नवग्रहों में सबसे विलक्षण और सबसे रहस्यमय केतु को माना गया है। ऋषियों ने या तो केतु की बहुत अधिक आलोचना की है या बहुत अधिक प्रशंसा। जैमिनि ऋषि ने केतु को अत्यन्त शुभ फलप्रद माना है। आध्यात्म या मोक्ष को मनुष्य का परम लक्ष्य मानते हुए केतु को इसका कारक माना है। पौराणिक कथाओं में राहु को सिर व केतु को पूंछ माना गया है। अमृत चखने के बाद जब भगवान विष्णु ने शिरोच्छेद कर दिया तो राहु और केतु भी अमर हो गये और उन्हें देवयोनि प्राप्त हुई। राक्षस देवता हो गये और उन्हें ब्रrाा की सभा में बैठने का अधिकार मिल गया। अब नवग्रह मण्डल प्रतिष्ठा में राहु और केतु को अन्य देवताओं की तरह ही स्थान मिलता है और उन्हें यज्ञ भाग का अधिकार है। परन्तु राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण फल देने में अन्य ग्रहों से कुछ अलग हैं और उनकी गति के नियम भी अन्य ग्रहों से विपरीत हैं।
केतु के विषय
जैमिनि ज्योतिष में केतु को गणित, संन्यास, मानव-विज्ञान, चिकित्सा, विष चिकित्सा, शिकार, पाषाण कला, सींगों वाले पशुओं का व्यापार, दलाली, सम्पत्ति का आदान-प्रदान, ध्वजारोहण और सम्मान, अचानक घटी-घटनाएँ और सूक्ष्म वस्तुओं का स्वामी माना गया है। केतु छिद्रान्वेष्ाण में कुशल हैं और पार्थक्य के ग्रह हैं। केतु तर्क के अधिष्ठाता हैं और वाणी में शुष्कता लाते हैं।
केतु और आध्यात्म
केतु वेदान्त, दर्शन, तपस्या, ब्रrा ज्ञान, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्तियाँ, हठयोग, ध्वजारोहण एवं शारीरिक कष्टों के कारक माने गये हैं। आध्यात्मिक शक्तियों के उत्थान में केतु को श्रेष्ठ माना गया है।
जैमिनि ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म से बारहवें भाव में केतु हों और बृहस्पति हों या दोनों का परस्पर संबंध हो जाये तो केतु मोक्षकारक सिद्ध होते हैं। केतु त्याग कराते हैं या मोह भंग कराते हैं। केतु विरक्ति के कारक हैं। संसार से मोह भंग करके ईश्वर आराधना में ले जाने के लिए केतु को श्रेष्ठ माना गया है। जैमिनि ऋçष्ा ने मीन या कर्क राशि में केतु होने पर उसे मोक्ष का कारक माना है। लग्न से बारहवें भाव में केतु होने पर पाराशर ने भी उसे मोक्षकारक माना है। परन्तु पाराशर के अनुसार केतु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होना आवश्यक है।
जैमिनि ने अपने कारकांश लग्न के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने पर यह कहा है कि कारकांश लग्न से बारहवें स्थान में सूर्य और केतु हों तो व्यक्ति शिवभक्त होता है, परन्तु केवल केतु हों, तो गणेश व स्कन्ध में भक्ति होती है। स्कन्ध कार्तिकेय को कहा गया है। द्वादश भाव में केतु हों और बृहस्पति वहाँ स्थित हों या कहीं से दृष्टि कर रहे हों, तो व्यक्ति संन्यास जैसी स्थिति में आ जाता है और मोक्ष प्राçप्त की ओर बढ़ता है। द्वादश भाव के स्वामी यदि केतु और बृहस्पति से संबंध कर लें तो भी व्यक्ति मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और इस तर्क के आधार पर वह गृहस्थ संन्यास जैसी स्थिति में पहुंच जाता है।
केतु के अन्य फल
जैमिनि ऋषि के अनुसार कारकांश लग्न में यदि केतु हों, तो व्यक्ति हाथियों का व्यापार करता है और चोरवृत्ति भी हो सकती है। कोई ग्रह जब कुण्डली में सर्वाधिक अंशों पर हों, तो वह ग्रह जिस नवमांश में स्थित होता है, वह नवमांश, कारकांश कहलाता है। कारकांश लग्न में यदि केतु हों और उसे पापग्रह के कान कट सकते हैं परन्तु कारकांश लग्न में आत्मकारक ग्रह बैठा हो, वहाँ केतु भी हो और शुक्र ग्रह उन्हें देखते हों, तो मनुष्य धार्मिक क्रियाओं में निपुण होता है।
नवग्रहों में सबसे विलक्षण और सबसे रहस्यमय केतु को माना गया है। ऋषियों ने या तो केतु की बहुत अधिक आलोचना की है या बहुत अधिक प्रशंसा। जैमिनि ऋषि ने केतु को अत्यन्त शुभ फलप्रद माना है। आध्यात्म या मोक्ष को मनुष्य का परम लक्ष्य मानते हुए केतु को इसका कारक माना है।
पौराणिक कथाओं में राहु को सिर व केतु को पूंछ माना गया है। अमृत चखने के बाद जब भगवान विष्णु ने शिरोच्छेद कर दिया तो राहु और केतु भी अमर हो गये और उन्हें देवयोनि प्राप्त हुई। राक्षस देवता हो गये और उन्हें ब्रrाा की सभा में बैठने का अधिकार मिल गया। अब नवग्रह मण्डल प्रतिष्ठा में राहु और केतु को अन्य देवताओं की तरह ही स्थान मिलता है और उन्हें यज्ञ भाग का अधिकार है। परन्तु राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण फल देने में अन्य ग्रहों से कुछ अलग हैं और उनकी गति के नियम भी अन्य ग्रहों से विपरीत हैं।
केतु के विषय
जैमिनि ज्योतिष में केतु को गणित, संन्यास, मानव-विज्ञान, चिकित्सा, विष चिकित्सा, शिकार, पाषाण कला, सींगों वाले पशुओं का व्यापार, दलाली, सम्पत्ति का आदान-प्रदान, ध्वजारोहण और सम्मान, अचानक घटी-घटनाएँ और सूक्ष्म वस्तुओं का स्वामी माना गया है। केतु छिद्रान्वेष्ाण में कुशल हैं और पार्थक्य के ग्रह हैं। केतु तर्क के अधिष्ठाता हैं और वाणी में शुष्कता लाते हैं।
केतु और आध्यात्म
केतु वेदान्त, दर्शन, तपस्या, ब्रrा ज्ञान, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्तियाँ, हठयोग, ध्वजारोहण एवं शारीरिक कष्टों के कारक माने गये हैं। आध्यात्मिक शक्तियों के उत्थान में केतु को श्रेष्ठ माना गया है।
जैमिनि ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म से बारहवें भाव में केतु हों और बृहस्पति हों या दोनों का परस्पर संबंध हो जाये तो केतु मोक्षकारक सिद्ध होते हैं। केतु त्याग कराते हैं या मोह भंग कराते हैं। केतु विरक्ति के कारक हैं। संसार से मोह भंग करके ईश्वर आराधना में ले जाने के लिए केतु को श्रेष्ठ माना गया है। जैमिनि ऋçष्ा ने मीन या कर्क राशि में केतु होने पर उसे मोक्ष का कारक माना है। लग्न से बारहवें भाव में केतु होने पर पाराशर ने भी उसे मोक्षकारक माना है। परन्तु पाराशर के अनुसार केतु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होना आवश्यक है। जैमिनि ने अपने कारकांश लग्न के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने पर यह कहा है कि कारकांश लग्न से बारहवें स्थान में सूर्य और केतु हों तो व्यक्ति शिवभक्त होता है, परन्तु केवल केतु हों, तो गणेश व स्कन्ध में भक्ति होती है। स्कन्ध कार्तिकेय को कहा गया है।
द्वादश भाव में केतु हों और बृहस्पति वहाँ स्थित हों या कहीं से दृष्टि कर रहे हों, तो व्यक्ति संन्यास जैसी स्थिति में आ जाता है और मोक्ष प्राçप्त की ओर बढ़ता है। द्वादश भाव के स्वामी यदि केतु और बृहस्पति से संबंध कर लें तो भी व्यक्ति मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और इस तर्क के आधार पर वह गृहस्थ संन्यास जैसी स्थिति में पहुंच जाता है।
केतु के अन्य फल
जैमिनि ऋषि के अनुसार कारकांश लग्न में यदि केतु हों, तो व्यक्ति हाथियों का व्यापार करता है और चोरवृत्ति भी हो सकती है। कोई ग्रह जब कुण्डली में सर्वाधिक अंशों पर हों, तो वह ग्रह जिस नवमांश में स्थित होता है, वह नवमांश, कारकांश कहलाता है। कारकांश लग्न में यदि केतु हों और उसे पापग्रह देखें तो मनुष्य के कानों में रोग होता है या उसके कान कट सकते हैं परन्तु कारकांश लग्न में आत्मकारक ग्रह बैठा हो, वहाँ केतु भी हो और शुक्र ग्रह उन्हें देखते हों, तो मनुष्य धार्मिक क्रियाओं में निपुण होता है।
कारकांश लग्न में ही केतु हों और उसे बुध व शनि देख लें तो व्यक्ति नपुंसक होता है। यदि बुध और शुक्र देख लें तो एक ही बात को बार-बार दोहराता है।
केतु और मकान
कारकांश लग्न से चौथे में केतु की दृष्टि हो या केतु वहाँ बैठे हों, तो ईटों का बना हुआ मकान होता है।
केतु और गणित
पाराशर मत में भी केतु यदि दूसरे भाव में हो या दूसरे भाव के स्वामी के साथ संबंध स्थापित करते हों या चौथे भाव में केतु हों, तो गणित में निष्णात बनाते हैं। द्वितीय भाव में बैठे हुए केतु में दो तरह के दोष हो सकते हैं। या तो व्यक्ति की वाणी में दोष आ जाए और वह अटक-अटक कर बोले या उसकी बोली में क़डवाहट हो सकती है।
केतु के अन्य विषय
पाराशर ने केतु को सेना भी माना है। चर्म रोगों का कारक केतु को माना गया है। केतु को संकर जातियों का अधिपति भी माना गया है। छिद्र युक्त वस्त्र और दाँत भी केतु विषय माने गये हैं। गण्डान्त नक्षत्रों में छ: में से तीन नक्षत्र ऎसे हैं जिनके स्वामी केतु हैं। अश्विनी, मघा और मूल केतु के नक्षत्र हैं।
केतु का दशाफल
ऋषि पाराशर के अनुसार यदि केन्द्र स्थान के स्वामी के साथ केतु केन्द्र में ही स्थित हों तो अपने दशाकाल में अत्यन्त शुभ फल करते हैं। केतु यदि शुभ ग्रहों के साथ हों और केन्द्र-त्रिकोण में स्थित हों तो अत्यन्त शुभ करते हैं। परन्तु यदि केतु नीच राशि में हों (मिथुन या किसी के अनुसार वृषभ) तथा किसी अस्त ग्रह के साथ हों तो कष्टप्रद होते हैं। यदि आठवें या बारहवें भाव में हो तो ह्वदय रोग, मान-हानि, पशु धन का नाश, स्त्री-पुत्र को कष्ट तथा मन में चंचलता होती है। यदि दूसरे भाव के स्वामी या सातवें भाव के स्वामी के साथ हों तो रोगभय, कष्ट और अपने बंधुओ का विनाश होता है। केतु को दूसरे और सातवें भाव में अच्छा नहीं माना गया है। सातवें भाव में यदि केतु हों तो वैवाहिक संबंधों में कष्टकारक होते हैं और पति-पत्नी के बीच में कलह का कारण बनते हैं। यदि किसी भी महादशा में महादशानाथ से 6, 8, 12 में पापग्रह के साथ केतु हों तो बहुत कष्ट लाते हैं और अगर केन्द्र-त्रिकोण में हों तो शुभफल देते हैं।
केतु के मित्र और शत्रु
मंगल-केतु के मित्र जैसे हैं और उनकी राशियां मेष और वृश्चिक में केतु शुभफल देते हैं। कई बार यह कहा गया है कि केतु कुजवत् परिणाम देते हैं। कुज मंगल को कहा गया है। केतु सबसे शानदार परिणाम बृहस्पति की राशियों में देते हैं। मीन राशि केतु की स्वराशि मानी गई है और धनु राशि केतु की उच्चा राशि मानी गई है। इन राशियों में स्थित केतु अपनी दशा में व्यक्ति को धनी बना देते हैं और घर में तरह-तरह की समृद्धि आती है। केतु की दशा में जब व्यक्ति व्यापार करता है तो छोटे आकार की वस्तुओं से लाभ होता है। केतु को सूक्ष्मकाय कहा गया है और कदाचित् बैक्टीरिया और वायरस से केतु का संबंध जो़डा जाना उचित है। इसीलिए त्वचा रोगों में इंफेक्शन इत्यादि होते हैं तो केतु का पूजा-पाठ शुभफल दे सकता है।
केतु का दशाकाल
राहु-केतु दोनों की समान गति है और राशि चक्र में वे एक-दूसरे से 1800 पर स्थित होते हैं तथा अन्य ग्रहों से विपरीत गति होती है परन्तु आश्चर्यजनक रूप से राहु का महादशाकाल 18 वर्ष माना गया है और केतु का महादशाकाल 7 वर्ष माना गया है। इस अन्तर का कारण किसी भी भारतीय वाङग्मय में उपलब्ध नहीं है।
राहु और केतु में अंतर
राहु को संसार भवसागर में बंधन कारक माना गया है, जबकि केतु को मोक्षकारक माना गया है। राहु माया के प्रतिनिधि हैं, जबकि केतु माया के नष्ट होने में रूचि लेते हैं। राहु ने अमृत पी लिया था परन्तु अमृतकण पेट में चले जाने के कारण केतु को अमरत्व प्राप्त हुआ था इसलिए केतु अपनी महादशाकाल में इस तरह की घटनाओं को जन्म देते हैं कि व्यक्ति का रिश्ते-नातों से मोह टूट जाता है और वह ईश्वर की शरण मे चला जाता है।
ग्रहण
राहु और केतु दोनों ही सूर्य और चन्द्रग्रहण के कारण बन सकते हैं। कई बार अमावस्या को ग्रहण प़डता है और वह राहु के कारण है तो अगली पूर्णिमा को केतु के कारण चन्द्र ग्रहण हो सकता है।
केतु के विषय
जैमिनि ज्योतिष में केतु को गणित, संन्यास, मानव-विज्ञान, चिकित्सा, विष चिकित्सा, शिकार, पाषाण कला, सींगों वाले पशुओं का व्यापार, दलाली, सम्पत्ति का आदान-प्रदान, ध्वजारोहण और सम्मान, अचानक घटी-घटनाएँ और सूक्ष्म वस्तुओं का स्वामी माना गया है। केतु छिद्रान्वेष्ाण में कुशल हैं और पार्थक्य के ग्रह हैं। केतु तर्क के अधिष्ठाता हैं और वाणी में शुष्कता लाते हैं।
केतु और आध्यात्म
केतु वेदान्त, दर्शन, तपस्या, ब्रrा ज्ञान, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्तियाँ, हठयोग, ध्वजारोहण एवं शारीरिक कष्टों के कारक माने गये हैं। आध्यात्मिक शक्तियों के उत्थान में केतु को श्रेष्ठ माना गया है।
जैमिनि ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म से बारहवें भाव में केतु हों और बृहस्पति हों या दोनों का परस्पर संबंध हो जाये तो केतु मोक्षकारक सिद्ध होते हैं। केतु त्याग कराते हैं या मोह भंग कराते हैं। केतु विरक्ति के कारक हैं। संसार से मोह भंग करके ईश्वर आराधना में ले जाने के लिए केतु को श्रेष्ठ माना गया है। जैमिनि ऋçष्ा ने मीन या कर्क राशि में केतु होने पर उसे मोक्ष का कारक माना है। लग्न से बारहवें भाव में केतु होने पर पाराशर ने भी उसे मोक्षकारक माना है। परन्तु पाराशर के अनुसार केतु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होना आवश्यक है।
जैमिनि ने अपने कारकांश लग्न के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने पर यह कहा है कि कारकांश लग्न से बारहवें स्थान में सूर्य और केतु हों तो व्यक्ति शिवभक्त होता है, परन्तु केवल केतु हों, तो गणेश व स्कन्ध में भक्ति होती है। स्कन्ध कार्तिकेय को कहा गया है। द्वादश भाव में केतु हों और बृहस्पति वहाँ स्थित हों या कहीं से दृष्टि कर रहे हों, तो व्यक्ति संन्यास जैसी स्थिति में आ जाता है और मोक्ष प्राçप्त की ओर बढ़ता है। द्वादश भाव के स्वामी यदि केतु और बृहस्पति से संबंध कर लें तो भी व्यक्ति मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और इस तर्क के आधार पर वह गृहस्थ संन्यास जैसी स्थिति में पहुंच जाता है।
केतु के अन्य फल
जैमिनि ऋषि के अनुसार कारकांश लग्न में यदि केतु हों, तो व्यक्ति हाथियों का व्यापार करता है और चोरवृत्ति भी हो सकती है। कोई ग्रह जब कुण्डली में सर्वाधिक अंशों पर हों, तो वह ग्रह जिस नवमांश में स्थित होता है, वह नवमांश, कारकांश कहलाता है। कारकांश लग्न में यदि केतु हों और उसे पापग्रह के कान कट सकते हैं परन्तु कारकांश लग्न में आत्मकारक ग्रह बैठा हो, वहाँ केतु भी हो और शुक्र ग्रह उन्हें देखते हों, तो मनुष्य धार्मिक क्रियाओं में निपुण होता है।
नवग्रहों में सबसे विलक्षण और सबसे रहस्यमय केतु को माना गया है। ऋषियों ने या तो केतु की बहुत अधिक आलोचना की है या बहुत अधिक प्रशंसा। जैमिनि ऋषि ने केतु को अत्यन्त शुभ फलप्रद माना है। आध्यात्म या मोक्ष को मनुष्य का परम लक्ष्य मानते हुए केतु को इसका कारक माना है।
पौराणिक कथाओं में राहु को सिर व केतु को पूंछ माना गया है। अमृत चखने के बाद जब भगवान विष्णु ने शिरोच्छेद कर दिया तो राहु और केतु भी अमर हो गये और उन्हें देवयोनि प्राप्त हुई। राक्षस देवता हो गये और उन्हें ब्रrाा की सभा में बैठने का अधिकार मिल गया। अब नवग्रह मण्डल प्रतिष्ठा में राहु और केतु को अन्य देवताओं की तरह ही स्थान मिलता है और उन्हें यज्ञ भाग का अधिकार है। परन्तु राहु और केतु छाया ग्रह होने के कारण फल देने में अन्य ग्रहों से कुछ अलग हैं और उनकी गति के नियम भी अन्य ग्रहों से विपरीत हैं।
केतु के विषय
जैमिनि ज्योतिष में केतु को गणित, संन्यास, मानव-विज्ञान, चिकित्सा, विष चिकित्सा, शिकार, पाषाण कला, सींगों वाले पशुओं का व्यापार, दलाली, सम्पत्ति का आदान-प्रदान, ध्वजारोहण और सम्मान, अचानक घटी-घटनाएँ और सूक्ष्म वस्तुओं का स्वामी माना गया है। केतु छिद्रान्वेष्ाण में कुशल हैं और पार्थक्य के ग्रह हैं। केतु तर्क के अधिष्ठाता हैं और वाणी में शुष्कता लाते हैं।
केतु और आध्यात्म
केतु वेदान्त, दर्शन, तपस्या, ब्रrा ज्ञान, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्तियाँ, हठयोग, ध्वजारोहण एवं शारीरिक कष्टों के कारक माने गये हैं। आध्यात्मिक शक्तियों के उत्थान में केतु को श्रेष्ठ माना गया है।
जैमिनि ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म से बारहवें भाव में केतु हों और बृहस्पति हों या दोनों का परस्पर संबंध हो जाये तो केतु मोक्षकारक सिद्ध होते हैं। केतु त्याग कराते हैं या मोह भंग कराते हैं। केतु विरक्ति के कारक हैं। संसार से मोह भंग करके ईश्वर आराधना में ले जाने के लिए केतु को श्रेष्ठ माना गया है। जैमिनि ऋçष्ा ने मीन या कर्क राशि में केतु होने पर उसे मोक्ष का कारक माना है। लग्न से बारहवें भाव में केतु होने पर पाराशर ने भी उसे मोक्षकारक माना है। परन्तु पाराशर के अनुसार केतु पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होना आवश्यक है। जैमिनि ने अपने कारकांश लग्न के सिद्धान्त को आगे बढ़ाने पर यह कहा है कि कारकांश लग्न से बारहवें स्थान में सूर्य और केतु हों तो व्यक्ति शिवभक्त होता है, परन्तु केवल केतु हों, तो गणेश व स्कन्ध में भक्ति होती है। स्कन्ध कार्तिकेय को कहा गया है।
द्वादश भाव में केतु हों और बृहस्पति वहाँ स्थित हों या कहीं से दृष्टि कर रहे हों, तो व्यक्ति संन्यास जैसी स्थिति में आ जाता है और मोक्ष प्राçप्त की ओर बढ़ता है। द्वादश भाव के स्वामी यदि केतु और बृहस्पति से संबंध कर लें तो भी व्यक्ति मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और इस तर्क के आधार पर वह गृहस्थ संन्यास जैसी स्थिति में पहुंच जाता है।
केतु के अन्य फल
जैमिनि ऋषि के अनुसार कारकांश लग्न में यदि केतु हों, तो व्यक्ति हाथियों का व्यापार करता है और चोरवृत्ति भी हो सकती है। कोई ग्रह जब कुण्डली में सर्वाधिक अंशों पर हों, तो वह ग्रह जिस नवमांश में स्थित होता है, वह नवमांश, कारकांश कहलाता है। कारकांश लग्न में यदि केतु हों और उसे पापग्रह देखें तो मनुष्य के कानों में रोग होता है या उसके कान कट सकते हैं परन्तु कारकांश लग्न में आत्मकारक ग्रह बैठा हो, वहाँ केतु भी हो और शुक्र ग्रह उन्हें देखते हों, तो मनुष्य धार्मिक क्रियाओं में निपुण होता है।
कारकांश लग्न में ही केतु हों और उसे बुध व शनि देख लें तो व्यक्ति नपुंसक होता है। यदि बुध और शुक्र देख लें तो एक ही बात को बार-बार दोहराता है।
केतु और मकान
कारकांश लग्न से चौथे में केतु की दृष्टि हो या केतु वहाँ बैठे हों, तो ईटों का बना हुआ मकान होता है।
केतु और गणित
पाराशर मत में भी केतु यदि दूसरे भाव में हो या दूसरे भाव के स्वामी के साथ संबंध स्थापित करते हों या चौथे भाव में केतु हों, तो गणित में निष्णात बनाते हैं। द्वितीय भाव में बैठे हुए केतु में दो तरह के दोष हो सकते हैं। या तो व्यक्ति की वाणी में दोष आ जाए और वह अटक-अटक कर बोले या उसकी बोली में क़डवाहट हो सकती है।
केतु के अन्य विषय
पाराशर ने केतु को सेना भी माना है। चर्म रोगों का कारक केतु को माना गया है। केतु को संकर जातियों का अधिपति भी माना गया है। छिद्र युक्त वस्त्र और दाँत भी केतु विषय माने गये हैं। गण्डान्त नक्षत्रों में छ: में से तीन नक्षत्र ऎसे हैं जिनके स्वामी केतु हैं। अश्विनी, मघा और मूल केतु के नक्षत्र हैं।
केतु का दशाफल
ऋषि पाराशर के अनुसार यदि केन्द्र स्थान के स्वामी के साथ केतु केन्द्र में ही स्थित हों तो अपने दशाकाल में अत्यन्त शुभ फल करते हैं। केतु यदि शुभ ग्रहों के साथ हों और केन्द्र-त्रिकोण में स्थित हों तो अत्यन्त शुभ करते हैं। परन्तु यदि केतु नीच राशि में हों (मिथुन या किसी के अनुसार वृषभ) तथा किसी अस्त ग्रह के साथ हों तो कष्टप्रद होते हैं। यदि आठवें या बारहवें भाव में हो तो ह्वदय रोग, मान-हानि, पशु धन का नाश, स्त्री-पुत्र को कष्ट तथा मन में चंचलता होती है। यदि दूसरे भाव के स्वामी या सातवें भाव के स्वामी के साथ हों तो रोगभय, कष्ट और अपने बंधुओ का विनाश होता है। केतु को दूसरे और सातवें भाव में अच्छा नहीं माना गया है। सातवें भाव में यदि केतु हों तो वैवाहिक संबंधों में कष्टकारक होते हैं और पति-पत्नी के बीच में कलह का कारण बनते हैं। यदि किसी भी महादशा में महादशानाथ से 6, 8, 12 में पापग्रह के साथ केतु हों तो बहुत कष्ट लाते हैं और अगर केन्द्र-त्रिकोण में हों तो शुभफल देते हैं।
केतु के मित्र और शत्रु
मंगल-केतु के मित्र जैसे हैं और उनकी राशियां मेष और वृश्चिक में केतु शुभफल देते हैं। कई बार यह कहा गया है कि केतु कुजवत् परिणाम देते हैं। कुज मंगल को कहा गया है। केतु सबसे शानदार परिणाम बृहस्पति की राशियों में देते हैं। मीन राशि केतु की स्वराशि मानी गई है और धनु राशि केतु की उच्चा राशि मानी गई है। इन राशियों में स्थित केतु अपनी दशा में व्यक्ति को धनी बना देते हैं और घर में तरह-तरह की समृद्धि आती है। केतु की दशा में जब व्यक्ति व्यापार करता है तो छोटे आकार की वस्तुओं से लाभ होता है। केतु को सूक्ष्मकाय कहा गया है और कदाचित् बैक्टीरिया और वायरस से केतु का संबंध जो़डा जाना उचित है। इसीलिए त्वचा रोगों में इंफेक्शन इत्यादि होते हैं तो केतु का पूजा-पाठ शुभफल दे सकता है।
केतु का दशाकाल
राहु-केतु दोनों की समान गति है और राशि चक्र में वे एक-दूसरे से 1800 पर स्थित होते हैं तथा अन्य ग्रहों से विपरीत गति होती है परन्तु आश्चर्यजनक रूप से राहु का महादशाकाल 18 वर्ष माना गया है और केतु का महादशाकाल 7 वर्ष माना गया है। इस अन्तर का कारण किसी भी भारतीय वाङग्मय में उपलब्ध नहीं है।
राहु और केतु में अंतर
राहु को संसार भवसागर में बंधन कारक माना गया है, जबकि केतु को मोक्षकारक माना गया है। राहु माया के प्रतिनिधि हैं, जबकि केतु माया के नष्ट होने में रूचि लेते हैं। राहु ने अमृत पी लिया था परन्तु अमृतकण पेट में चले जाने के कारण केतु को अमरत्व प्राप्त हुआ था इसलिए केतु अपनी महादशाकाल में इस तरह की घटनाओं को जन्म देते हैं कि व्यक्ति का रिश्ते-नातों से मोह टूट जाता है और वह ईश्वर की शरण मे चला जाता है।
ग्रहण
राहु और केतु दोनों ही सूर्य और चन्द्रग्रहण के कारण बन सकते हैं। कई बार अमावस्या को ग्रहण प़डता है और वह राहु के कारण है तो अगली पूर्णिमा को केतु के कारण चन्द्र ग्रहण हो सकता है।