Tuesday, June 22, 2010

दशाओं का रहस्य


ज्योतिष में दशाओं का आविष्कार एक अद्भुत विज्ञान है जो कि ग्रहों द्वारा गत जन्म के कर्मफलों को इस जन्म में प्रकट करने का माध्यम है। ऎसा माना जाता है कि गतजन्म के अनभुक्त कर्मो की स्मृति गर्भधारण करते ही उस सूक्ष्म कण में जाती है जिससे कि गर्भस्थ शिशु का विकास होना होता है। यद्यपि महादशाओं के गणना की पद्धति में लग्न, राशियाँ, ग्रह इत्यादि को आधार माना गया है परंतु फिर भी नक्षत्रों पर आधारित दशा पद्धतियाँ अधिक लोकप्रिय सिद्ध हुई हैं। वेदांग ज्योतिष में चंद्रमा जिस नक्षत्र में उस दिन होते हैं वह उस दिन का नक्षत्र कहलाता है उस नक्षत्र का जो स्वामी ग्रह कहा गया है, उसकी महादशा जन्म के समय मानी गई है। बाद में क्रम से हर नक्षत्र या ग्रह की महादशा जीवनकाल में आती है। विंशोत्तरी दशा पद्धति में एक चक्र 120 वर्ष में पूरा होता है अत: एक जीवनकाल में एक ही चक्र मुश्किल से पूरा होता है तो योगिनी दशा में 36 वर्ष का एक चक्र होता है और मनुष्य के एक जीवनकाल में तीन चक्र पूरे हो सकते हैं। प्रत्येक ग्रह महादशा के काल में सभी ग्रह अपनी-अपनी अंतर्दशा लेकर आते हैं।
पाराशर ने जिन दशाओं की चर्चा की उनमें विशोंत्तरीदशा, अष्टोत्तरी, षोडशोत्तरी, द्वादशोत्तरी, pोत्तरी, शताब्दिबा, चतुरशीतिसमा, द्विसप्ततिसमा, षष्टिहायनी, षट्विंशत्समा, कालदशा, चक्रदशा, चरदशा, स्थिरदशा, केन्द्रदशा, कारकदशा, ब्रrाग्रहदशा, मण्डूकदशा, शूलदशा, योगर्धदशा, दृग्दशा, त्रिकोणदशा, राशिदशा, pस्वरादशा, योगिनी दशा, पिण्डदशा, नैसर्गिकदशा, अष्टवर्गदशा, सन्ध्यादशा, पाचकदशा, तारादशा।
इन दशाओं में पहली दशा तो जन्म नक्षत्र पर आधारित है बाकी दशाओं में कई तरह से फार्मूले प्रयोग किए गए हैं। ऋषियों ने बहुत परीक्षण किए हैं और हर संभव तरीके से दशाएं निकाली हैं। अष्टोत्तरी दशा के मामले में तो हद की कर दी और सब जगह राहु केतु को या तो गणना में शामिल ही नहीं किया या दोनों को ही कर दिया परंतु अष्टोत्तरी दशा में राहु को तो शामिल कर दिया और केतु को शामिल नहीं किया अर्थात् 8 ग्रहों की महादशाएं अष्टोत्तरी दशा में आती हैं।
अभिजित नक्षत्र को लेकर प्राचीन विद्वानों मेे मतभेद रहा है परंतु अष्टोत्तरी और षष्टिहायनी दशा में अभिजित नक्षत्र को गणना में लेकर क्रांतिकारी प्रयोग किए हैं। यद्यपि विंशोत्तरी दशा सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई परंतु आज भी अष्टोत्तरी दशा की उपेक्षा करना संभव नहीं है।
इन सब के अलावा ताजिक आदि पद्धतियों में मुद्दा जैसी दशाओं की गणना की गई है जो कि वैदिक नहीं मानी जाती है।
दशाएं ग्रहों का स्मृति कोष हैं
मनुष्य ने जो भी कर्म किए हैं वे संचित कर्म के रूप में वर्तमान जन्म में भोग्य होते हैं। गत जन्मों की स्मृतियाँ कहां संचित होती हैंक् आप कल्पना कीजिए कि जैसे कम्प्यूटर में कोई फोल्डर खोल दिया गया हो और कोई खास विषय की जितनी भी सामग्री आएगी, उस एक फोल्डर में संचित होती चली जाती है। जब कोई विशेषज्ञ उस फोल्डर को खोलता है तो केवल वही फोल्डर खुलता है और उससे संबंधित सारी सामग्री सामने जाती है। वह विशेषज्ञ उस सामग्री को पढ़ने में जितना समय लगाता है वह उस फोल्डर का महादशाकाल कहा जा सकता है। गत जन्मों में अगर हमने शनि के प्रति जो भी अपराध किए होंगे या उनके प्रति पुण्य किए होंगे वे उस ग्रह के फोल्डर या स्मृति कोष में चले गए होंगे। अब वह व्यक्ति जब जन्म लेगा तब शनि का स्मृति कोष या महादशा आते ही सारे कर्म घटनाओं के रूप में फलित होने लगते हैं।
कौन सी महादशा पहले ?
मुख्यत: जवानी में प़डने वाली दशाएं व्यक्ति को उन्नति देती हैं और सफलताएं या प्रसिद्धि जीवन के उत्तरार्द्ध में मिलती है। प्राय: बचपन की दो महादशाएं निष्फल हो जाती हैं और मृत्यु के तुरंत पूर्व की महादशा भी निष्फल हो जाया करती है। पहले मामले में माता-पिता फल भोगते हैं तो दूसरे मामले में पुत्र-पौत्र वास्तविक दशाफल को भोगते हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि 35 वर्ष से 65 वष्ाü की आयु में जो महादशाएं आती हैं वे व्यक्ति के उत्थान या पतन को दर्शाती हैं। हम यह भी मान सकते हैं कि 50 वर्ष की उम्र में व्यक्ति को जिस रूप में जाना जाता है वही उसकी पहचान हो जाती है। अपवाद सभी जगह मौजूद रहते हैं। जैसे खिल़ाडी जल्दी प्रसिद्ध हो जाते हैं तो डॉक्टर बाद में प्रसिद्ध होते हैं। सब ग्रहों में कुल मिलाकर जो 2-3 ग्रह सबसे अधिक फल देना चाहते हैं वे अगर अपना दशाकाल 35 से 65 वर्ष के दशाकाल में लेकर आएं तो तभी उनके फल वर्तमान जीवन में मिलना संभव है। इसका यह अर्थ भी हुआ कि जो ग्रह 35 वर्ष की उम्र में अपना दशाफल देना चाहते हैं वे उस जन्म नक्षत्र में चंद्रमा को जाने की प्रेरणा देंगे जो कि संख्या में उनसे 2 या 3 नक्षत्र पहले आता हो। यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि सब ग्रहों में या ग्रह परिषद में सर्वसम्मति के आधार पर यह निर्णय हो गया हो। यह भी संभव है कि किसी ग्रह ने इसी जन्म में फल देना माना हो तो किसी ग्रह ने अगले जन्म में प्रधान फल देना मान लिया हो।
दशाफल उस ग्रह से संबंधित समस्त पापों से मोक्ष नहीं है
इस जन्म में अगर कोई दशा चल रही है तो यह कतई नहीं माना जाना चाहिए कि उस ग्रह से संबंधित समस्त कर्मो का प्रकट्न हो गया है। यह संभव है कि संपूर्ण कर्मो का केवल कुछ प्रतिशत ही उस दशा में प्रकट हुआ हो और बाकी सब कर्म थो़डा-थो़डा करके अन्य कई जन्मों में प्रकट होते रहे हैं। तर्क से माना जा सकता है कि चूंकि हर जन्म में मनुष्य योनि मिलना संभव नहीं है इसलिए वे कर्म फल इतर योनियों में प्रकट हों। जैसे कि कुत्ता, बिल्ली, नीम या बैक्टीरिया। हम जानते हैं कि नीम को भी मारकेश लगता है और असमय मृत्यु भी हो सकती है।
मारक दशा मोक्ष दशा नहीं है
मारक दशा देह मुक्ति करा सकती है परंतु जीव मुक्ति नहीं हो सकती। यह भी संभव है कि प्रदत्त आयु 80 वर्ष में से देह मुक्ति 60 वर्षो में ही हो गई हो और शेष अभुक्त 20 वर्ष वह 2 या 3 जन्मों में पूरा करें। यह भी संभव है कि वह शेष 20 वर्ष प्रेत योनि में ही बिता दे।
देह मुक्ति और जीव मुक्ति मोक्ष नहीं है
वर्तमान जीवन में देह मुक्ति और जीव मुक्ति होने के बाद स्वर्ग या मोक्ष मिल जाए ऎसी कोई गांरटी नहीं है। एक देह का जन्म कर्मो के एक निश्चित भाग को भोगने के लिए होता है। कर्मो का इतना ही भाग एक देह को मिलता है जितना कि वह भोग सके। संभवत: ईश्वर नहीं चाहते थे कि जीव को लाखों वर्ष की आयु प्रदान की जाए। तर्क के आधार पर माना जा सकता है कि यदि मनुष्य को 500 वर्ष की आयु यदि दे दी जाती तो वह 450 वर्ष तो अपने आप को ईश्वर मानता रहता और शेष 50 वष्ाü अपने पापों को धोकर या गलाकर स्वर्ग प्राçप्त की कामना करता। मनुष्य धन या देह के अहंकार में सबसे पहली चुनौती ईश्वर को ही देता है और धनी होने पर उसके मंदिर जाने या पूजा-पाठ के समय में ही कटौती करता है। उसके इस कृत्य पर ईश्वर तो मुस्कुराता रहता है और अन्य समस्त प्राणी उससे ईष्र्या करते रहते हैं और उसके पतन की कामना करते रहते हैं।
ग्रहों की अठखेलियाँ
ग्रह पूरे जीवन में अपनी ही महादशा का भोग करा दें ऎसी कोई योजना ऋषियों को पता ही नहीं चली। जैसे मनुष्य को षडरस भोजन पसंद है, ग्रहों ने भी उसे तरह-तरह से सताने या ईनाम देने के रास्ते खोज लिए। एक सामान्य मनुष्य शुक्र या बुध की चिंता ज्यादा नहीं करता परंतु यह याद रखता है कि शनि या राहु की दशा कब आएगी या साढ़ेसाती कब लगेगी। आखिर वही तो ब़डा होता है जिसकी न्यूसेंस वेल्यू सबसे ज्यादा हो। यही कारण है कि मनुष्य राह में आई हुई गाय को तो सिंहनाद करके हटा देता है जबकि कटखने कुत्ते की गली में झांकने की भी हिम्मत नहीं करता।
ग्रह और दशाओं में समन्वय
पाप ग्रह की दशाएं आने पर मनुष्य तरह-तरह से पी़डा पाता है। आम मनुष्य यही समझते हैं, जबकि ज्योतिषी यह जानता है कि शुभ ग्रह भी अपनी दशा-अन्तर्दशा में नाराज होने पर दण्ड दे सकते हैं। ग्रह सर्वशक्ति संपन्न हैं और अच्छा-बुरा कोई भी फल दे सकते हैं। यह सत्य है कि वे अपनी दशा में आकर ही अपने संपूर्ण दर्शन कराते हैं और अपने दयार्द्र या रौद्र रूप का परिचय देते हैं।
दशाएं आत्मा के शुद्ध होने तक आवर्ती हैं
ऎसा नहीं है कि शनि दशा या कोई भी दशा इस जीवन तक ही सीमित रहती है। जब तक आत्मा माया से युक्त होकर जन्म लेता रहेगा तब तक हर जन्म में, हर योनि जन्म में ग्रहों की दशाएं आती रहेंगी। ऎसा प्रतीत होता है कि उस सर्वशक्तिमान ईश्वर ने माया को प्रकट होने और माया को नष्ट होने के माध्यम के रूप में जैसे ग्रहों को पावर ऑफ एटोर्नी दे दी हो।

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मोती

मोती का नाम लेते ही एक सुखद कल्पना उभरने लगती है। सौन्दर्य, कोमलता, अंग-सौष्ठव, कमनीयता, ाा, लावण्य और शीतलता, जैसे यह सब गुण एक साथ किसी बिन्दू में भर दिए गए हों। चाहे किसी राजा के आभूषण हों या किसी स्त्री के सौन्दर्य को उभारने वाली कोई वस्तु, मोती के बिना सब अधूरे हंै। मोती में आभा होती है और मोती में आब होती है। आब हिन्दी शब्द नहीं है परंतु उसका संबंध सार तत्व या जल से है। रहीम ने ठीक ही कहा है -
"रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए ना उबरे, मोती मानस चून।।"
मोती की आब ही उसका मूल्य तय करती है। रासायनिक दृष्टि से मोती केल्यशियम कार्बोनेट है और गर्म करने पर भस्म में बदल जाता है। मोती को आघात भी पसंद नहीं है क्योंकि यह कठोर रत्नों में नहीं है। अत्यंत कीमती है और कोई भी आभूषण मोती को पाकर अत्यंत सुंदर हो उठता है। ब़डे मोती को पाना सौभाग्य का प्रतीक है।
विक्रमादित्य की सभा के नवरत्न वराह मिहिर ने कई तरह के मोतियों का उल्लेख किया है। उनमें से कुछ मोतियों का वर्णन इस लेख में दे रहे हंै।
हाथी, सर्प, सींपी, शंख, मेद्य, बांस, मछली और सूअर से मोती की उत्पत्ति होती है। सबसे श्रेष्ठ मोती सींपी से उत्पन्न माना गया है।
प्राचीन ग्रंथों में सिंहलक देश, परलोक देश, सुराष्ट्र, ताम्रपर्णी नदी, पाराशव, कौबेेर, पाण्ड्यवाचक और हिम, ये आठ मोतियों की उत्पत्ति के स्थान बताए गए हंै। इनमें से परलोक शब्द बसरा के लिए प्रयोग किए गए हैं। ईरान और ईराक के बीच में बसरा की ख़ाडी स्थित है और उसके मोती अत्यंत मूल्यवान माने गए हैं। अब युद्ध और तेल की उत्पत्ति के कारण बसरा के मोती दुर्लभ हो गए हैं। कौबेर देश संभवत: श्रीलंका के लिए प्रयुक्त किया गया है। आज भी श्रीलंका में कल्चरल मोतियों की खेती होती है जो कि कृत्रिम रूप से उत्पन्न किए गए हैं। मोतियों की खेती मुख्यत: चीन, जापान और श्रीलंका में की जा रही है। यह मोती ना केवल बहुत सस्ते होते हैं बल्कि सुंदर भी होते हैं परंतु इन्हें पहनकर लोग गर्व नहीं कर सकते। गर्व करने वाले मोती आवश्यक नहीं कि एकदम गोल और सुंदर हों परंतु उनकी आभा अत्यंत पवित्र होती है और वे ओजस्वी होते हैं।
हैदराबाद के निजाम को मोती बहुत पसंद थे और वे बाजार से सारे अच्छे मोती खरीद लेते थे। परिणामस्वरूप मोतियों की उत्पत्ति का स्थान ना होते हुए भी हैदराबाद मोतियों की ब़डी मण्डी बन गया।
गज मुक्ता
पुष्य या श्रवण नक्षत्र में, रविवार या सोमवार के दिन, सूर्य के उत्तरायण में, सूर्य या चंद्रमा के ग्रहण के दिन, ऎरावत कुल में उत्पन्न जिन हाथियों का जन्म होता है उनके दाँतों में ब़डे-ब़डे और अनेक प्रकार के चमकीले मोती निकलते हैं। इनमें छिद्र नहीं किए जाते। वराह मिहिर कहते हैं कि इन मोतियों को धारण करने से पुत्र, आरोग्य और विजय की प्राçप्त होती है।
शूकरमुक्ता
सूअर के दंत मूल में चंद्र प्रभा के समान कान्ति वाले अत्यंत गुणी मोती निकलते हैं। ये मछली के नेत्र के समान शूल, स्थूल, पवित्र और कई गुणों से युक्त होते हैं।
मेघमुक्ता
ऎसी धारणा है कि वर्षाकाल में सप्तम वायु स्कंध से बिजली के गिरने से, मेघ से उत्पन्न इन मोतियों को देव योनियों के द्वारा ऊपर की ऊपर प्राप्त कर लिया जाता है, ये मनुष्य के लिए नहीं हैं।
नाग मुक्ता
भारतीय फिल्मों में नागमणि का उल्लेख मिलता है। आम धारणाएं भी हैं कि नागमणि का अस्तित्व है। वराह मिहिर कहते हैं कि तक्षक और वासुकि नामक नाग कुल में स्वेच्छाकारी सर्प हैं जिनके फणों के अग्र भाग में स्त्रिग्ध और नीली कांति वाले मोती होते हैं। जो भी इस मोती को प्राप्त करता है उसमें चमत्ककारी शक्तियाँ जाती हैं। वराह मिहिर कहते हैं कि यदि किसी चाँदी के पात्र में इस मोती को रख दिया जाए तो अचानक वर्षा सकती है।
वराह मिहिर ने सर्प मणि को लेकर एक श्लोक लिखा है-
भ्रमरशिखिकण्ठवर्णो दीपशिखासप्रभो भुजङग्ानाम्।
भवति मणि: किल मूर्धनि योùनर्घेय: स विज्ञेय:।।
भ्रमर या मयूर के कण्ठ के समान वर्ण वाली, दीपशिखा के समान कांति वाली अमूल्य मणि सर्पो के सिर पर होती है। सर्प मुक्ता को मणि की संज्ञा दी गई है। मणियों को सामान्य रत्नों से भी ज्यादा शुभ और अमूल्य माना गया है। जो राजा या महान् व्यक्ति मणि धारण करते हैं उनको विष संबंधी दोष रोग या नहीं होते हैं और सदा विजयी होते हैं।
बांस और शंख से उत्पन्न मोती
बांस से जो मोती उत्पन्न होता है वह स्फुटिक समान कांति वाला और विषम होता है। यह बिल्कुल गोल नहीं होता। शंख से जो मोती उत्पन्न होता है वह चंद्रमा के समान कांति वाला, गोल, चमकीला और सुंदर होता है।
शंख, मछली, बांस, हाथी, सूअर, सर्प और मेघ से उत्पन्न मोती छिद्र करने लायक नहीं होते। ये सब अमूल्य बताए गए हंै।
गज मुक्ता को लेकर किंवदन्तियाँ
गज मुक्ता को लेकर कई कहानियाँ प्रचलन में हैं। गज मुक्ता के परीक्षण के लिए कई उपाय काम में लिए जाते हैं। अगर पान के पत्ते पर रख दिया जाए तो यह मुक्ता पान के पत्ते को गला देती है और केवल जाल बचता है। पानी में तैरने या ना तैरने को लेकर भी इसका एक परीक्षण किया जाता है। मुझे आज से कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित म्यूजियम ऑफ इण्डोलॉजी के संस्थापक आचार्य रामचरण व्याकुल ने एक गजमुक्ता बताई थी। जिसका वजन करीब 100 ग्राम था। उस समय उसका मूल्य वे एक करो़ड रूपये बताते थे। मुक्ता बिल्कुल भी सुंदर नहीं थी। के.एन. राव एवं मेरे पति सतीश शर्मा भी उस दौरे में मेरे साथ थे। उस म्यूजियम में एक लाख विचित्र वस्तुओं का संग्रह है, ऎसा माना जाता है। उनमें से बहुत सारी वस्तुएं मैंने स्वयं ने देखी है।
मालाएँ
एक हाथ लंबी सत्ताईस मोतियों की माला का नाम नक्षत्र माला है। यह आम मनुष्य के लिए है। देवताओं के भूषण के लिए एक हजार आठ ल़डी वाली माला बताई गई है, जो चार हाथ लंबी होती है। 500 ल़डी, 108 ल़डी और 64 ल़डी, 20 ल़डी और 16 ल़डी की मालाएँ भी होती हंै। इनके विभिन्न नाम हंै और ç़डयों की संख्या के उपयुक्त ही इनका मूल्य बढ़ता हुआ चला जाता है।
मोतियों के देवता
श्याम वर्ण के मोतियों के देवता विष्णु, चंद्रकांति वाले मोतियों के देवता इन्द्र, हरिताल के समान मोती के देवता वरूण, काले वर्ण के मोती के देवता यम, अनार के बीज के समान रक्त वर्ण के मोती के देवता वायु तथा धूमरहित अग्नि या कमल के समान कांति वाले मोती के देवता अग्नि हंै।
मूल्य
प्राचीनकाल में धरण शब्द का प्रयोग तौल के रूप में होता था। मासा, तोला या धरण को मोती के मूल्य का पैमाना समझा जाता था। एक धरण में यदि बहुत कम मोती आए तो उसे अमूल्य माना जाता था। एक धरण पर 13 मोती चढ़ जाएं तो उसका मूल्य बहुत अधिक होता था और वह ब़डे लोगों के घरों की शोभा बढ़ाता था। एक धरण पर 80 से अधिक मोती चढ़ें तो उसे चूर्ण माना जाता था और उसका मूल्य बहुत कम हो जाता था।
स्वाति नक्षत्र का मोती
तुलसीदास जी ने लिखा है कि यदि वर्षाकाल में स्वाति नक्षत्र में सींपी के मुख में वर्षा कण गिरे तो वे जिस मोती को जन्म देते हैं वह अमूल्य होता है।
ज्योतिष में धारण करने की विधि
मोती को अनामिका में चाँदी में ही धारण करना चाहिए। दाँये हाथ में गंगाजल में स्नान कराने के बाद, गणेशजी और सोम का स्मरण करके, चाँदी में सोमवार के दिन, सूर्योदय से एक घंटे के अंदर, चंद्रमा की होरा में मोती धारण करना चाहिए। इससे चंद्रमा बलवान होते हैं।

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विश्वास और अन्धविश्वास

हाल ही में एक लेख ने ध्यान आकर्षित किया, “Supersitions can make you a better performer”, कोलोंग विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया। कुछ व्यक्तियों को दोGroups में बांटा गया और उन्हें काम सौंपा गया। एक Groups के व्यक्तियों को उनका कोई Lucky Charm साथ लाने को कहा गया। आश्चर्यजनक रूप से उन लोगों का Performance ज्यादा बेहतर आया जो अपने साथ अपना Lucky Charm ले कर आये थे। उन्होंने अपना कार्य औरों की अपेक्षा जल्दी पूरा किया और अधिक आत्मविश्वास का परिचय दिया।
इस पूरे लेख में सिर्फ एक संशोधन की आवश्यकता मुझे महसूस हुई और वह ‘Superstion’ की जगह 'Faith' शब्द का प्रयोग। विश्वास और अंधविश्वास में बहुत अंतर होता है। जो लोग अपने साथ अपना 'Lucky Charm' लेकर आये थे वो दरअसल अपने साथ एक विश्वास लेकर आये थे। इसी विश्वास की प्रेरणा के कारण वो औरों की अपेक्षा ज्यादा अच्छा कार्य कर पाये।
विश्वास और अंधविश्वास
वैसे तो विश्वास और अंधविश्वास को परिभाषित करना बहुत मुश्किल है परन्तु कम शब्दों में कहा जा सकता है जहां विश्वास ताकत है वहीं अंधविश्वास कमजोरी। किसी विश्वास के सहारे कठिन से कठिन परिस्थिति से भी बाहर आया जा सकता है। विश्वास बहुत ब़डा आसरा है। विश्वास से जु़डी एक कथा ने मुझे बहुत प्रभावित किया। एक गाँव में भयानक अकाल प़डा और सभी गाँववासियों ने मिलकर बरसात के लिए एक हवन रखा। सब लोग उस स्थल पर पहुँचे और सिर्फ एक नन्हें से बच्चो के हाथ में छाता था। यह वह विश्वास है जिसने इन्द्र देव को मजबूर किया कि वो उस हवन को स्वीकारें और सफल बनाएं।
अंधविश्वास पैरों में बेç़डया डाल देता है और आगे बढ़ने की गति को अवरूद्ध कर देता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हम विश्वास और अंधविश्वास के बारीक भेद को समझ नहीं पाते हैं। ज्योतिष पर विश्वास करने वाले लोगों को कई बार अंधविश्वासी ठहरा दिया जाता है। यहां तक कि पूजा-पाठ को भी कई लोग अंधविश्वास का नाम दे देते हैं। यह शायद हमारी समझ का ही फेर है। जब हमारे बुजुर्गो ने कहा कि ग्रहण के समय बाहर मत निकलो, आपको नुकसान हो सकता है तो हमने ब़डी शान से कहा कि हम इस अंधविश्वास को नहीं मानते। यही बात जब वैज्ञानिकों ने कही तो हमने ultraviolate rays की दुहाई देते हुए ग्रहण के समय बाहर न निकलने का तर्क देना शुरू कर दिया। जब किसी सास ने अपनी गर्भवती बहू को ग्रहण के समय बाहर निकलने की, ग्रहण के दौरान चाकू का प्रयोग करने और बिलकुल सीधे लेटे रहने की सलाह दी तो बहूरानी ने उन्हें दकियानूसी विचारों वाला करार दिया। आज वैज्ञानिक स्पष्ट कर चुके हैं कि यह बुजुर्ग सासें बिलकुल पते की बात कहती हैं। जो बातें हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने कहीं वो नि:स्वार्थ भाव से मानव हित के लिए कही गई थीं। उनमें अंधविश्वास जैसा कुछ नहीं था। वो वैज्ञानिक आधारवाली सर्वथा सत्य बातें थीं। अंधविश्वास का जन्म हमेशा स्वार्थ की कोख से ही होता है, इसलिए वो आधारहीन होता है। दक्षिण भारत के एक गांव में ऎसी मान्यता है कि ग्रहण के समय यदि अपंग बच्चाों को ध़्ाड तक मिट्टी में ग़ाड दिया जाये तो वो ठीक हो जाते हैं। यह अंधविश्वास की श्रेणी में आता है, क्योंकि किसी भी शास्त्र में ऎसा कोई विवरण नहीं है। दुर्भाग्य से ऎसे अंधविश्वासों को ज्योतिष से जो़ड दिया जाता है और फिर लोग बिना कोई विश्लेषण किये ज्योतिष को अंधविश्वास की श्रेणी में ले आते हैं।
ज्योतिष और आयुर्वेद सदा एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। दोनों ने ही रोग का आधार कफ, पित्त, वात को माना है। ज्योतिष में रोग का आधार पूर्व जन्म के कर्मो को माना गया है। ईलाज के रूप में दोनों ही दवाईयों आदि विद्याओं की सलाह देते हैं। ऎसे में यदि कोई ढोंगी चमत्कार से बीमारियों को ठीक करने का दावा करता है और भी़ड उसके पास उम़डती है तो यह अंधविश्वास है। हाल ही में एक खबर पढ़ी कि एक तांत्रिक ने घर में छुपे हुए खजाने का हवाला देते हुए एक परिवार से लाखों रूपये लूट लिए और उनकी पुत्री का शोषण किया। यह लालच से जन्मा अंधविश्वास है। मुझे आश्चर्य होता है कि पढ़े-लिखे लोग ऎसे लोगों का शिकार बन जाते हैं और उनसे अधिक पढ़े-लिखे लोग मूल कारण को जाने बिना ज्योतिष को इन सब का जिम्मेदार मानते हुए अंधविश्वास की श्रेणी में लाकर ख़डा कर देते हैं।
जो लोग ज्योतिष को अंधविश्वास की श्रेणी में रखते हैं और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए हर संभव तर्क देते हैं, यदि उनसे पूछा जाये कि ज्योतिष का आधार क्या है, तो वो नहीं बता पायेंगे क्योंकि वो जानते ही नहीं हैं कि जिस ज्योतिष को वे अंधविश्वास और भाग्यवादी कह रहे हैं, उसका आधार ही कर्म है। कुछ साल पहले तक मुझे ऎसे लोगों पर क्रोध आता था, पर अब उन पर तरस आता है। हमारे वेद और पुराण विज्ञान के सूत्रों से भरे हुए हैं।
ईश्वर और आत्मविश्वास
पश्चिम जगत के वैज्ञानिकों ने तरह-तरह की रिचर्स करके यह सिद्ध किया कि जो लोग ईश्वर पर विश्वास रखते हैं उनमें आत्मविश्वास अधिक होता है और वे आत्महत्या जैसे घृणित कार्य को नहीं करते हैं। ये बात भारतीय परिवेश में हम सदियों से जानते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने हर उस महत्वपूर्ण विषय को धर्म और ईश्वर से जो़ड दिया जो मानव हित के थे। भारतीय परिवारों में जब छोटे से बच्चो को भी कोई गलत कार्य करने से रोका जाता है तो यह समझाया जाता है कि कोई और देखे ना देखे ईश्वर हर पल तुम्हें देखता है। यदि उसके संस्कारों में मिलावट ना आए तो वह जीवनपर्यत गलत कार्य करने से बचता है। तो फिर ईश्वर पर यकीन करना अन्धविश्वास कैसे हो सकता हैक् कोई माने या ना माने परंतु यह सबसे ब़डा सच है कि बहुत सी बातें हमारे हाथ में हैं ही नहीं। तो फिर उनका संचालन कौन कर रहा हैक् डॉक्टर भी अंतिम परिणामों के लिए ईश्वर पर ही भरोसा करता है और हर डॉक्टर ने चमत्कारों को अनुभव किया है, जिसका कोई जवाब मेडिकल साईन्स के पास नहीं है।
ईश्वर पर विश्वास करने वाला अपने सारे प्रयास करता है और एक सीमा के बाद उस पर छो़डकर निश्चिंत हो जाता है इसलिए ईश्वर पर विश्वास करने वाले लोग ह्वदयघात के कम शिकार होते हैं।

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