभ मे ही अस्तंगत मंगल मिथुन राशि में होने के कारण आर्थिक घोटालों में लिप्त शासक वर्ग के बहुत सारे लोगों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही संभावित है। सरकार कितना ही बचाने की कोशिश कर ले, कानून अपना काम करेगा।
3.
शनि के वक्री होते ही अर्थात् 29 जनवरी के बाद प्रमुख घोटालों के आरोपी कानूनी कार्यवाहियों के शिकार होने लगेंगे, इस बारे मे रोज नया समाचार सुनने को मिलेगा। किसी ब़डे अधिकारी या नेता की आत्महत्या या कोई अन्य दुर्घटना संभावित है।
4. 4
फरवरी से 28मार्च के बीच में शासक वर्ग बहुत बदनाम हो जाएगा और सूर्य महादशा, राहु अन्तर्दशा और शनि प्रत्यन्तर्दशा में शीर्षस्थ केन्द्रीय राजनेताओं में गंभीर मतभेद देखने को मिलेंगे। इस समय श्रीमती सोनिया गांधी की बुध महादशा में शनि अन्तर्दशा चल रही होगी जो कि शुभ नहीं है। उनका काफी खराब समय अगस्त-सितम्बर मे आएगा।
5.
कर्क लग्न की श्रीमती सोनिया गांधी की कुण्डली में फरवरी से जून तक का समय विशेष है, जब राहुल गांधी के द्वारा कही गई कुछ बातों की विशेष चर्चा होगी।
6.
बृहस्पति प्रत्यन्तर 4 फरवरी तक है। भारत की कुण्डली में बृहस्पति सबसे कम षड्बल के हैं और अष्टमेश होकर छठे भाव में बैठे हैं। इस समय भयंकर राजनैतिक और आर्थिक गतिरोध रहेंगे और सरकार को भारी परेशानियों का सामना करना प़डेगा। केन्द्र सरकार का किया गया कोई भी उपाय जनता को विश्वास नहीं दिला पाएगा। इसी अवधि में शेयर मार्केट में भारी हलचल रहेगी, निवेशक सावधान रहें।
7.
आर्थिक दृष्टि से बजट काल शानदार रहेगा और मंहगाई इत्यादि होने के बाद भी सकल राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ने और उद्योग विकास की गति बढ़ने से प्रसन्नता का माहौल रहेगा। सरकार को काफी संसाधन उपलब्ध होंगे।
8.
गर्मियों के बाद दूरसंचार के क्षेत्र मे अविस्मरणीय काम होगा। भारत की संचार क्रांति अन्य राष्ट्रों के लिए प्रेरणा का काम करेगी और भारत की कम्पनियां अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर कमाल का काम करेंगी। Exhiition & Mergers की भूखी भारतीय कम्पनियां विश्व की कई कम्पनियों को निगल जाएंगी। यह वर्ष भारत के आर्थिक साम्राज्यवाद के विस्तार के लिए मील का पत्थर साबित होगा।
9. 28
सितम्बर से सूर्य में गुरू अन्तर्दशा शुरू हो रही है। सितम्बर से दिसम्बर पर्यन्त फिर नए घोटाले सामने आएंगे। घोटाले में फंसे हुए लोगों के खिलाफ जन असंतोष भ़डकेगा और किसी अन्य मामले में औद्योगिक घराने पुन: बेनकाब होंगे। फिर नए सत्ता के सौदागर बेनकाब होंगे। इस समय दो राज्य सरकारों पर संकट चल रहा होगा।
10.
अंतिम त्रैमास में बजट घाटा बढ़ेगा, राजस्व वसूली पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाएगी जिसकी जवाबदेही अगले बजट के आसपास तक देनी ही प़डेगी तथा सरकार रक्षात्मक मुद्रा मे जाएगी। औद्योगिक घराने लगातार विकास करेंगे।
11.
अंतिम त्रैमास में ही प्रमुख तीन-चार कम्पनियों के मार्केट कैपिटलाइजेशन की प्रवृत्तियों मे घात-प्रतिघात देखने को मिलेगा और लाखों करो़ड रूपए के छलकपट और प्रपंच देखने में आएंगे। व्यावसायिक घरानों की प्रतिद्वंद्विता खुलकर सामने आएगी और ब़डे घरानों की निजी कहानियां चौराहों पर जाएंगी।
12.
नीरा राडिया जैसे और भी किस्से सामने आएंगे।
13.
दूरसंचार घोटाले के मुख्य आरोपी राजा और नीरा राडिया सहित 10-12 अन्य व्यक्ति और व्यावसायिक घरानों के विरूद्ध सी.बी.आई. अपनी पूरी कानूनी कार्यवाही करेगी। इनको बचाया जाना संभव नहीं है। कांग्रेस सरकार इनकी आसानी से बलि दे देगी।
14. 2
जी स्पैक्ट्रम पर विपरीत असर आने के बाद भी 3जी स्पैक्ट्रम को लेकर कोई परेशानियां नहीं आएंगी और कम्पनियां अपना काम यथावत करती रहेंगी। जून-जुलाई में जब भारत की सूर्य की महादशा में राहु अन्तर्दशा में जब शुक्र प्रत्यन्तर चल रहा होगा तो दूरसंचार के क्षेत्र मे व्यवसाय पर कब्जा करने के लिए कम्पनियों मे गला-काट प्रतियोगिता चलेगी। उस समय सरकारी कम्पनी बीएसएनएल को नुकसान इस रूप में उठाना प़डेगा कि उसके बहुत सारे कनेक्शन अन्य कम्पनियों को चले जाएंगे।
15.
दूरसंचार से संबंधित मामलों मे वर्ष 2011 की चरम स्थिति सितम्बर के महीने में आएगी जब गुरू वक्री चल रहे होंगे और शुक्र अस्त चल रहे होंगे और उस समय विपक्षी दलों को एक के बाद एक कई और मुद्दे मिल जाएंगे। केन्द्र सरकार के लिए यह समय बिल्कुल भी अच्छा नहीं होगा क्योंकि भारत की जन्मपत्रिका के चौथे भाव में कई ग्रहों का प्रभाव चल रहा होगा।
16.
भारत का सकल राष्ट्रीय उत्पादन शानदार होते हुए भी खाद्यान्न के भावों मे ऊंच-नीच चलती रहेगी। 2011 के ही अंतिम त्रैमास में इन सबका असर देखने को मिलेगा। उस समय मंहगाई को लेकर भयंकर अखबारबाजी और जनता के आंदोलन देखने को मिलेंगे। अखबारों को खुलकर लिखने का अवसर मिलेगा और ऎसा लगेगा कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जैसे सरकार का नियंत्रण ही नहीं रहा हो।
17.
वक्री बृहस्पति की अवधि में ही अर्थात् अगस्त के अंतिम सप्ताह से लेकर 26दिसम्बर तक की अवधि में कुछ स्कैण्डल्स खुलकर सामने आएंगे जिनमें कम से कम दो बाबाओं के नकाब उतारने की चेष्टा की जाएगी। नवम्बर-दिसम्बर का महीना तो विशेष हलचल वाला रहेगा जब बृहस्पति, बुध दोनों वक्री होंगे और बृहस्पति से षडाष्टक बना रहे होंगे। इस समय देश की राजनीति में अभूतपूर्व हलचल चल रही होगी। मंहगाई पर सरकार का नियंत्रण नहीं रहेगा और घोटाले ही घोटलों की खबरें अखबारों मे छाई रहेंगी।
18. 2011
के उत्तरार्द्ध में भारतीय अंतरिक्ष संगठन अद्भुत कार्य करेगा और उनके किए गए प्रक्षेपणों और वैज्ञानिक शोध के कारण भारत संसार के अग्रणी देशों मे चुका होगा। हमने पिछले वर्ष लिखा था कि भारत अंतरिक्ष प्रक्षेपणों में करो़डों डॉलर कमाएगा। यह भविष्यवाणी सच जा रही है और 2011 में इसकी पराकाष्ठा होगी।
19.
केन्द्र सरकार को चलाने वाले लोगों में गंभीर मतभेद होने के लक्षण दिख रहे हैं। कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी कलह सतह पर आने में ग्रह स्थिति मदद करेगी। नवम्बर 2011 के अंतिम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के अंत तक भारतीय राजनीति के कई काले अध्याय लिखे जाएंगे। संसद के शीतकालीन अधिवेशन में इतने हंगामे देखने को मिलेंगे जिसका असर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में वर्ष के अंत तक देखने को मिलेगा।
20.
यूपीए सरकार के आंतरिक मतभेद चरम सीमा पर होंगे और इससे सरकार पर संकट बढ़ने ही वाला है। श्रीमती सोनिया गांधी पर कुछ व्यक्तिगत आक्षेप भी किए जाएंगे।

Tuesday, November 23, 2010

Boss

Boss

Tuesday, October 26, 2010

Padma Madam

प्राचीनकाल से अर्थ है सैक़डों वर्ष पूर्व। वराहमिहिर सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व समाज में जो सौन्दर्य-प्रसाधन प्रचलन में थे वराह मिहिर ने उनको लेकर अपने ग्रंथ वृहत्संहिता में कुछ चर्चा की है। आज बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां रासायनिक सौन्दर्य प्रसाधनों पर आ गई हैं परंतु आयुर्वेद से संबंधित कुछ कंपनियां उनके फामूर्लो पर आधारित कुछ उत्पाद बना रही हंै। हमें कम से कम उन कुछ बातों का ज्ञान अवश्य करना चाहिए।
केश काला करने के उपाय : राजदरबारों में कुछ वस्तुओं का प्रयोग खुलकर होता है। सिरके में कोदो के चावल को लोहे के पात्र में काफी उबालकर, उसमें लोहे का चूरा मिलाकर बारीक पीसा जाता था फिर सिरके से सिर के बालों को इकट्ठा करके उपरोक्त लेप लगाकर हरे पत्तों से सिर को ढक दिया जाता था। कुछ घंटे तक यह लेप लगा रहे तो बाल काले हो जाते हैं। बाद में सिरके आदि की गंध को खत्म करने के लिए सुगंधित द्रव्य लगाए जाते हैं। सिर स्नान के लिए : दाल-चीनी, कूठ, रेणुका, नलिका, स्पृक्का, बोल, तगर, नेत्रवाला, नाग-केसर और गंध पत्र, इनको समान भाग लेकर पीसकर सिर में लगाने से बाल अच्छे हो जाते हैं और सिर को आराम मिलता है। सुंगधित तेल : मंजीठ, समुद्रफेन, शूक्ति, दाल-चीनी, कूठ, बोल इन सबको बराबर मात्रा में चूर्ण करके, तिल के तेल में डालकर धूप में तपाएं तो इस तेल में चम्पे के फूलों की गंध आ जाती है। गंध चतुष्टय : गंध पत्र, सिंह्क, नेत्र वाला, तगर इन सबको बराबर भाग में लेकर मिलाने से कामोद्दीपक गंध उत्पन्न हो जाती है। इस गंध में दवदग्धक मिलाकर गुगुल और हिंगलू का धूप देने से मौलसरी पुष्प के समान सुगंधित द्रव्य बन जाता है। इसमें कूठ मिलाने से नीलकमल की, सफेद चंदन मिलाने से चम्पे के फूलों की तथा जायफल, दाल-चीनी और धनिया मिलाने से अतिमुक्तक पुष्प की गंध आ जाती है। यह सब गंध बहुत भीनी-भीनी होती हैं और मादक होती है। हजारों वर्ष तक यह फार्मूले काम में लाए जाते रहे हैं परंतु अब सब-कुछ केमिकल पर आधारित है। धूप : गूगल, नेत्र वाला, लाख, मौथा, नख और खाण्ड इनको बराबर लेकर धूप बनाएं तथा बालछ़ड, नेत्रवाला, सिह्ल, नख और चंदन को बराबर लेकर मिलाकर दूसरी धूप बनाएं। ये दो प्रकार की धूप बन जाती है। इसी तरह से हर्र, शंख, नख, बोल, नेत्रवाला, गु़ड, कूठ, शैलक तथा मौथा इन नव वस्तुओं को एक पाद से नव पाद तक अर्थात् पहली चीज एक ग्राम तो आखिरी चीज नौ ग्राम लें तो एक प्रकार की धूप बनती है। अगर इसी सामग्री को एक से चार के अनुपात में लें तो तीसरी प्रकार की धूप बनती है। इस प्रकार धूप बनाने के करीब आठ-दस फार्मूले काम में आते थे। वस्त्र सुगंधित करने के लिए : दाल-चीनी, खस, गंध पत्र इन सबके तीन भाग, इन सब का कुल का आधा भाग इलायची मिलाकर चूर्ण बनाते हैं फिर उसमें कपूर या कस्तूरी का बोध (चूर्ण बनाने की प्रक्रिया) करने से वस्त्रों को सुगंधित करने वाला शानदार द्रव्य बनता है। सुगंधित द्रव्य : मोथा, नेत्रवाला, शैलेय, कचूर, खस, नागकेसर के फूल, व्याघ्रनख, स्पृक्का (लता), अगरू, दमनक, नख, तगर, धनिया, कपूर, चोरक, श्वेत चंदन इन सोलह पदार्थो से अनुपात बदल-बदल कर 96तरह के सुंगधित द्रव्य तैयार होते हैं। इनमें से धनिया, कपूर का अनुपात अगर बिग़ड जाए तो यह अन्य द्रव्यों का नाश कर देते हैं। कुछ और वस्तुओं में मिलाकर कुल मिलाकर 1,74, 720 प्रकार के सुंगधित द्रव्य बनते हैं। मुखवास : हमने बाजार में बहुत सारे एक-एक रूपये के पाउच बिकते देखें हैं जिनमें सुगंधित सुपारी इत्यादि होती है। सस्ते केमिकल्स व सेकरिन का प्रयोग इनमें किया जाता है। प्राचीनकाल में सब कुछ आयुर्वेद के फार्मूलों के तहत होता था। उनमें से कुछ की चर्चा हम करेंगे - जायफल, कस्तूरी, कपूर, आम का रस और शहद के साथ ऊपर वाले फार्मूले में से कोई से भी चार वस्तुएं लेकर जो मुखवास बनता है वह पारिजात पुष्प जैसी गंध देता है। इन्हीं में यदि राल और धूप वाली वस्तुएं मिलाकर नेत्रवाला और दाल-चीनी मिला दी जाए तो स्नान करने के लिए बहुत सारे चूर्ण तैयार हो सकते हैं। केसर गंध : लोध, खस, तगर, अगरू, मुस्ता, गंधपत्र, प्रियड, धन (परिपेलव), हरीतकी इन नौ द्रव्यों को लेकर ऊपर बताए गए द्रव्य मिलाए जाएं फिर इसमें चंदन, सांैफ, कटूका, गूगुल और गु़ड का धूप मिलाएं तो अलग-अलग अनुपात से मिलाने पर कुल मिलाकर 84 प्रकार के गंध बनते हैं। जिनमें बकुल के फूल के समान गंध आती है। दंत काष्ठ : (दातुन) हऱड के चूर्ण को गोमूत्र में भिगोएं फिर ऊपर बताए हुए किसी भी गंधोत्व में डाले। इलायची, दाल-चीनी, गंधपत्र, सौवीर, शहद, कालीमिर्च, नागकेसर और कूठ इन सब को समान मात्रा में लेकर गंध जल बनाएं, फिर उस गंध जल में कुछ समय के लिए उन दंत काष्ठों को भिगाोए। इसके बाद जायफल चार भाग, गंधपत्र दो भाग, इलायची एक भाग और कपूर तीन भाग लेकर एक जगह इकट्ठा करके बारीक चूर्ण बनाएं। इस चूर्ण से उन दंत काष्ठों को मसल कर धूप में सुखाकर रखें। यह औषधियुक्त प्राचीन दातुन थी जो सारे दंत रोगों को दूर करती थी और मुख की दुर्गध को नष्ट करती थी। आजकल सब चीज रेडिमेड है। कई बार सुनने में आता है कि टूथपेस्ट में हड्डी का चूरा काम में आता है, कई बार सुनने में आता है कि जिलेटिन का भी प्रयोग होता है। जिलेटिन की ज्यादा आलोचना कैप्सूल में काम लेने के कारण हुई है। प्राचीन फार्मूलों में मेहनत बहुत अधिक होती थी परंतु आरोग्य मिलता था। पान : पान काम को जगाता है, शरीर की शोभा बढ़ाता है, सौभाग्य करता है, मुख को सुंगधित करता है, बल को बढ़ाता है और कफ से उत्पन्न रोगों का नाश करता है। कंठ शुद्धि के लिए पान श्रेष्ठ है। इसमें चूना ना कम हो और ना ही अधिक हो। अधिक सुपारी वाला पान राग का नाश करता है। अधिक चूना हो तो दुर्गन्ध करता है और अधिक पत्ते हो तो सुगंध करता है। यदि रात में पान खाना हो तो पत्ता अधिक होना चाहिए। यदि दिन में खाना हो तो सुपारी अधिक होनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के पत्ते विभिन्न औषधियों का काम करते हैं। स्नान जल : नूरजहाँ ने गुलाब के इत्र का आविष्कार किया था। प्राचीन महारानियो को ये सुविधा थी और स्नान जल के लिए पुष्पसार निकालने की विधियां उन्होंने आविष्कार कर ली थीं। नूरजहाँ हजारों गुलाब के फूलों को गरम पानी में उबालकर उसकी वाष्प को संघनित करके अर्क-ए-गुलाब एकत्रित करके उससे स्त्रान करती थी। इससे उसके सौन्दर्य की वृद्धि होती थी। इसी प्रकार पुष्प स्त्रान के माध्यम से सैक़डों औषधियों का प्रयोग करके राजा-महाजाओं के लिए स्त्रान द्रव्य तैयार किए जाते थें, जिनमें मूल औषधियों के अतिरिक्त सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। यह बातें सामान्यजन को ना तो पता थीं और ना ही सब उनको उपलब्ध था। आधुनिक सौन्दर्यü-प्रसाधन : आजकल जो सौन्दर्य प्रसाधन प्रचलन में हैं उनमें खीरा, कक़डी, घीया, पपीता, चंदन, कपूर, पिपरमेंट इत्यादि का प्रयोग बहुतायत से किया जा रहा है। घृत के स्थान पर अब मक्खन या क्रीम का प्रयोग करके अधिकांश सौन्दर्य सामग्री बनाई जा रही है। सबसे खराब बात यह है कि हम प्राकृतिक ज़डी-बूटियों को छो़डकर कृत्रिम रसायनों पर जा रहे हैं जिससे त्वचा स्निग्ध नहीं रहती है तथा एलर्जी से रोग होते हैं। क्या आpर्य की बात है कि पृथ्वी का सबसे ब़डा माइश्चराइजर पानी है, पर 1000 रू. प्रति किलो वाले माइश्चराइजर का मार्केट हजारों करो़ड रूपये का है।

ज्योतिष और खगोल शास्त्र

भारतीय ज्योतिष पर प्राय: आक्षेप है कि खगोल शास्त्र को पूरी तरह प्रयोग में नहीं लिया गया है या भारतीय ज्योतिष में खगोल शास्त्र का सही विवरण नहीं है। कुछ लोगों ने दबी जबान यह भी कहा है कि खगोल शास्त्र का उपयोग ढंग से भारतीय ज्योतिष मे नहीं किया गया है, यह पूरा सच नहीं है। भारतीय ऋषियों ने खगोल शास्त्र को जितना अधिक प्रयोग में लिया है उतना तो पाश्चात्य वैज्ञानिक आज तक भी नहीं ले पाए हैं। भारतीय कथाओं मे इतने ग्रह-नक्षत्र और आकाशीय पिण्डों का नाम है, जितना कहीं भी नहीं है बल्कि यूनानी कथानकों से कहीं बहुत ज्यादा भारतीय कथानक उपलब्ध हैं और हर दृश्य या अदृश्य छवि के बारे मे स्वतंत्र कथाएं मिलती हैं। काल निर्णय जितना अच्छा भारतीय ज्योतिष ग्रंथों मे है उतना कहीं भी नहीं। हर दूरी का या आकार का मान निकालने की कोशिश भारतीय खगोल शाçस्त्रयों ने की परन्तु उनमे अनुसंधान कार्य आगे चलकर बहुत कम हुआ है।
क्या भारतीय ज्योतिष सौरमण्डल तक सीमित हैक् - नहीं।
भारतीय ग्रंथों मे जगह-जगह उल्लेख है कि हमारा सौरमण्डल अंतिम नहीं है। गर्ग संहिता या ब्रrावैवर्तपुराण में इस बात के उल्लेख हैं कि हमारे ब्रrााण्ड जैसे करो़डों ब्रrााण्ड विरजा नदी में लुढ़के प़डे हैं। हमारे ब्रrााण्ड के ब्रrाा, विष्णु, महेश को गोलोक मे स्थित भगवान कृष्ण की प्रतिनिधि शतचन्द्रानना ने जब यह बात बताई तो इससे प्रकट होता है कि विरजा नदी से तात्पर्य किसी महामंदाकिनी से है, जिसमें करो़डों मंदाकिनियां हैं। इस उल्लेख से यह पता चलता है कि
1. हमारे सूर्य अंतिम नहीं हैं।
2. हमारे ब्रrाा, विष्णु, महेश अपने ही ब्रrााण्ड के हैं तथा अन्य ब्रrााण्डों के भी ब्रrाा, विष्णु, महेश हो सकते हैं।
3. जो दिख रहा है वह अंतिम सत्य नहीं है बल्कि उनके पीछे अंतिम सत्ता कोई और है और उन्होंने इन दृश्यमान ग्रह-नक्षत्रों को माध्यम बनाकर जगत का संचालन किया हुआ है।
4. जब कभी ईश्वर को अवतार लेना हुआ, वह बीच की समस्त इकाइयों का उल्लंघन करके पृथ्वी या अन्य कहीं अवतार ले सकते हैं।
5. भारतीय वैज्ञानिकों ने यह माना हुआ था कि समस्त जगत शून्य मे पुंजीभूत हो सकता है तथा शून्य से पुन: समस्त जगत की सृष्टि हो सकती है। इस तथ्य को पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने मान लिया था और ग्रह और नक्षत्रों के तापमान का आंकलन करने के जितने भी फॉर्मूले हैं उनमे इन पिण्डों का आकार व आयतन इस बात का निर्धारण करता है कि उनका तापमान क्या होगाक् यह गणित न्यूटन, आइंस्टीन या प्लांक से पहले ही भारतीय ऋषियों ने कर ली थी।
6. कालगणना की भारतीय पद्धतियां बहुत श्रेष्ठ हैं। युगों की कालगणना एक ऎसा प्रयास है जिससे उनका कालजयी दृष्टिकोण मालूम प़डता है। उदाहरण के तौर पर सतयुग का मान ऋषियों ने 17 लाख 28हजार वर्ष, त्रेता युग का मान 12 लाख 96हजार वर्ष, द्वापर युग का मान 8लाख 64 हजार वर्ष और कलियुग का मान 4 लाख 32 हजार वर्ष माना है। इन सबका योग करने पर एक महायुग माना गया है। एक महायुग का मान सारी संधियां और संध्यांश सहित 43 लाख 20 हजार वर्ष माना गया है।
7. सूर्य सिद्धांत के रचनाकार ने दिव्य वर्ष की गणना भी करके बताई है कि 12 हजार दिव्य वर्षो का एक महायुग होता है। 360 मानुष सौर वर्षो का एक दिव्य वर्ष माना गया है। महायुग एक के बाद एक आएंगे। सृष्टि और प्रलय आते रहेंगे परन्तु ऋषियों की गणना यहां समाप्त नहीं होती है। 71 महायुगों का एक मनवन्तर होता है और ब्रrाा के एक दिन, जिसे कल्प भी कहते हैं में 14 मनवन्तर होते हैं। ब्रrाा का अहोरात्र एक हजार महायुग के बराबर होता है। एक कल्प के बराबर दिन और एक कल्प के बराबर ब्रrाा की रात्रि। ब्रrाा की परम आयु 100 वर्ष मानी गई है। उसमें से 50 वर्ष बीत चुके हैं और 51वें वर्ष का यह प्रथम कल्प है। इस गणना पर भी मतभेद है। भास्कराचार्य तो कहते हैं कि ब्रrााजी की आधी आयु बीत चुकी है और आचार्य वटेश्वर का मानना है कि साढे़ आठ वर्ष ही बीते हैं। ज्यादातर ऋषि मानते हैं कि वर्तमान कल्प मे यह सातवां मनवन्तर है जिसका नाम वैवस्वत् है। भास्कराचार्य मानते हैं कि सातवें मनु में 27 युग समाप्त हो गए और 28वां युग चल रहा है। इतनी अधिक गणनाएं आज से हजारों वर्ष पहले की जा चुकी थीं। अगर इन सबको सत्य माना जाए तो 2012 में सृष्टि समाप्त हो जाएगी, ऎसी कल्पनाएं सिर्फ अफवाह से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं।
शक
बहुत सारे लोग शक कैलेण्डर को भारत सरकार द्वारा स्वीकृत किए जाने पर नाक भौंह सिको़डते हैं परन्तु शक धारणा प्राचीनकाल से ही भारत में चली आ रही है। किस युग मे, किस-किस के नाम से शक प्रचलित थे उसका उल्लेख हम करते हैं- सतयुग मे ब्रrाशक, त्रेता में वामन शक, उसके बाद सहस्त्रार्जुन, फिर राम, फिर रावणहंत्र शक, द्वापर मे युधिष्ठिर, कलियुग मे विक्रम और शालिवाहन।
कलियुग मे भी छह शक कारक बताए गए हैं। कलियुग के प्रारंभ मे युधिष्ठिर, फिर विक्रम, फिर शालिवाहन, फिर विजय, उसके बाद नागार्जुन तथा अंत में कल्कि नामक शक होगा। युधिष्ठिर शक 3044, उसके 18हजार वर्ष बाद बादवाला शक, इसके बादवाला शक और दस हजार वर्ष बाद, इसके बाद अगला शक चार लाख वर्ष बाद तथा इनके बीतने के बाद 821 वर्ष और बीतने पर अंतिम शक होगा। 4 लाख 32 हजार वर्ष के कलियुग के इन छह शकों का वर्ष निर्धारण इस प्रकार पहले ही किया जा चुका है। युधिष्ठिर का जन्म हस्तिनापुर मे, उ”ौन मे विक्रम का, शालेर मोलेर पर्वत पर शालिवाहन का, चित्रकूट मे विजय का, रोहिताश में नागार्जुन का और भृगुकच्छ मे कलि का जन्म होगा। इसके पश्चात् सतयुग आएगा और सारे राजा सूर्य के वशीभूत होंगे। यह गणना अद्भुत है और इससे भूमण्डल या सौरमण्डल की आयु के अनुमान लनाने मे मदद मिलती है।
नक्षत्र मण्डलों मे नक्षत्रों की संख्या
कृत्तिका मे छह तारे, रोहिणी मे पांच, मृगशिरा मे तीन, आद्राü मे एक, पुनर्वसु में दो योगतारा, पुष्य मे तीन, आश्लेषा मे छह, मघा मे चार। इस तरह से प्रत्येक नक्षत्र मण्डल के प्रमुख ताराओं का ज्ञान और उनके स्वरूप का वर्णन ऋषियों ने कर दिया है। किस नक्षत्र मे क्या काम किया जाए और क्या काम नहीं किया जाएक् यह भी तय कर दिया है, जब ऋषियों को दूर स्थित नक्षत्र मण्डलों के प्रमुख ताराओं का ज्ञान था तो यह मानने का पर्याप्त आधार है कि उन्हें खगोल शास्त्र का बहुत अच्छा ज्ञान था। मूल नक्षत्र मे बारह ताराओं का ज्ञान उनको था तो शतभिषा शततारका कहा गया और उसमें 100 नक्षत्रों का ज्ञान ऋषियों को रहा है। रेवती नक्षत्र मे कुल मिलाकर 32 तारा माने गए हैं। इस तरह से तारे व योग ताराओं का ज्ञान ऋषियों को होने से वे उनके आधार पर भविष्य फल और कथन करने में समर्थ हुए और खगोल शास्त्र के माध्यम से ज्योतिष को समृद्ध करने मे भी सफल हुए।
रोहिणी का शकट
भेद ग्रह लाघव नामक ग्रंथ मे रोहिणी के शकट भेद की गणित दी गई है। वृषभ राशि के सत्रहवें अंश पर जिस ग्रह का दक्षिण शर पचास अंगुल से अधिक होता है वह ग्रह रोहिणी का शकट भेद करता है। शकट को अंग्रेजी में ष्टश्ne कहते हैं और उसमें से शनि या मंगल या चंद्रमा भेद करें तो जनसमुदाय की हानि होती है।
राजा दशरथ ने शनिदेव से वरदान लिया था उसमें यह शामिल था वह रोहिणी का शकट भेद नहीं करेंगे। ग्रह लाघव में यह भी वर्णन है कि पुनर्वसु नक्षत्र से आठवें नक्षत्र मे जब राहु होते हैं तो चन्द्रमा, रोहिणी का शकट भेद करेंगे। शनि और मंगल तो अगले युग तक भी शकट भेद नहीं कर पाएंगे। गणित के आधार पर कुछ कथानक गढ़े गए होंगे, ऎसा माना जा सकता है। इतनी सटीक गणनाएं बिना अच्छे खगोल शास्त्र के ज्ञान के बगैर किए जाना संभव नहीं है।
भारतीय ऋषि अपनी समस्त गणनाएं कोणीय दूरी के आधार पर करते रहे हैं। अनायास ही इस धारणा को बल मिलता रहा है कि खगोल का अन्तिम सिरा गोल है और वह कोई चौकोर जैसी इकाई नहीं है। प्राय: हर कण के चारों ओर एक कक्षा है और उस कक्षा मे भ्रमण करने वाली कोई न छोटी ब़डी इकाई है। भारतीय ऋषियों ने नक्षत्र और ग्रहों के बीच मे व्यक्तिगत दूरी को नापने का कोई भी प्रयास नहीं किया क्योंकि उसके आधार पर बनाया गया कोई भी नियम सार्वभौम सत्य सिद्ध नहीं हो सकता था। यही कारण था कि भारतीय ज्योतिष के बनाए गए नियम हमेशा-हमेशा के लिए हैं।
जिओसेन्ट्रिक एवं हीलियो सेन्ट्रिक ज्योतिष
पृथ्वी पर स्थित किसी बिन्दु पर से की गई गणना, अर्थात् पृथ्वी पर स्थित किसी कण को ब्रrााण्ड का केन्द्र बिन्दु मानते हुए जो ज्योतिष की जाती है वह जिओसेन्ट्रिक हैं तथा सूर्य को ब्रrााण्ड का केन्द्र मानते हुए जो ज्योतिष की जाती है वह हीलियो सेन्ट्रिक है। वस्तुत: बाह्य ब्रrााण्ड से चन्द्रमा और पृथ्वी अलग नहीं दिखते और पृथ्वी से बहुत नजदीक होने के कारण पृथ्वी की बाह्य परिधि पर स्थित एक तिल के समान चन्द्रमा दिखते हैं, चन्द्र लग्न का यही आधार है। अत: यह ज्योतिष ल्यूनो सेन्ट्रिक कहलाई जा सकती है। चन्द्र लग्न को जन्म लग्न से थो़डा सा कम ही महत्व मिलता है और उसके आधार पर बहुत सारे योग गढ़े गए हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रrााण्ड हमारे सौरमण्डल तक ही स्थित है। यह तीनों ही अखिल विश्व के सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र मानकर निर्णय का आधार रहे हैं और तीनों को ही महत्व प्रदान करने की दृष्टि से सुदर्शन चक्र की रचना की है जिसमें जन्म, सूर्य और चन्द्र लग्न को सम्मिलित रूप से देखा जाता है।
बाह्य प्रभाव चन्द्रमा से फिल्टर होते हैं
वस्तुत: भारतीय ज्योतिष में खगोल से आने वाले सारे कॉस्मिक प्रभाव चन्द्रमा और चन्द्रमा की कक्षा से फिल्टर होकर ही आते हैं। इनके चुम्बकीय प्रभाव इतने शक्तिशाली हैं कि बाह्य अंतरिक्ष की कोई भी ऊर्जा चन्द्रमा से होकर ही पृथ्वी पर आती है। इसी भांति बाह्य अंतरिक्ष की तमाम कॉस्मिक ऊर्जा सूर्य के कारण अपनी कोणीय दूरी बदल लेती है। किरणों के विचलन को न्यूटन और आइंस्टीन ने भी माना है। इस तथ्य को भारतीय ऋषियों ने सूर्य लग्न और चन्द्र लग्न को प्रधानता देते हुए प्रकट किया है। उन्होंने गणितीय नियमों का उल्लेख न करते हुए इन लग्नों के प्रभाव को रेखांकित कर दिया। हमारे पास यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि उन्हें खगोल शास्त्र का ज्ञान बहुत अधिक था।
वैदिक ज्योतिष नक्षत्रों के आधार पर
नक्षत्र मण्डल मे स्थित प्रत्येक नक्षत्र हमारे सौरमण्डल की किसी भी इकाई से ब़डे हैं। कोणीय दूरी के आधार पर पृथ्वी से चन्द्रमा की परिधि को छूते हुए जो भी स्पर्शज्या (चन्द्रमा के दो छोरों से) अनंत आसमान में विस्तार दिए जाने पर जिन नक्षत्रों को अपनी सीमा में ले लेती हैं, वे उस नक्षत्र मण्डल के अन्तर्गत माने गए हैं। यह भी कहा जा सकता है कि एक नक्षत्र मण्डल के समन्वित प्रभाव चन्द्रमा के माध्यम से फिल्टर होकर पृथ्वी पर आते हैं तो एक तरफ तो ऋषियों ने उस नक्षत्र मण्डल में चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर दशाक्रम का निर्धारण किया तो दूसरी ओर हर नक्षत्र में चन्द्रमा के गुणावगुण विशिष्ट हो गए हैं। ऋषियों की बुद्धि की बलिहारी है कि यह रहस्य आज तक खुल नहीं पाया है कि शुक्र के नक्षत्र मे 20 वर्ष का कर्मफल तथा उससे अगले नक्षत्र मे छह वर्ष का कर्मफल तथा उससे अगले नक्षत्र में सात वर्ष का कर्मफल मिलने के पीछे सही तर्क क्या हैक् राहु और केतु एक दूसरे से 180 अंश पर हैं, उनकी गति समान है फिर भी राहु के दशा वर्ष 18और केतु के दशा वर्ष सात क्यों हैंक् खगोल शास्त्र के अद्भुत ज्ञान के बिना ऋषिगण यह व्यवस्था दे नहीं सकते थे और इसकी सत्यता का आधार यह है कि दैनिक भविष्य कथन में यह दशाकाल खरे उतरते हैं।
भारतीय ज्योतिष से बाहर के नक्षत्र
सबसे आधुनिक सुपरनोवा मृगशीर्ष नक्षत्र मण्डल में है जिसे ब्रrा ह्वदय का नाम दिया गया है। इसे नंगी आंखों से थो़डा बहुत पहचाना जा सकता है। इस नक्षत्र मण्डल की प्रकाश वर्षो मे दूरी वृषभ या मिथुन राशि के तारों की अपेक्षा बहुत अधिक है परन्तु इसमें महाविस्फोट चल रहा है। ऋषियों ने इनको पहचान लिया था परन्तु इनके बारे में अधिक विवरण नहीं दिया। चित्रा तारा या लुब्धक तारा या अभिजित तारे को लेकर ऋषियों का ज्ञान अत्यन्त स्पष्ट था। इनके बारे में अभी बहुत कुछ कहा जाना बाकी है।
इस लेख का उद्देश्य केवल यह है कि हमें अपने ऋषियों के दिए हुए खगोल ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिष को शुद्ध वैज्ञानिक धरातल पर उतारना होगा। नई पीढ़ी ज्ञान समृद्ध है और यह कार्य कर सकती है।


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Saturday, September 25, 2010

केतु


नवग्रहों में सबसे विलक्षण और सबसे रहस्यमय केतु को माना गया है। ऋषियों ने या तो केतु की बहुत अधिक आलोचना की है या बहुत अधिक प्रशंसा। जैमिनि ऋषि ने केतु को अत्यन्त शुभ फलप्रद माना है। आध्यात्म या मोक्ष को मनुष्य का परम लक्ष्य मानते हुए केतु को इसका कारक माना है। पौराणिक कथाओं में राहु को सिर व केतु को पूंछ माना गया है। अमृत चखने के बाद जब भगवान विष्णु ने शिरोच्छेद कर दिया तो राहु और केतु भी अमर हो गये और उन्हें देवयोनि प्राप्त हुई। राक्षस देवता हो गये और उन्हें ब्रrाा की सभा में बैठने का अधिकार मिल गया। अब नवग्रह मण्डल प्रतिष्ठा में राहु और केतु को अन्य देवताओं की तरह ही स्थान मिलता है और उन्हें यज्ञ भाग का अधिकार है। परन्तु राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण फल देने में अन्य ग्रहों से कुछ अलग हैं और उनकी गति के नियम भी अन्य ग्रहों से विपरीत हैं।
केतु के विषय
जैमिनि ज्योतिष में केतु को गणित, संन्यास, मानव-विज्ञान, चिकित्सा, विष चिकित्सा, शिकार, पाषाण कला, सींगों वाले पशुओं का व्यापार, दलाली, सम्पत्ति का आदान-प्रदान, ध्वजारोहण और सम्मान, अचानक घटी-घटनाएँ और सूक्ष्म वस्तुओं का स्वामी माना गया है। केतु छिद्रान्वेष्ाण में कुशल हैं और पार्थक्य के ग्रह हैं। केतु तर्क के अधिष्ठाता हैं और वाणी में शुष्कता लाते हैं।
केतु और आध्यात्म
केतु वेदान्त, दर्शन, तपस्या, ब्रrा ज्ञान, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्तियाँ, हठयोग, ध्वजारोहण एवं शारीरिक कष्टों के कारक माने गये हैं। आध्यात्मिक शक्तियों के उत्थान में केतु को श्रेष्ठ माना गया है।
जैमिनि ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म से बारहवें भाव में केतु हों और बृहस्पति हों या दोनों का परस्पर संबंध हो जाये तो केतु मोक्षकारक सिद्ध होते हैं। केतु त्याग कराते हैं या मोह भंग कराते हैं। केतु विरक्ति के कारक हैं। संसार से मोह भंग करके ईश्वर आराधना में ले जाने के लिए केतु को श्रेष्ठ माना गया है। जैमिनि ऋçष्ा ने मीन या कर्क राशि में केतु होने पर उसे मोक्ष का कारक माना है। लग्न से बारहवें भाव में केतु होने पर पाराशर ने भी उसे मोक्षकारक माना है। परन्तु पाराशर के अनुसार केतु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होना आवश्यक है।
जैमिनि ने अपने कारकांश लग्न के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने पर यह कहा है कि कारकांश लग्न से बारहवें स्थान में सूर्य और केतु हों तो व्यक्ति शिवभक्त होता है, परन्तु केवल केतु हों, तो गणेश व स्कन्ध में भक्ति होती है। स्कन्ध कार्तिकेय को कहा गया है। द्वादश भाव में केतु हों और बृहस्पति वहाँ स्थित हों या कहीं से दृष्टि कर रहे हों, तो व्यक्ति संन्यास जैसी स्थिति में आ जाता है और मोक्ष प्राçप्त की ओर बढ़ता है। द्वादश भाव के स्वामी यदि केतु और बृहस्पति से संबंध कर लें तो भी व्यक्ति मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और इस तर्क के आधार पर वह गृहस्थ संन्यास जैसी स्थिति में पहुंच जाता है।
केतु के अन्य फल
जैमिनि ऋषि के अनुसार कारकांश लग्न में यदि केतु हों, तो व्यक्ति हाथियों का व्यापार करता है और चोरवृत्ति भी हो सकती है। कोई ग्रह जब कुण्डली में सर्वाधिक अंशों पर हों, तो वह ग्रह जिस नवमांश में स्थित होता है, वह नवमांश, कारकांश कहलाता है। कारकांश लग्न में यदि केतु हों और उसे पापग्रह के कान कट सकते हैं परन्तु कारकांश लग्न में आत्मकारक ग्रह बैठा हो, वहाँ केतु भी हो और शुक्र ग्रह उन्हें देखते हों, तो मनुष्य धार्मिक क्रियाओं में निपुण होता है।
नवग्रहों में सबसे विलक्षण और सबसे रहस्यमय केतु को माना गया है। ऋषियों ने या तो केतु की बहुत अधिक आलोचना की है या बहुत अधिक प्रशंसा। जैमिनि ऋषि ने केतु को अत्यन्त शुभ फलप्रद माना है। आध्यात्म या मोक्ष को मनुष्य का परम लक्ष्य मानते हुए केतु को इसका कारक माना है।
पौराणिक कथाओं में राहु को सिर व केतु को पूंछ माना गया है। अमृत चखने के बाद जब भगवान विष्णु ने शिरोच्छेद कर दिया तो राहु और केतु भी अमर हो गये और उन्हें देवयोनि प्राप्त हुई। राक्षस देवता हो गये और उन्हें ब्रrाा की सभा में बैठने का अधिकार मिल गया। अब नवग्रह मण्डल प्रतिष्ठा में राहु और केतु को अन्य देवताओं की तरह ही स्थान मिलता है और उन्हें यज्ञ भाग का अधिकार है। परन्तु राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण फल देने में अन्य ग्रहों से कुछ अलग हैं और उनकी गति के नियम भी अन्य ग्रहों से विपरीत हैं।
केतु के विषय
जैमिनि ज्योतिष में केतु को गणित, संन्यास, मानव-विज्ञान, चिकित्सा, विष चिकित्सा, शिकार, पाषाण कला, सींगों वाले पशुओं का व्यापार, दलाली, सम्पत्ति का आदान-प्रदान, ध्वजारोहण और सम्मान, अचानक घटी-घटनाएँ और सूक्ष्म वस्तुओं का स्वामी माना गया है। केतु छिद्रान्वेष्ाण में कुशल हैं और पार्थक्य के ग्रह हैं। केतु तर्क के अधिष्ठाता हैं और वाणी में शुष्कता लाते हैं।
केतु और आध्यात्म
केतु वेदान्त, दर्शन, तपस्या, ब्रrा ज्ञान, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्तियाँ, हठयोग, ध्वजारोहण एवं शारीरिक कष्टों के कारक माने गये हैं। आध्यात्मिक शक्तियों के उत्थान में केतु को श्रेष्ठ माना गया है।
जैमिनि ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म से बारहवें भाव में केतु हों और बृहस्पति हों या दोनों का परस्पर संबंध हो जाये तो केतु मोक्षकारक सिद्ध होते हैं। केतु त्याग कराते हैं या मोह भंग कराते हैं। केतु विरक्ति के कारक हैं। संसार से मोह भंग करके ईश्वर आराधना में ले जाने के लिए केतु को श्रेष्ठ माना गया है। जैमिनि ऋçष्ा ने मीन या कर्क राशि में केतु होने पर उसे मोक्ष का कारक माना है। लग्न से बारहवें भाव में केतु होने पर पाराशर ने भी उसे मोक्षकारक माना है। परन्तु पाराशर के अनुसार केतु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होना आवश्यक है। जैमिनि ने अपने कारकांश लग्न के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने पर यह कहा है कि कारकांश लग्न से बारहवें स्थान में सूर्य और केतु हों तो व्यक्ति शिवभक्त होता है, परन्तु केवल केतु हों, तो गणेश व स्कन्ध में भक्ति होती है। स्कन्ध कार्तिकेय को कहा गया है।
द्वादश भाव में केतु हों और बृहस्पति वहाँ स्थित हों या कहीं से दृष्टि कर रहे हों, तो व्यक्ति संन्यास जैसी स्थिति में आ जाता है और मोक्ष प्राçप्त की ओर बढ़ता है। द्वादश भाव के स्वामी यदि केतु और बृहस्पति से संबंध कर लें तो भी व्यक्ति मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और इस तर्क के आधार पर वह गृहस्थ संन्यास जैसी स्थिति में पहुंच जाता है।
केतु के अन्य फल
जैमिनि ऋषि के अनुसार कारकांश लग्न में यदि केतु हों, तो व्यक्ति हाथियों का व्यापार करता है और चोरवृत्ति भी हो सकती है। कोई ग्रह जब कुण्डली में सर्वाधिक अंशों पर हों, तो वह ग्रह जिस नवमांश में स्थित होता है, वह नवमांश, कारकांश कहलाता है। कारकांश लग्न में यदि केतु हों और उसे पापग्रह देखें तो मनुष्य के कानों में रोग होता है या उसके कान कट सकते हैं परन्तु कारकांश लग्न में आत्मकारक ग्रह बैठा हो, वहाँ केतु भी हो और शुक्र ग्रह उन्हें देखते हों, तो मनुष्य धार्मिक क्रियाओं में निपुण होता है।
कारकांश लग्न में ही केतु हों और उसे बुध व शनि देख लें तो व्यक्ति नपुंसक होता है। यदि बुध और शुक्र देख लें तो एक ही बात को बार-बार दोहराता है।
केतु और मकान
कारकांश लग्न से चौथे में केतु की दृष्टि हो या केतु वहाँ बैठे हों, तो ईटों का बना हुआ मकान होता है।
केतु और गणित
पाराशर मत में भी केतु यदि दूसरे भाव में हो या दूसरे भाव के स्वामी के साथ संबंध स्थापित करते हों या चौथे भाव में केतु हों, तो गणित में निष्णात बनाते हैं। द्वितीय भाव में बैठे हुए केतु में दो तरह के दोष हो सकते हैं। या तो व्यक्ति की वाणी में दोष आ जाए और वह अटक-अटक कर बोले या उसकी बोली में क़डवाहट हो सकती है।
केतु के अन्य विषय
पाराशर ने केतु को सेना भी माना है। चर्म रोगों का कारक केतु को माना गया है। केतु को संकर जातियों का अधिपति भी माना गया है। छिद्र युक्त वस्त्र और दाँत भी केतु विषय माने गये हैं। गण्डान्त नक्षत्रों में छ: में से तीन नक्षत्र ऎसे हैं जिनके स्वामी केतु हैं। अश्विनी, मघा और मूल केतु के नक्षत्र हैं।
केतु का दशाफल
ऋषि पाराशर के अनुसार यदि केन्द्र स्थान के स्वामी के साथ केतु केन्द्र में ही स्थित हों तो अपने दशाकाल में अत्यन्त शुभ फल करते हैं। केतु यदि शुभ ग्रहों के साथ हों और केन्द्र-त्रिकोण में स्थित हों तो अत्यन्त शुभ करते हैं। परन्तु यदि केतु नीच राशि में हों (मिथुन या किसी के अनुसार वृषभ) तथा किसी अस्त ग्रह के साथ हों तो कष्टप्रद होते हैं। यदि आठवें या बारहवें भाव में हो तो ह्वदय रोग, मान-हानि, पशु धन का नाश, स्त्री-पुत्र को कष्ट तथा मन में चंचलता होती है। यदि दूसरे भाव के स्वामी या सातवें भाव के स्वामी के साथ हों तो रोगभय, कष्ट और अपने बंधुओ का विनाश होता है। केतु को दूसरे और सातवें भाव में अच्छा नहीं माना गया है। सातवें भाव में यदि केतु हों तो वैवाहिक संबंधों में कष्टकारक होते हैं और पति-पत्नी के बीच में कलह का कारण बनते हैं। यदि किसी भी महादशा में महादशानाथ से 6, 8, 12 में पापग्रह के साथ केतु हों तो बहुत कष्ट लाते हैं और अगर केन्द्र-त्रिकोण में हों तो शुभफल देते हैं।
केतु के मित्र और शत्रु
मंगल-केतु के मित्र जैसे हैं और उनकी राशियां मेष और वृश्चिक में केतु शुभफल देते हैं। कई बार यह कहा गया है कि केतु कुजवत् परिणाम देते हैं। कुज मंगल को कहा गया है। केतु सबसे शानदार परिणाम बृहस्पति की राशियों में देते हैं। मीन राशि केतु की स्वराशि मानी गई है और धनु राशि केतु की उच्चा राशि मानी गई है। इन राशियों में स्थित केतु अपनी दशा में व्यक्ति को धनी बना देते हैं और घर में तरह-तरह की समृद्धि आती है। केतु की दशा में जब व्यक्ति व्यापार करता है तो छोटे आकार की वस्तुओं से लाभ होता है। केतु को सूक्ष्मकाय कहा गया है और कदाचित् बैक्टीरिया और वायरस से केतु का संबंध जो़डा जाना उचित है। इसीलिए त्वचा रोगों में इंफेक्शन इत्यादि होते हैं तो केतु का पूजा-पाठ शुभफल दे सकता है।
केतु का दशाकाल
राहु-केतु दोनों की समान गति है और राशि चक्र में वे एक-दूसरे से 1800 पर स्थित होते हैं तथा अन्य ग्रहों से विपरीत गति होती है परन्तु आश्चर्यजनक रूप से राहु का महादशाकाल 18 वर्ष माना गया है और केतु का महादशाकाल 7 वर्ष माना गया है। इस अन्तर का कारण किसी भी भारतीय वाङग्मय में उपलब्ध नहीं है।
राहु और केतु में अंतर

राहु को संसार भवसागर में बंधन कारक माना गया है, जबकि केतु को मोक्षकारक माना गया है। राहु माया के प्रतिनिधि हैं, जबकि केतु माया के नष्ट होने में रूचि लेते हैं। राहु ने अमृत पी लिया था परन्तु अमृतकण पेट में चले जाने के कारण केतु को अमरत्व प्राप्त हुआ था इसलिए केतु अपनी महादशाकाल में इस तरह की घटनाओं को जन्म देते हैं कि व्यक्ति का रिश्ते-नातों से मोह टूट जाता है और वह ईश्वर की शरण मे चला जाता है।
ग्रहण
राहु और केतु दोनों ही सूर्य और चन्द्रग्रहण के कारण बन सकते हैं। कई बार अमावस्या को ग्रहण प़डता है और वह राहु के कारण है तो अगली पूर्णिमा को केतु के कारण चन्द्र ग्रहण हो सकता है।

वैदिक दर्शन का ब़डा चोर- स्टीफन हॉकिंग

भारतीय दर्शन से चोरी करके अपने नाम से सिद्धांत गढ़ देना पाश्चात्य वैज्ञानिकों की पुरानी आदत है। हर खगोलीय सिद्धांत उन्होंने उपनिषदों से या वैदिक धारणाओं से चुराया और अपने नाम से गढ़ दिया। भारतीय ऋषियों को तो अपनी शोध के आगे नाम न लिखने की त्याग भावना थी और इन आधुनिक वैज्ञानिकों को चोरी के माल को अपने नाम से कर लेने की आदत है। मैं कुछ ऎसे सिद्धांत, जो भारतीय परम्परा से उ़डा लिए गए उनकी चर्चा करके और उनके उस नए सिद्धांत की चर्चा करूंगा जिसमें उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया है।
1. विश्व को माया माना गया है। वेदांत के अन्तर्गत ईश्वर सृष्टि को प्रकट करने के लिए माया का सहारा लेते हैं। माया को मिथ्या माना गया है।
2. स्टीफन हॉकिंग्स ने ब्लैकहोल का सिद्धांत बताते हुए उसे वैदिक अवधारणाओं की तरफ ले जाने का प्रयास किया।
3. "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम" में उन्होंने स्पष्टत: स्वीकार किया कि बिग बैंग (खगोलीय महाविस्फोट) से ठीक पहले ब्रrााण्डीय रचना जाल की कोई न कोई योजना ईश्वर प्रदत्त थी। वे स्वीकार कर चुके थे कि ब्लैकहोल का सिद्धांत पहले से मौजूद था और 200 वष्ाü के चिंतन के बाद अमेरिकन वैज्ञानिक व्हीलर ने इसे प्रकट किया।
4. इससे पूर्व भी "शून्य" की अवधारणा भारतीय वाङग्मय में उपलब्ध थी जो पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने ग्रहण की।
5. श्रीपति ने कैपलर से सैक़डों वर्ष पूर्व कक्षाओं के दीर्घवृत्त में होने का तर्क प्रस्तुत किया था।
6. ग्रहों की अवधारणा में भारतीयों ने बहुत पहले बता दिया था कि असंख्य मंदाकिनियां खगोल मे उपलब्ध हैं और उनके अलग-अलग ब्रrाा, विष्णु, महेश हैं। गर्ग संहिता और ब्रrावैवर्त पुराण मे इस अवधारणा को खुलकर कहा गया है। अब हम जानते हैं कि असंख्य मंदाकिनियां हैं परन्तु पाश्चात्य वैज्ञानिक इनकी योजक कç़डयों को नहीं खोज पाए हैं। गर्ग संहिता बताती है कि भगवान कृष्ण ही इन सबके महायोजनाकार हैं।
7. भारतीय ज्योतिष मे मंगल को भूमि पुत्र कहा गया है। आधुनिक खगोल शास्त्री आज तक यह सिद्ध नहीं कर पाए हैं कि यह पृथ्वी से कब अलग हुआ।
8. बुध को चन्द्र तनय कहा गया है। ऎसा तब कभी हुआ होगा जब पृथ्वी और सूर्य के बीच मे चन्द्रमा एक ब़डा पिण्ड था और सूर्य के आकर्षण से वह टूट गया और बुध, शुक्र की परिक्रमा को पार करके भी सूर्य का सबसे निकटस्थ ग्रह हो गया। ऎसी घटनाएं होती रहती हैं परन्तु भारतीय ऋषियों को इसका पता था और खगोल वैज्ञानिक इस खोज को उ़डा ले गए। पौराणिक मिथक हैं कि बुध को लेकर चन्द्रमा और बृहस्पति में प्रतिद्वंद्विता थी। शास्त्र बताते हैं कि आधुनिक बुध, बृहस्पति की परिक्रमा में भी जा सकता था। इससे संकेत है कि बृहस्पति और शुक्र के गुरूत्वाकर्षण बल अत्यधिक रहे हैं और संभवत: सूर्य के टूटने की प्रक्रिया में बृहस्पति कदाचित् सबसे ब़डा पिण्ड रहा होगा। सौरमण्डल में आज भी बृहस्पति सबसे ब़डे हैं।
9. राहु-केतु की अवधारणाएं तब दी गई जबकि कोई दूरबीन नहीं थी और ग्रहों को नंगी आंखों से देखा जाना या समझ पाना बहुत मुश्किल था। फिर राहु-केतु तो अदृश्य थे व गणितीय बिन्दु थे। न केवल उनकी स्थिति का पता लगाया गया बल्कि उनकी गति का भी पता लगाया गया। परन्तु यह सिद्धांत पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने उठा लिया।
10. सूर्य के स्पैक्ट्रम को लेकर भी वैदिक ऋषि एकदम स्पष्ट थे और उन्हें सप्ताश्व या सप्तरश्मि बताया गया। द्वादश आदित्य के सिद्धांत के माध्यम से भी उन्होंने सूर्य के विभिन्न वर्गीकरण किए जो कि आगे चलकर राशियों इत्यादि के आधार बने। यह सब किसी न किसी रूप मे वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया और अपनी-अपनी शोध में इसे शामिल किया।
11. अखिल ब्रrााण्ड के कई आयामी होने और निरन्तर विस्तार की अवधारणाएं भारतीय दर्शनों मे मिलती हैं। यह बात बाद में पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अपना ली।
12. स्वयं स्टीफन हॉकिंग्स ने न्यूटन और आइंस्टीन का हवाला देकर यह स्वीकार किया कि ब्रrााण्ड के विस्तार की गति निरन्तर बढ़ रही है तथा किसी भी घटना का भूत और भविष्य दोनों होता है।
13. अनंत गति का सिद्धांत पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने बहुत बाद मे स्वीकार किया। वे हाल तक भी सूर्य रश्मियों की गति से अधिक किसी भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। मन की गति पर अब शोध चल रही हैं।
14. जीव या आत्मा या चैतन्य के सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित करने में बहुत बाधा थी। चैतन्य या आत्मा नित्य है और सत्य है तथा वह विभिन्न कायाओं में प्रवेश कर सकती है, इसका वैज्ञानिक परीक्षण असंभव था इसलिए वैज्ञानिकों को स्वीकार्य भी नहीं हुआ। आत्मा ईश्वर का ही कोई रूप है, इस महायोजना को वैज्ञानिक एकदम स्वीकार नहीं कर पाए परन्तु जैनेटिक्स को मान्यता देते हुए तथा पूर्व जन्म के कर्म तथा स्मृति जीन के माध्यम से एक जन्म से दूसरे जन्म में प्रवाहित हो जाती है, को स्वीकार करके वैज्ञानिकों ने अप्रत्यक्ष रूप से कर्मफल या पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था।
15. बौद्ध दर्शन ने और जैन दर्शन ने पुनर्जन्म के सिद्धांत की पुनप्रüतिष्ठा की। बौद्ध दर्शन तो यहां तक मानता है कि प्रति क्षण नया जन्म होता है और प्रत्येक कण अगले क्षण मे गत क्षण की स्मृतियों को अवतरित कर लेता है। यह मत जैनेटिक्स के आधार पर भी खरा उतरता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अप्रत्यक्ष रूप से कुछ बातों को स्वीकार करते हैं। हैं।
स्टीफन हॉकिंग्स की नई व्याख्या
स्टीफन हॉकिंग्स ने 1988में लिखी अपनी पुस्तक की मूल अवधारणाओं से उलट नई अवधारणाएं दे दीं। इसमें उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दिया है और यह कहा है कि विश्व की उत्पत्ति और उसके नियम स्वयंचालित हैं और इसके लिए किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। हम स्टीफन के कुछ पूर्व में स्वीकार किए गए तथ्यों का उल्लेख यहां करते हैं कि वे कैसे ईश्वरवादी थे और अब पलट गए हैं।
ब्लैक होल
स्टीफन हॉकिंग्स ने ब्लैक होल का सिद्धांत यह मानते हुए दिया कि किसी महाविस्फोट के समय एक सूक्ष्म बिन्दु जो अत्यंत उच्चातम तापमान पर था, ने विस्तार पाना शुरू किया। इसके तुरन्त कुछ क्षण बाद ही तापमान करो़डों डिग्री नीचे गिर गया। विश्व के अनन्त विस्तार में तापमान हर क्षण गिरता रहा। उनका मानना है कि जैसे-जैसे भौतिक सृष्टि का विस्तार होता है, केन्द्र बिन्दु का तापमान लगातार गिरता चला जाता है और वह एक अनन्त विस्तार के बाद पुन: महाविस्फोट जैसी स्थिति में आ जाता है। ऎसी कल्पनाओं को देते समय उन्होंने यह माना कि न्यूटन के गति के दूसरे नियम का उल्लंघन कहीं हो सकता है।
इस क्रम में ब्लैक होल अंतरिक्ष में कहीं-कहीं रह गये। यह antimatter या सृष्टि के विपरीत क्रम का एकमात्र केन्द्र बिन्दु नहीं था। ब्लैक होल के बारे में उनकी धारणा यह थी कि इसमें गया हुआ कोई भी प्रकाश का कण अंदर ही अंदर समाहित हो सकता है। ब्लैक होल के अंदर गये हर पदार्थ का उसमें अंदर ही समाहित हो जाना उसकी अंतिम नियति है। बहुत बाद में हॉकिंग्स ने माना कि ब्लैक होल जगत् का अंतिम स्थान नहीं है, बल्कि उसके परे भी अन्य जगत् या किसी जगत् का बाकी भाग हो सकता है। प्रारंभिक धारणा यही थी कि ब्लैक होल में कुछ भी पदार्थ या कण या कोई तरंग जाने के बाद वापस नहीं आ सकती। बाकी भाग हो सकता है। प्रारंभिक धारणा यही थी कि ब्लैक होल में कुछ भी पदार्थ या कण या कोई तरंग जाने के बाद वापस नहीं आ सकती।
महाविस्फोट से पूर्व की स्थिति में अत्यंत उच्च्तम तापमान के कारण कोई भी दो अणु या परमाणु आपस में जु़ड नहीं सकते, वे बहुत तीव्र गति से एक-दूसरे के पास-पास गमन करते रहेंगे। हम जिस भौतिक सृष्टि को देखते हैं उसके निर्माण की एक ही शर्त है कि तापमान कम होता चला जाये। जब बहुत ठण्डा हो जायेगा, तब पदार्थ के दो कण आपस में जु़डने की स्थिति में आ सकते हैं। यही सृष्टि के विस्तार और अस्तित्व का रहस्य है।
भारतीय ऋषि जिस एक सिद्धांत पर कार्य करते रहे थे, वह यही था कि अंतिम सत्य ऊर्जा और गति में निहित है। ऊर्जा भी अंतिम सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि ऊर्जा होने या न होने से गति कम या अधिक हो सकती है। इसीलिए भारतीय ऋषियों ने गति को अंतिम स्थान दिया। यह ईश्वर के सबसे निकटतम वाला एक तथ्य है। अगर गति अनन्त हुई तो कोई भी सूक्ष्म पदार्थ ईश्वर के अस्तित्व के लगभग पास तक पहुंच जायेगा। अगर गति अत्यन्त क्षीण हुई तो वह पदार्थ का कण भौतिक सृष्टि में बदल जायेगा। वैदिक दर्शन के हजारों वर्ष बाद न्यूटन व आईन्सटीन व बाद में हॉकिंग ने इन्हीं सब तथ्यों पर अपना मस्तिष्क खपाया और किसी भी नये निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सके।
हॉकिंग्स ने यह माना कि जितना ब्लैक होल का mass (आईन्सटीन के E=MC का M) कम होगा, उतना ही अधिक उसका तापमान होगा और उतना ही अधिक तेजी से तापमान का विकिरण होगा, नतीजे के तौर पर ब्लैक होल का mass तेजी से कम होता चला जायेगा। वह यह कल्पना नब्बे के दशक में व वजन लगभग शून्य तक पहुंच जायेगा तो वह अंतिम भयानक महाविस्फोट में बदल जायेगा जोकि करो़डों हाइड्रोजन बमों की ऊर्जा के विकिरण के रूप में प्रकट होगा। हम यह कह सकते हैं कि हॉकिंग्स अपनी कल्पनाओं के जाल में यद्यपि उलझ गये थे, पर वह सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य को तब तक ईश्वर के आधीन ही मान रहे थे। अब वह पुन: मैदान में आये हैं और अपनी नई पुस्तक "द ग्रांड डिजाइन" में उन्होंने अपनी मुख्य धारणाओं को उलटते हुए ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया है और कहा है कि प्रकृति अपने स्वयं के नियमों से ही संचालित है और उसमें ईश्वर या ऎसी किसी सत्ता का अस्तित्व नजर नहीं आता। कर चुके थे कि जब ब्लैक होल का आयतन व वजन लगभग शून्य तक पहुंच जायेगा तो वह अंतिम भयानक महाविस्फोट में बदल जायेगा जोकि करो़डों हाइड्रोजन बमों की ऊर्जा के विकिरण के रूप में प्रकट होगा। हम यह कह सकते हैं कि हॉकिंग्स अपनी कल्पनाओं के जाल में यद्यपि उलझ गये थे, पर वह सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य को तब तक ईश्वर के आधीन ही मान रहे थे। अब वह पुन: मैदान में आये हैं और अपनी नई पुस्तक "द ग्रांड डिजाइन" में उन्होंने अपनी मुख्य धारणाओं को उलटते हुए ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया है और कहा है कि प्रकृति अपने स्वयं के नियमों से ही संचालित है और उसमें ईश्वर या ऎसी किसी सत्ता का अस्तित्व नजर नहीं आता।
स्टीफन हॉकिंग्स की किसी भी कल्पना को हम ऎसे ही स्वीकार नहीं कर सकते। दुनिया में कोई भी वैज्ञानिक धरती पर दिखने वाली सामान्य-सी घटनाओं का विश्लेषण नहीं कर सकता। उदाहरण के तौर पर :-
1. ब्रrााण्ड में जितने भी प्राणी हैं, वे साँस क्यों लेते हैं और सबकी श्वसन प्रणाली एक जैसी क्यों हैक्
2. समस्त प्राणियों की रक्त संचार प्रणाली एक जैसी क्यों हैक्
3. समस्त प्राणियों का जीवन-चक्र लगभग निर्धारित क्यों हैक्
4. भौतिक सृष्टि के अतिरिक्त समस्त प्राणियों के अंदर वह चेतना किसी न किसी रूप में क्यों रहती हैक्
5. जगत् के हर कण के अंदर एक स्मृति समूह होता है, वह अनन्त काल तक जारी रह सकता है, चाहे वह कण कितने ही पुनर्जन्म ले ले। इन स्मृतियों का भौतिक अस्तित्व से क्या संबंध हैक्
6. पुनर्जन्म की घटनायें पृथ्वी पर कहीं न कहीं मौजूद हैं। वे गत शरीर की स्मृतियों को साक्षात् करती हैं। स्टीफन हॉकिंग्स का कोई भी नियम इन घटनाओं की पुष्टि नहीं कर पायेगा।
7. गति, ऊर्जा व गुरूत्वाकर्षण बल अपने आप कैसे उत्पन्न हो गयेक् बिना कारण के कोई घटना कैसे जन्म ले सकती हैक्
8. ऊर्जा क्षय क्यों नहीं होती हैक् सृष्टि को रूप बदल-बदल कर संचालित क्यों करती हैक्
9. कोई महान योजनाकार ही इस महान सृष्टि के नियमों का संचालक हो सकता है। वैदिक ऋषियों ने ऋत् नाम की एक व्यवस्था का उल्लेख किया है, जो ईश्वरीय सत्ता का संचालन पक्ष है।
10. इन सब तर्को का उत्तर किसी के पास नहीं है, ईश्वर को किसी ने नहीं देखा। ईश्वर को तर्क या गणित से ही सिद्ध किया गया है और हॉकिंग्स जैसे वैज्ञानिक गणित का भी सहारा नहीं ले रहे हैं। मानसिक कल्पनाओं व तर्क के सहारे ईश्वर के अस्तित्व को नकारने मे लगे हैं तथा माया के अस्तित्व को अपने कल्पना लोक के माध्यम से सिद्ध करने में लगे हैं। हम हॉकिंग्स के दिमाग के दिवालियेपन का खण्डन करते हैं। हॉकिंग जैसे वैज्ञानिकों ने सबकुछ वैदिक दर्शन से चुराया है। उनको अपनी कल्पनाओं के तर्क जाल के फ्रेम में गढ़ा है और दुनिया के सामने मनमाने ढंग से परोस दिया है। अगर हॉकिंग्स सृष्टि के रहस्य को समझ गये हैं तो अपनी आयु एक लाख वर्ष क्यों नहीं बढ़ा लेते। अपनी शारीरिक क्षमताओं को क्यों नहीं बढ़ा लेते। चार्वाक ने भी नास्तिकवाद का प्रतिपादन करके समस्त भारतीय दार्शनिकों को इस हद तक झकझोर दिया था कि कोई भी दार्शनिक अपनी धारणाओं का प्रतिपादन करने से पूर्व चार्वाक के नास्तिकवाद का खण्डन पहले करता है और अपने दर्शन का मण्डन बाद में करता है। हॉकिंग्स चार्वाक से कहीं अधिक प्रतिभाशाली वैज्ञानिक हैं। वे अपनी पुस्तक "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम" के माध्यम से संसार को समझा पाये थे कि सृष्टि का संचालन कोई महान योजनाकार ही कर रहा है। सृष्टि के रहस्यों को समझने की मानवीय सीमाओं से परे जाकर भी ईश्वर की माया को कोई समझ नहीं पाया है। उन्होंने मानव मस्तिष्क की सीमाओं से पार जाकर, जब ईश्वर के रहस्य तक नहीं पहुंच पाये तो उसे मानने से ही इंकार कर दिया है। मेरा मानना है कि हॉकिंग्स अपने शेष जीवन काल में ही सृष्टि और ईश्वर के परस्पर संबंध को मान्यता दे देंगे। अन्यथा कोई और वैज्ञानिक आयेगा और इस तथ्य की पुष्टि अपने किसी शोध के माध्यम से भविष्य में करेगा।
भारतीय दर्शन सृष्टि के त्रिआयामी होने के तथ्य को कभी भी मान्यता नहीं देते। चार या पाँच आयाम की चर्चा तो खुले आम होती है। जब ईश्वर या जीव को या आत्मा को सर्वव्याप्त, अनिर्वचनीय तथा निर्गुण माना है तो उसके अनन्त आयाम होना तर्क से सिद्ध होता है। शून्य से सृष्टि उत्पन्न हुई है और पुन: शून्य में विलीन हो जायेगी। ऎसा पुन:-पुन: होगा। हॉकिंग्स जैसे वैज्ञानिक इस तथ्य को कभी का स्वीकार कर गये हैं, परन्तु उस महाशून्य की परिभाषा कभी भी नहीं दे पाये हैं। हॉकिंग्स यह कभी भी नहीं कह पाये कि बहुत सारे ब्लैक होल मिलकर किसी दिन एक ही ब्लैक होल बन जायेंगे और वह किसी दिन महाशून्य में बदल जायेगा। पर हम भारतीय वाङग्मय में इस बात के प्रमाण पाते हैं कि ऎसा दिन महाप्रलय का दिन होता है। उस दिन ईश्वर सृष्टि के प्रलय, विलय और प्रारंभ का सूत्रपात करते हैं।

Saturday, August 21, 2010

हमारे गणेश जी

पार्वती ने माघ शुक्ल त्रयोदशी से प्रारंभ करके एक वर्ष के लिए पुन्यक नामक व्रत किया और स्वयं भगवान कृष्ण ने उनसे गणेश के रूप मे जन्म लिया। इन गणेशजी को देवताओं से पहले पूजा का वरदान मिला। इसके पश्चात् से ही अब किसी भी पूजा में पहले गणेशजी की पूजा होती है और फिर अन्य देवताओं की पूजा होती है।
गणेशजी का स्वरूप: गणेश के हाथी जैसे मुख को लेकर दो किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। सबसे ज्यादा प्रसिद्ध तो यह है कि माता के आदेश से गणेशजी उनके स्नान के समय बाहर द्वार पर रक्षा कर रहे थे कि उस समय भगवान शिव वहां आए और अंदर जाने का प्रयास किया। गणेश के रोकने पर भगवान क्रुद्ध हो गए और उन्होंने उसकी गर्दन उ़डा दी। उनका सिर सीधे कृष्ण लोक को चला गया। बाद में पार्वती के नाराज होने पर उन्होंने दूसरा सिर लगाने की सोची, फलस्वरूप एक हाथी का सिर आया और उसे गणेशजी के लगा दिया गया। बाद में भगवान ने उस हाथी को भी दूसरा सिर लगाकर उसका कल्याण किया और उसे उत्तम लोक प्रदान किया।
ब़डे कान, नाक, छोटी आंखें, ब़डी तोंद और हाथी का सिर। ब़डे कान से तात्पर्य अधिक श्रवण शक्ति, छोटी आंखों का मतलब भविष्य दृष्टि, ब़डी तोंद का प्रतीकात्मक तात्पर्य हर रहस्य तथ्य और अनुभव को पचा जाना और सूंड का अर्थ दूर से भी किसी व्यक्ति को पहचान लेना। गणेश की असाधारण शक्तियां अद्भुत हैं और अद्वितीय हैं।
किस चीज के देवता हैं ? ज्ञान और प्रतिभा के स्वामी हैं गणेशजी। प्रथम पूज्य हैं। विƒ विनाशक हैं, किसी भी कार्य को सम्पन्न करने से पूर्व अगर उनकी पूजा की जाए तो बाधाएं नहीं आने देते। बुद्धि और चातुर्य में उनका कोई सानी नहीं है।
गणेशजी और महाभारत- महाभारत लिखने के समय यह सवाल आया कि इतनी महान रचना को कौन लिखेगाक् भगवान वेदव्यास की गति बहुत तेज थी, उन्हें केवल गणेश पर ही भरोसा था परन्तु गणेश भी एक शर्त पर ही राजी हुए कि बोलते-बोलते बीच मे रूकेंगे नहीं, अगर बीच मे रूकेंगे तो यह महाकाव्य कभी पूरा ही नहीं होगा। बाद में वेदव्यास ने एक चतुराई चली कि गणेशजी से उन्होंने आग्रह किया कि बिना समझे वह लिखेंगे नहीं। जैसे ही व्यासजी को कुछ परेशानी हुई उन्होंने कोई कोई श्लोक ऎसा बोला जिसको कि समझने में गणेशजी को समय लगता। और इस तरह से महाभारत नाम का महाकाव्य पूरा हुआ।
मूषक उनका वाहन- इन्द्र के साथ गंधर्व नाम का क्रौंच था जो कि एक बहुत अच्छा गायक था। वो एक दिन एक संत पर हंसा। संत ने उसे श्राप दिया कि तुम अगले जन्म में मूषक के रूप मे जन्म लोगे। मूषक उस समय ऋषि पाराशर के निवास के स्थान के पास जाकर गिरा। वहां पर गणेश के एक अवतार गजानन रह रहे थे। मूषक वहां आसपास रहने वालों को तंग करता था। ऋषि पाराशर ने गजानन से कहा कि ""इस समस्या से छुटकारा दिलाओ। गजानन ने मूषक रूप में क्रौंच को पक़ड लिया और कहा कि ""मुझे तुमसे कुछ भी नहीं चाहिए पर मैं तुम्हारी सवारी करूंगा और जब मेरी इच्छा हो, तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।"" गणेश तुरन्त मूषक पर आसीन हो गए और अपना आकार तो नहीं घटाया पर वजन घटा लिया और इस तरह से उन्हें उनका वाहन मिल गया।
तुलसी का श्राप- तुलसी धर्मराज की पुत्री थीं। एक बार वो भगवान नारायण के ध्यान में घूम रही थीं कि गंगा नदी के किनारे अत्यन्त सुगंध वाला पुष्प, पल्लवयुक्त एक आश्रम देखा। गणेशजी अपने यौवन मे थे और पीले वस्त्रों मे भगवान कृष्ण की आराधना कर रहे थे। तुलसी उनसे आकर्षित हुईं और उन्हें विवाह का प्रस्ताव दिया। गणेशजी ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि उन्हें विवाह की इच्छा नहीं है। तुलसी नाराज हुई और उन्होंने गणेश को श्राप दिया कि आप अवश्य विवाह करेंगे। इस पर गणेशजी ने भी उन्हें श्राप दिया कि आप भी अवश्य विवाह करेंगी परन्तु असुर से करेंगी और उसके बाद एक वृक्ष के रूप में जन्म लेंगी। तुलसी को जब अपनी गलती समझ में आई तो उन्होंने दया की याचना की। तब भगवान ने द्रवित होकर कहा कि - ""तुम सभी वृक्षों की श्रेष्ठ सुगंधी को धारण करोगी। देवता आपकी सुगंध से प्रसन्न होंगे। भगवान विष्णु आपकी पत्तियों से पूजे जाने पर विशेष्ा प्रसन्न होंगे परन्तु आपकी पत्तियों से की हुई पूजा को मैं स्वीकार नहीं करूंगा।"" इसके बाद गणेशजी बद्रीकाश्रम चले गए।
क्या गणेशजी अकेले हैंक्? दक्षिण भारत में मान्यता है कि गणेशजी ब्रrाचारी हैं। उसका कारण एक मिथक बताया जाता है कि गणेशजी की माता पार्वती एक सम्पूर्ण और सबसे सुन्दर स्त्री थीं और माता से उन्होंने कहा कि आपके समान ही किसी को लाएंगे तो ही विवाह करेंगे।
गणेशजी के अवतार - महोदकट विनायक- कृति युग में इस अवतार की दस भुजाएं थीं तथा देवान्तक तथा नरान्तक इत्यादि दैत्यों का विनाश किया। माता अदिति ने इन राक्षसों के संहार के लिए जब कामना की तो भगवान गणेश ने विनायक के रूप में माता अदिति से जन्म लिया। धूम्राक्ष, जृंभा, अंधक इत्यादि अन्य राक्षसों का भी इन्होंने ही विनाश किया। गणेश पुराण के अनुसार इस युद्ध में इनका एक दांत चला गया। यद्यपि दांत को लेकर और भी कई कथाएं आती हैं।
मयूरेश्वर- त्रेता युग मे भगवान गणेश ने मयूरेश्वर के नाम से अवतार लिया। सिंधु नामक दैत्य का इन्होंने संहार किया। सिंधु ने स्वर्ग पर भी कब्जा कर लिया और पाताल में रहने लगा। स्वयं माता पार्वती ने भगवान शंकर से दिए हुए एकाक्षरी गणेश मंत्र "गं" का जप किया तो भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को मयूरेश्वर ने अवतार लिया। उन्होंने उस समय के सभी दैत्यों का विनाश किया।
गजानन- द्वापर युग मे ब्रrााजी की निद्रा के समय जंभाई लेने से सिंदूर नामक महाघोर पुरूष उत्पन्न हुआ। उन्होंने ब्रrाा को ही बाहुपाश मे भर लेना चाहा, तब ब्रrाा ने उन्हें असुर योनि में जाने का श्राप दिया। गणेशजी ने इसका विनाश किया।
धूम्रकेतु - कलियुग मे धूम्रकेतु के अवतार की कल्पना की गई है। ऎसा माना जाता है कि कलि के अंत में जब वर्णाश्रम की मर्यादा नष्ट हो जाएगी तो वह पुन: अवतार लेंगे। गणेशजी के अन्य अवतारों मे सिंह की सवारी वाले वक्रतुण्ड ने मत्सरासुर का नाश किया, मूषक वाहन एकदंत ने मदासुर का नाश किया। महोदर भी मूषक वाहन पर आसीन हैं और मोहासुर का इन्होंने विनाश किया। लम्बोदर ने क्रोधासुर का नाश किया। विकट ने कामासुर का नाश किया। विƒनराज ने ममासुर का नाश किया। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर का विनाश किया।
मोदक- kपुराण में लिखा है कि पार्वती ने कुमार और गणेश को जन्म दिया। दोनों ने माता से मोदक मांगा। पार्वती के पास अमृत निर्मित एक दिव्य मोदक था। जिसको देने के लिए उन्होंने शर्त लगाई। दोनों मे जो भी धर्माचरण में श्रेष्ठता प्राप्त करके पूरे विश्व का भ्रमण करके, पहले आएगा उसी को शास्त्रों का मर्मज्ञ, सब तंत्रों के प्रवीण लेखक, चित्रकार, विद्वान, ज्ञान-विज्ञान का तत्वज्ञ और सर्वज्ञ कर देने वाले उस मोदक को दूंगी। स्कंध तो मयूर पर सवार होकर विश्व भ्रमण पर निकल प़डे परन्तु गणेशजी ने केवल माता-पिता की परिक्रमा कर ली, इस पर शिवजी ने भी मोदक के साथ ही उन्हें सर्वप्रथम पूजे जाने का आशीर्वाद दिया।
गणेशजी का विवाह- शिवपुराण मे गणेशजी के विवाह का उल्लेख मिलता है। हम जानते हैं कि गणपति की मूर्ति के दोनों ओर सिद्धि और बुद्धि की स्थापना भी मिलती है। बुद्धि विश्वात्मिका है, ब्रrामयी है और सिद्धि उसको विमोहित करने वाली है। गणेशजी का इनसे विवाह हुआ था। तुलसी के श्राप से गणेशजी को विवाह करना प़डा। रूद्र संहिता के कुमार खंड में इस विवाह का वर्णन मिलता है। विश्व भ्रमण का आदेश देते समय शिवजी ने दोनों पुत्रों से कहा था, जो भी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौटेगा उसका विवाह पहले होगा। गणेशजी ने माता-पिता की सात परिक्रमा करके पहले विवाह का भी अधिकार प्राप्त कर लिया। बाद मे सिद्धि से क्षेम और बुद्धि से लाभ नाम के पुत्र हुए।
गणेशजी का विग्रह- रूपमंडन ग्रंथ में गणेशजी का विग्रह कैसे स्थापित हो, उसका वर्णन मिलता है। उनके बाएं ओर गजकर्ण, दाएं सिद्धि, उत्तर में गौरी, पूर्व में बुद्धि, दक्षिण पूर्व में बाल चंद्रमा, दक्षिण में सरस्वती, पश्चिम में कुबेर और पीछे की तरफ धूम्रक के विग्रहों की स्थापना होनी चाहिए। श्रीगणेश के आठों द्वारपाल वामनाकार हैं। उनका रत्न सिंहासन है जो कि इंद्र के द्वारा दिया गया है। रत्न छत्र की प्राप्ति वरूण देवता से हुई।
गणेशजी के बारह नाम- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विƒननाशन, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र और गजानन।
जन्म से पहले पूजा- कुछ लोग शंका करते हैं कि गणेश शिवजी के पुत्र हैं फिर भी शंकर के विवाह में उनका पूजन कैसे हुआक् वास्तव में गणेश किसी के पुत्र नहीं हैं, वे अज, अनादि और अनंत हैं। इन्होंने शिवजी के यहां गणपति के रूप में अवतार लिया। अत: उन्हें शिव विवाह में पूजा गया।
विƒ गण- असुर, ब्राrाण और देवताओं को सताते थे। गणेशजी को यह वरदान था कि जो उनकी पूजा नहीं करेंगे, उन्हें वे विƒनों द्वारा बाधा पहुंचाएंगे। गणेशजी ने दैत्यों के धर्मकार्य में विƒ पहुंचाना प्रारंभ कर दिया जिससे कि उनकी सफलता में बाधा आने लगी। जो आदि गणेश हैं, उन्हें ही कृष्ण माना गया है।
एकदंत- कहते हैं कि भगवान शिव के सिर काटने पर देवताओं ने जिस हाथी को तलाश किया और उसका सिर काटकर गणेशजी के लगाने के लिए लाए, वह एकदंत ही था। मुद्गल पुराण में एक माया का प्रतीक है और दंत माया चालक सत्ता का प्रतीक है।
षोडश मातृका में गणेश- प्रत्येक अनुष्ठान में गणपति, पंचदेव, षोडश मातृकाएं, नवग्रह एवं वरूण इत्यादि की स्थापनाएं आवश्यक मानी जाती हैं। षोडश मातृकाओं में भी एक कोण पर गणेश की स्थापना की जाती है। वैसे भी गणेश को पंचलोकपालों में प्रधानता है।
कलाओं में गणेशजी- गणेशजी मूर्तिकारों और चित्रकारों के बीच मे अत्यन्त प्रसिद्ध हैं और उनके इतनी तरह के विग्रह बनाए गए हैं कि एक अलग ही कला क्षेत्र विकसित हो गया है। गणेशजी का प्रसार अत्यधिक हुआ है और वे पूरे विश्व में किसी किसी रूप मे कहीं कहीं उपस्थित मिलते हैं। जनमानस में भी गणेशजी इस तरह से छाए हुए हैं कि प्रत्येक कार्य को सफल बनाने के लिए पहले उनका पूजन किया जाता है और बाद में उनसे विƒनों के नाश की कामना की जाती है। अगर किसी का विवाह हो तो पहला कार्ड गणेशजी को अर्पित किया जाता है। किसी को कुछ लिखना हो तो कागज पर सबसे पहले ú गणेशाय नम: लिखा जाता है।
विदेशों में गणेशजी- कम्बोडिया में भगवान को केनेस कहते हैं। नेपाल में हैरम्ब और विनायक के नाम से गणपति की मूर्तियां हैं। जावा में नदियों के घाटों और अन्य भय के स्थानों पर अनेक गणेश प्रतिमाएं हैं। इण्डोनेशिया में तो हर द्वार पर गणेशजी मिलेंगे चाहे वह किसी भी धर्म का मानने वाला इण्डोनेशिया में गणपति के आधार पर नाम रखने को शुभ माना जाता है।